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पिछले दिनों अपने एक मित्र के साथ मैं दिल्ली के लोधी रोड स्थित ईसीएचएस पॉलीक्लिनिक गया. यहां पर सशस्त्र बलों के रिटायर्ड लोगों और उन पर डिपेंडेंट व्यक्तियों (जैसे उनकी पत्नी) का मुफ्त इलाज होता है. वैसे यह इलाज मुफ्त नहीं है, क्योंकि इसका कंट्रीब्यूशन वह अपनी सर्विस-ड्यूरेशन के दौरान लगातार करते रहते हैं, इसीलिए यह उनका हक है.
पिछले दिनों अपने दोस्त के साथ इस पॉलीक्लिनिक में गया तो पता चला कि वहां पर दवाइयां खत्म हुई हैं और लोगों को आसानी से नहीं मिल रही हैं. जब वहां पर दवाइयां उपलब्ध नहीं होती हैं तो वहां के डॉक्टर एएफसी यानी आर्म्ड फोर्सेज क्लीनिक जो लुटियंस में दारा शिकोह मार्ग पर स्थित है, वहां पर रेफर करते हैं.
यह बात जून 2019 के दुसरे सप्ताह की है, ठीक इसी समय बिहार में चमकी बुखार से कई नौनिहाल जान गँवा चुके थे और यह पूरा मामला भारत को शर्मसार कर रहा है. ठीक इसी समय वर्ल्ड कप में भारत ने पाकिस्तान को हराया भी है, जिस पर देशवासी गौरवान्वित होकर फूले नहीं समा रहे हैं.
हालांकि ईसीएचएस में वैकल्पिक व्यवस्था के तहत कुछ जरूरी दवाइयां खरीदकर पेशेंट को दी जा रही थीं, लेकिन इसमें उनकी वह सभी दवाइयां शामिल नहीं थीं, जो किसी पेशेंट के लिए आवश्यक होती हैं और इसमें भी 1 हफ्ते या अधिक का समय लग रहा था.
पर 'चमकी बुखार' से सैकड़ों से अधिक बच्चे मर जाने की अवस्था में आ गए, ऐसे में समझा जा सकता है कि वहां दवाइयों की वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं थी!
आप कहेंगे कि यह सब वर्णन मैं क्यों कर रहा हूं तो आपको इसका थोड़ा और कॉन्टेक्स्ट बता देता हूं/ जिस दोस्त के साथ मैं ईसीएचएस, लोधी रोड में गया था, उसकी मां उत्तर प्रदेश के किसी जिले से रेफर होकर दिल्ली इलाज कराने आईं थीं. उसके पिता आर्मी में अपनी रिटायरमेंट तक सर्विस देते रहे थे.
बिहार में मौत पर तो अब 'रूटीन' बन चुकी है. हर साल वहां मौतें होती ही हैं, तो इसमें चाँद पर जाने वाला देश भला क्या कर सकता है? इस पर तमाम लेख लिखे गए हैं और विभिन्न समाचार पत्रों में, पत्रिकाओं में इस पर एनालिसिस भी की जा रही है. हर साल की तरह रूटीन दौरा भी किया जा रहा है, स्वास्थ्य मंत्री और स्वास्थ्य मंत्रालय अपने राज्यमंत्री 'अश्विनी चौबे' की तरह सोते-उंघते, चिंतन-मनन करते इस पर अपनी एडवाइजरी भी जारी कर रहा है. अब इतना कुछ तो हो रहा है, उसके बावजूद अगर बच्चे मर रहे हैं, पूर्व सैनिकों को दिल्ली जैसी जगह तक में भागमभाग करनी पड़ रही है, समय से दवा नहीं मिल रही है तो भला क्या किया जा सकता है?
नहीं, नेता तो सिर्फ चुनाव के लिए होते हैं... डॉक्टर सिर्फ हड़ताल करने के लिए होते हैं... स्वास्थ्य मंत्रालय सिर्फ ऊँघने के लिए होता है और... और बच्चे होते हैं मरने के लिए. वह चाहे मुजफ्फरपुर में 'चमकी बुखार' से मरें, गुजरात में आग से मरें या गोरखपुर में ऑक्सीजन की कमी से क्यों न मरें!
बाकी क्षेत्रों में हम 'विकसित' हो रहे हैं न?
यह क्या कम है??
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
पिछले दिनों अपने एक मित्र के साथ मैं दिल्ली के लोधी रोड स्थित ईसीएचएस पॉलीक्लिनिक गया. यहां पर सशस्त्र बलों के रिटायर्ड लोगों और उन पर डिपेंडेंट व्यक्तियों (जैसे उनकी पत्नी) का मुफ्त इलाज होता है. वैसे यह इलाज मुफ्त नहीं है, क्योंकि इसका कंट्रीब्यूशन वह अपनी सर्विस-ड्यूरेशन के दौरान लगातार करते रहते हैं, इसीलिए यह उनका हक है.
पिछले दिनों अपने दोस्त के साथ इस पॉलीक्लिनिक में गया तो पता चला कि वहां पर दवाइयां खत्म हुई हैं और लोगों को आसानी से नहीं मिल रही हैं. जब वहां पर दवाइयां उपलब्ध नहीं होती हैं तो वहां के डॉक्टर एएफसी यानी आर्म्ड फोर्सेज क्लीनिक जो लुटियंस में दारा शिकोह मार्ग पर स्थित है, वहां पर रेफर करते हैं.
