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निष्पक्ष सोच और चर्चा जरूरी - New hindi article on political poison, individual decision, mithilesh ke lekh

सुबह-सुबह अलसाया सा बिस्तर पर एक दिन पड़ा था कि मेरे दो पड़ोसियों की चिल्लाने की आवाज़ सुनाई दी. बाद में पता चला कि एक पड़ोसी रोज अपना पानी का मोटर चला कर छोड़ देते थे और छत पर पानी गिरता रहता था. दुसरे पड़ोसी उनको जब समझाने की कोशिश करते थे तब पहले महोदय उनसे लड़ने लगते थे. लेकिन, इस बार बात कुछ ज्यादा ही बिगड़ गयी थी और मामला चीखम-चिल्लाहट से आगे बढ़कर गाली-गलौच तक पहुँच गया था. बाद में पहले पड़ोसी बजाय कि अपनी गलती मानते, वह लॉबिंग करने लगे. उनकी पत्नी ने मुझे कुछ देर बाद बालकनी में पकड़ लिया और लगीं सफाई देने कि, भैया! पानी गिर ही गया तो क्या हुआ, कोई छत गिर थोड़े ही गयी. मैंने ये कहा, उन्होंने वो कहा... जब उनकी सफाई देने की गाड़ी रूकती दिखाई नहीं दी तो मैंने बिना लाग-लपेट के कहा कि 'भाभीजी, क्या बिल्डिंग में रोज झगड़ा होना ठीक है...'  वह फिर कहने लगीं कि, भैया मेरा क्या दोष है, मैंने तो.. .. उनकी बात काटते हुए मैंने जब टोका कि 'भाभीजी, गलती तो आपकी ही है और इसे आपको समझकर 'सॉरी' बोलकर मामला ख़त्म करना चाहिए था और आगे से सुधार करना चाहिए था! मेरा इतना कहना भर था कि वह 'आई डोंट वांट डिस्कशन...' कहते हुए तुनक कर खड़ी हो गयीं. मैं भी बालकनी से कमरे में आ गया और सोचने लगा कि 'लोग आख़िरकार, अपने बारे में निष्पक्ष आंकलन क्यों नहीं सुन पा रहे हैं?' यही हालत हर जगह आपको देखने को मिल जाएगी. जो गलत है, वह बजाय कि अपनी गलती सुधारे, लॉबिंग और राजनीति करना शुरू कर देता है और लोग भी बजाय कि उसे सही राय दें, इस राजनीति में पक्ष-विपक्ष बन कर खड़े हो जाते हैं और समस्याएं जस की तस ही रह जाती हैं. 

इसी क्रम में हम देखते हैं तो नज़र आता है कि देश में तमाम तरह के मुद्दे हैं, लोग हैं, समस्याएं हैं तो विचारधाराएं भी हैं. अगर कोई यह कहे कि सिर्फ वही सही है और बाकी लोग गलत हैं तो इसे उसकी अतिवादिता ही कहा जाना चाहिए, किन्तु मुश्किल यह है कि ऐसा ही हो रहा है. भाई तुम इसलिए गलत हो क्योंकि हमारी भाषा नहीं बोलते हो! आश्चर्य की बात यह है कि यह प्रवृत्ति कोई एक व्यक्ति या संगठन तक ही सीमित नहीं है, बल्कि आज के समय में हर कोई इसके लपेटे में दिखता है. ज़रा आप गौर कीजिये और बताइये कि इस तरह की मानसिकता किस हद तक सही है! अगर आप ने विकास की बात कर दी तो आप पूंजीपतियों के समर्थक घोषित कर दिए जाते हैं और अगर आपने गरीबों की बात कर दी तो आप तत्काल कम्युनिस्ट घोषित कर दिए जाते हैं. अगर आपने भारत माता की जय बोला तो आप पर संघी होने का ठप्पा जड़ दिया जाता है और अगर आप असहिष्णुता का मुद्दा उठाते हो तो आपको तत्काल राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया जाता है. अगर आपने सरकार की अच्छी योजनाओं की तारीफ़ कर दी तो आपको तुरंत ही भाजपाई घोषित करने में देर नहीं की जाएगी और अगर आपने सरकार की खिंचाई कर दी तो आपको कांग्रेस समर्थक या मोदी विरोधियों की कतार में खड़ा कर दिया जायेगा! सवाल यह है कि क्या हम भारत की जनता अपनी स्वतंत्र राय नहीं रख सकते हैं? क्या हम अपने विवेक के आधार पर गलत को गलत और सही को सही कहने का अधिकार खो चुके हैं? हमारे देश भारत में भगवान राम से बढ़कर कोई आदर्श नहीं माना गया है, जिन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में आदर्श स्थापित करके दिखलाया, किन्तु उनकी आलोचना भी हुई. मुश्किल यह है कि आज का व्यक्ति, समूह और संगठन तक अपनी आलोचना सुनने को जरा भी तैयार नहीं हैं और ज्योंही उनको कोई अपनी कमियां बताता है वह तत्काल खड़े हो जाते हैं और गाली-गलौच से लेकर हर वह कार्य करते हैं, जिनसे न केवल खुद उन्हें नुक्सान होता है, बल्कि समूह और संगठन तक को दीर्घकालिक नुक्सान झेलना पड़ता है. कई मामलों में तो इस तरह की सोच से राष्ट्र भी नुक्सान झेलने को अभिशप्त हो जाता है. लोग कहते हैं कि उम्र बढ़ने के साथ, अनुभव और ज्ञान बढ़ता है, किन्तु सच कहा जाए तो कई मामलों में मूर्खता और दुराग्रह ही बढ़ता जाता है. इस पूरे मामले को एक हालिया उदाहरण से समझा जा सकता है. हाल ही में जेएनयू और कन्हैया कुमार का मामला आजकल मीडिया की सुर्खियां बना हुआ है. जेएनयू में राष्ट्रविरोधी बयानबाजी हुई और पुलिस ने इस छात्र नेता को शुरूआती सबूतों के आधार पर गिरफ्तार किया. अब यहाँ बिडम्बना देखिये कि बजाय इस मामले को कानूनी तौर पर निपटने दिया जाता, इसे राजनीतिक फसल उगाने का स्थान मान लिया गया और सोशल मीडिया से लेकर पारम्परिक मीडिया में दो फाड़ हो गया, कानफोड़ू बहसें हुईं, अदालत से इतर फैसले दे दिए गए, किसानों और जवानों सबको इसमें शामिल कर लिया गया और जनता को हर ओर से मजबूर किया गया कि वह भी पक्ष या विपक्ष में खड़े हों! कुछ लोग राष्ट्रप्रेम की बातें करने लगें तो दुसरे लोग गरीबों और मजलूमों की आवाज उठाने लगें. यहाँ सोचने वाली बात यह है कि आम आदमी की अपनी आवाज क्या है, उसकी सोच क्या है, यह बात पूरी तरह से दब गयी और उसके सामने 'ऑब्जेक्टिव' स्टाइल में सिर्फ हाँ या ना कहने का विकल्प शेष रह गया. खैर, यह मामला आगे चला और अदालत ने चेतावनी देते हुए कन्हैया कुमार को अंतरिम ज़मानत दे दी. इसके बाद कन्हैया किसी हीरो की तरह जेएनयू में भाषण देने खड़े हुए, ज़ोरदार भाषण भी दिया और मीडिया ने उन्हें किसी बड़े राष्ट्रीय नेता की ही तरह दिखाया भी. 

