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सीबीआई और कोर्ट की सीमा के पार: भ्रष्टाचार

जबरदस्त हंगामे और सरगर्मी के बाद आखिर हो ही गयी सीबीआई जांच की घोषणा! सीबीआई अब व्यापम की जांच करेगी, जिसने कथित तौर पर कई लोगों की जानें ले ली हैं, क्योंकि घोटालेबाजों को अपना भेद खुलने का डर जो था. यही नहीं, इसके तार चम्बल से भी जोड़े गए. खूब हो-हल्ला हुआ, इस्तीफे मांगे गए, हाई कोर्ट के रास्ते सुप्रीम कोर्ट तक याचिका पहुंची और उच्चतम न्यायलय ने फरमान सुना दिया सीबीआई रुपी 'तोते' को कि इसकी जांच करो. अब प्रश्न उठता है कि जिस सीबीआई पर तमाम प्रश्नचिन्ह उठे हों और सुप्रीम कोर्ट तक इसे 'तोता' कह चुका हो और लगभग प्रत्येक समय जो विपक्ष में रहा है, वह इसकी निष्पक्षता पर सवाल उठाता रहा है, उस जांच एजेंसी को इतना भरोसेमंद क्यों माना जाय? जहाँ तक व्यापम घोटाले का प्रश्न है, उसकी बात ही अद्भुत है. उसके तार उत्तर प्रदेश के सैफई
और कानपुर से होते हुए राजस्थान के कोटा और दूसरे शहरों तक पहुंचे हैं कि वहां के पढ़ाकू लड़कों को लाखों रूपये देकर दूसरे के नाम पर परीक्षा में बिठाया जाता था, लेकिन किसी को अब तक खबर ही नहीं. सवाल सिर्फ इस एक घोटाले भर का ही नहीं है, बल्कि हर एक घोटाले की यही कहानी है. अभी हाल ही में बहुचर्चित 'ललित मोदी' का आईपीएल प्रकरण सामने आया था और इस क्रिकेट पर्सनालिटी से जज, पत्रकार, नेता, अफसर सब जुड़े थे, लेकिन किसी को खबर ही नहीं! और सिर्फ यही क्यों, 2 - जी, कोयला घोटाले जैसे बड़े घोटालों की जानकारी भी किसी को इस स्कैंडल के खुलासे से पहले हुई ही नहीं थी. सवाल यह है कि भ्रष्टाचार को लेकर पूरे विश्व में बदनाम हो चुके भारत में ऐसा कौन सा सिस्टम बन चुका है कि बड़े से बड़ा घोटाला होता है, उसमें बड़े और छोटे समेत अनेक लोग शामिल होते हैं और तमाम सक्रीय इंटेलिजेंस एजेंसियों की मौजूदगी के बावजूद किसी को भनक तक नहीं लगती है? बाद में हो-हल्ला मचना शुरू होता है और सीबीआई रुपी तोते को जांच सौंप कर कर्त्तव्य की 'इतिश्री' हो जाती है. फिर अनगिनत भ्रष्ट लोगों में से एकाध को 'बलि का बकरा' बनाकर कुछ दिन जेल में रख दिया जाता है, फिर जमानत पर वह छूट जाता है और जांच भी समाप्त हो जाती है. फिर अगले घोटाले में भी यही प्रक्रिया अपनाई जाती है और यह प्रक्रिया अंतहीन रूप से चलती रहती है. व्यापम घोटाले के नाम पर जो शोर शराबा मच रहा है, वह तो एक बानगी भर है. सच तो यह है कि देश का सिस्टम ही इस असाध्य रोग से पीड़ित हो गया है. अभी कुछ दिनों पहले बिहार के हज़ारों शिक्षकों ने फर्जी डिग्री के मामले में हाई कोर्ट के संज्ञान लेने के बाद इस्तीफा दे दिया और यह प्रक्रिया अभी भी जारी है. यूपी में यदि किसी यादव के घर किसी बच्चे का जन्म होता है तो पडोसी बधाई देते हुए कहते हैं कि बधाई हो आपके घर 'डीएसपी' हुआ है, या पुलिसवाला पैदा हुआ है. पंजाब में भी बादल परिवार के रिश्तेदार 'मजीठिया' से जुड़ा मामला अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है कि किस प्रकार वहां नशे के कारोबार में सत्ता के करीबी लिप्त है. और तो छोड़ दीजिये, हाल ही हुए राष्ट्रव्यापी विशाल आंदोलन की उपज और अब मुख्यमंत्री बन चुके अरविन्द केजरीवाल की दिल्ली का हाल ही देख लीजिये. उन्होंने दिल्ली में जितने लोगों को टिकट दिया, उनमें किसी पर दबंगई का तो किसी पर शराब बाँटने का आरोप लगा. और तो और उनके एक मंत्री फर्जी डिग्री के मामले में तिहाड़ जेल की हवा खा रहे हैं. अन्ना हज़ारे के शिष्य और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के अगुआओं में शामिल रहे अरविन्द केजरीवाल ने अपनी पार्टी के 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाकर उनपर कृपा की हुई है