आप आश्चर्य करेंगे कि वहां पर भी फंड ना होने की वजह से दवाइयां नहीं थीं और उन्होंने बकायदा एडवाइजरी जारी करके ईसीएचएस, लोधी रोड को पेशेंट रेफर करने से मना कर दिया था.
More than 111 Children died in Chamki Bukhar till 15th June 2019 |
ठीक इसी समय भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिश्केक के शंघाई सहयोग संगठन में पाकिस्तान को अपनी कूटनीति से सीधा कर दिया था और समूचे विश्व को अपनी मजबूत उपस्थिति का अहसास कराया था.ठीक इसी समय के पास इसरो ने अपना चंद्रयान मिशन लांच करने की घोषणा के साथ अंतरिक्ष में स्पेस स्टेशन बनाने की महत्वाकांक्षी योजना की घोषणा करके अमेरिका, रूस और चीन के बाद चौथा ऐसा देश बनने की ओर बढ़ गया था. और भी कई घटनाएं हैं, जिन पर भारत गर्व कर सकता है और वह सारी घटनाएं जून 2019 के दूसरे सप्ताह में ही घटित हुई थीं, किन्तु पूर्व सैनिकों की दवाइयों का फण्ड, वह भी दिल्ली में भला किस प्रकार ख़त्म हो गया था... वह भी जून 2019 के दूसरे सप्ताह में ही, यह बात समझ से बाहर है!
हालांकि ईसीएचएस में वैकल्पिक व्यवस्था के तहत कुछ जरूरी दवाइयां खरीदकर पेशेंट को दी जा रही थीं, लेकिन इसमें उनकी वह सभी दवाइयां शामिल नहीं थीं, जो किसी पेशेंट के लिए आवश्यक होती हैं और इसमें भी 1 हफ्ते या अधिक का समय लग रहा था.
पर 'चमकी बुखार' से सैकड़ों से अधिक बच्चे मर जाने की अवस्था में आ गए, ऐसे में समझा जा सकता है कि वहां दवाइयों की वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं थी!
Central Health Ministers Dr. Harshvardhan speaking on Chamki Bukhar and his junior Ashwini Chaubey Sleeping in Press Conference |
मैंने अपने दोस्त से पूछा तो पता चला कि उसके गृह जनपद में हमेशा ही दवाइयां खत्म रहती हैं और इसीलिए उसने अपने माता जी को दिल्ली रेफर कराया. जरा सोचिए दिल्ली जैसी अत्याधुनिक जगह और एक्स सर्विसमैन के लिए सबसे महत्वपूर्ण पॉलीक्लिनिक और आर्म्ड फोर्सेज का बड़ा क्लीनिक... और अगर इसमें भी दवाइयां फण्ड के कारण खत्म होती हैं तो स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर भला और क्या कहा जा सकता है?
बिहार में मौत पर तो अब 'रूटीन' बन चुकी है. हर साल वहां मौतें होती ही हैं, तो इसमें चाँद पर जाने वाला देश भला क्या कर सकता है? इस पर तमाम लेख लिखे गए हैं और विभिन्न समाचार पत्रों में, पत्रिकाओं में इस पर एनालिसिस भी की जा रही है. हर साल की तरह रूटीन दौरा भी किया जा रहा है, स्वास्थ्य मंत्री और स्वास्थ्य मंत्रालय अपने राज्यमंत्री 'अश्विनी चौबे' की तरह सोते-उंघते, चिंतन-मनन करते इस पर अपनी एडवाइजरी भी जारी कर रहा है. अब इतना कुछ तो हो रहा है, उसके बावजूद अगर बच्चे मर रहे हैं, पूर्व सैनिकों को दिल्ली जैसी जगह तक में भागमभाग करनी पड़ रही है, समय से दवा नहीं मिल रही है तो भला क्या किया जा सकता है?
अब क्या अमित शाह जी स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए चुनाव-जीतने जैसी सटीक रणनीति बनाएं?
नहीं, नेता तो सिर्फ चुनाव के लिए होते हैं... डॉक्टर सिर्फ हड़ताल करने के लिए होते हैं... स्वास्थ्य मंत्रालय सिर्फ ऊँघने के लिए होता है और... और बच्चे होते हैं मरने के लिए. वह चाहे मुजफ्फरपुर में 'चमकी बुखार' से मरें, गुजरात में आग से मरें या गोरखपुर में ऑक्सीजन की कमी से क्यों न मरें!
ECHS Polyclinic, Lodhi Road, New Delhi |
आखिर स्वास्थ्य सेवाओं का रोना हम कब तक रोयेंगे, कब तक दवाइयों की कमी का रोना रोयेंगे, कब तक डॉक्टर्स की संख्या का रोना रोयेंगे... इससे बेहतर तो यही है कि 'शिक्षा और स्वास्थ्य' के क्षेत्र में हम 'तीसरी दुनिया' के देश ही कहे जाएँ!
बाकी क्षेत्रों में हम 'विकसित' हो रहे हैं न?
यह क्या कम है??
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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