मुश्किल यह देखिये कि वह भी मामले को राजनीतिक रूप से भुनाने में चूके नहीं और बजाय कि कुछ सोच विचारकर जेएनयू और देश को दिशा देने की कोशिश करते, उन्होंने प्रहार करने की राजनीतिक राह चुनी और प्रधानमंत्री से लेकर दुसरे विरोधियों पर जमकर बरसे, लाल सलाम का नारा लगाया, विद्यार्थियों में जीत के जश्न जैसा माहौल बनाया तो कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी ने तत्काल ही बयान दे दिया कि कन्हैया उनकी पार्टी के लिए पश्चिम बंगाल में प्रचार करेंगे! मतलब, बात घूम फिरकर वोट पर आ पहुंची और जनता को फिर हाँ/ ना का विकल्प दे दिया गया. पक्ष-विपक्ष के लोग फिर सोशल मीडिया पर भिड़ गए और उनकी गिरफ्तारी की ही तरह कन्हैया की रिहाई भी राजनीतिक अखाड़ा बन कर रह गयी. कोई व्यक्ति या समूह पूरी तरह सही या गलत नहीं हो सकता है. हर एक के भीतर कुछ अच्छाई तो कुछ बुराई भी होती ही है और इसका पता चलता है स्वस्थ डिबेट से, किन्तु हम डिबेट कर कहाँ रहे हैं? हम तो राजनेताओं की ज़हरीली खेती से उत्पन्न उत्पाद ग्रहण करके ज़हरीले होते जा रहे हैं, अच्छाई और बुराई को विचारधाराओं से ढक दे रहे हैं और सीखने की प्रक्रिया को कुंद करके खुद को देशभक्त और आज़ादी का समर्थक बताकर खूब इतरा रहे हैं, किन्तु सच तो यही है कि ज़हरीले अनाज खाकर हम भी ज़हरीले हो गए हैं और हमारा ज़हर बढ़ता जा रहा है. आज आपको फेसबुक से लेकर ट्विटर और मीडिया से लेकर तमाम संगठनों तक में ऐसे लोग बहुतायत में मिल जायेंगे जो अपनों की गलती को छुपाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं और दूसरा लाख अच्छा करे, उसका विरोध करना ही वह अपना धर्म मानते हैं. हम लाख कहें कि हम स्वतंत्र हैं, देशप्रेमी हैं, किन्तु मुश्किल यह है कि हम भाजपाई, कांग्रेसी, समाजवादी, कम्युनिष्ट, संघी जैसे खेमों में बंट गए हैं और इनके शीर्ष पर बैठे लोगों के अंधभक्त से बन गए हैं. सोचना होगा हमें, क्योंकि इस ज़हर से मुक्ति बेहद आवश्यक है और यह भीड़ भरी मानसिकता के बजाय व्यक्तिगत होना चाहिए. लोग खुद के स्तर पर डिसीजन ले सकें, अच्छे की तारीफ़ कर सकें, बुरे को खारिज कर सकें और तभी सच्चे मायनों में हमें इस ज़हर से मुक्ति मिल सकेगी.
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2 टिप्पणियाँ

  1. बिलकुल सही कहा आपने। हमें व्यक्तिगत तौर पर फैसले लेने की कला सीखनी होगी।

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    1. अंधभक्ति और अंधविरोध दोनों ही देश को नुक्सान पहुंचा रहे हैं मैडम.... लोगों का व्यक्तिगत विवेक जैसे लुप्त हो रहा है !!!
      प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद.

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