तो कई पार्टी के पदाधिकारियों के रिश्तेदारों को भी लाभ पहुँचाने की बात सामने आयी है. संसदीय सचिव नियुक्ति के मामले में उन पर केस भी चल रहा है और जनलोकपाल के लिए लम्बी-लम्बी भूख हड़ताल करने वाले अरविन्द केजरीवाल, लोकपाल कौन कहे, अपनी पार्टी के संस्थापक सदस्यों को ही प्रश्न पूछने की खातिर पार्टी से निकाल चुके हैं. सवाल यह है कि हमारे देश के सिस्टम में ऐसी क्या खराबी आ गयी है कि 100 में 99 बेईमान हो गए हैं, और हम खुश पर खुश होते जा रहे हैं. घोटालों के कारण बदनाम होकर सत्ता से बाहर हो चुकी कांग्रेस पार्टी के युवराज कहे जाने वाले राहुल गांधी ने व्यापम घोटाले पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऊपर शब्दवाण छोड़ते हुए उनके वक्तव्य की याद दिलाई है, जिसमें नरेंद्र मोदी 'न खाऊंगा, न खाने दूंगा' की रट लगाया करते थे. अब सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट या सीबीआई भला क्या कर लेंगी और कितना कर लेंगी. क्या सच में किसी कोर्ट या जांच एजेंसी के बस की बात रह गयी है कि वह भ्रष्टाचार पर ज़रा भी अंकुश लगा सके? या फिर भ्रष्टाचार की समस्या प्रशासनिक और राजनीतिक होने के साथ साथ अब सामाजिक समस्या भी बन चुकी है, किसी दहेज़-प्रथा या सती-प्रथा की तरह. लगता तो यही है, क्योंकि हर माँ-बाप, बीवी-शौहर, बच्चों, रिश्तेदारों को ढेर सारा पैसा चाहिए, जल्द से जल्द पैसा चाहिए, पडोसी से ज्यादा! किसी भी कीमत पर! ऐसे में हमें किसी व्यापम या दुसरे घोटाले पर आश्चर्य क्यों होना चाहिए? क्या सच में आज का पिता या माँ अपने बच्चे से पूछने की हिम्मत कर सकते हैं कि उसने इतना सारा पैसा कहाँ से लाया? इसका उत्तर हम सब जानते हैं. हम सबको पता है कि सीबीआई की रिपोर्ट में क्या आने वाला है , क्योंकि यह कई सालों से एक ही पैटर्न पर चल रहा है. क्या करें, खानापूर्ति तो करनी ही है! आखिर, सरकार जो है, मगर किसी काम की नहीं है. पर क्या वास्तव में किसी ने इस गंभीर सामाजिक बुराई की ओर ध्यान देने की कोशिश की है. मेरे एक रिश्तेदार, जो बेहद ईमानदारी से बैंक में काम किया करते हैं, उन्होंने एक बार मुझे बताया कि बैंक में छोटे-छोटे लोन, छात्रों के वजीफे, बुढ़ापा पेंशन इत्यादि के लिए रिश्वत आती है और सैद्धांतिक रूप से आप चाहे जो कहें, लेकिन व्यवहारिक स्थिति यह है कि आपको वह पैसा चाहे-अनचाहे लेना ही पड़ता है. यही हाल लगभग हर एक सरकारी डिपार्टमेंट का बन चुका है. और डिपार्टमेंट्स ही क्यों, आप सभी राजनीतिक दलों में नजर उठकर देख लें, आपको सबसे एक से बढ़कर एक दलाल दिख जायेंगे, जिन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत बेशक एक छोटे कद से शुरू की हो, लेकिन भ्रष्टाचार की महिमा से वह पार्टी में बेहद महत्वपूर्ण स्थान पर विराजमान हैं और पार्टी का कोई भी काम उनकी मर्जी के वगैर नहीं होता है. सवाल फिर वहीं वहीं कि इस समस्या को कहाँ से हल किया जाय तो कैसे हल किया जाय! क्या शीर्ष स्तर पर कड़ाई से इस समस्या को हल करने की शुरुआत की जा सकती है, जैसा कि हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वादा किया था? क्या सामाजिक आन्दोलनों की आवश्यकता है इसके हल के लिए? क्या इन समस्याओं को जन-जागृति के तहत घर-परिवार में चर्चित करने से कुछ काम बन सकता है? क्या सबको रोजी रोजगार देने से इन समस्याओं पर अंकुश लग सकता है? क्या सरकारी अधिकारीयों के लिए समय-समय पर भ्रष्टाचार मुक्ति प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए? क्या अपने बच्चों को इस समस्या के प्रति जागरूक करना ठीक रहेगा? या फिर कुछ और .... ?? सोचिये, सोचिये और तब तक 'तोता-तोता' खेल देखने में कोई बुराई नहीं दिखती है!

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