भारतीय सेना आजकल कई वजहों से चर्चा में है. पहले भारतीय क्रिकेट के सर्वाधिक लोकप्रिय चेहरे महेंद्र सिंह धोनी की बात कर ली जाए, जिनके शब्दों में उनके बचपन का सपना है सेना में जाना. सेना ने भी उन्हें मानद कर्नल के रैंक से न केवल सम्मानित किया है, बल्कि उन्हें आगरा में वायुसेना के विमान से 1250 फुट की ऊंचाई से छलांग भी लगवाई गयी है, जो उनके पैरा जंपिंग की ट्रेनिंग का ही एक हिस्सा है. कई विश्लेषक इस बात से खुश दिख रहे हैं तो कई इस बात की ओर भी इशारा कर रहे हैं कि भारतीय क्रिकेट में हासिये पर जाने के बाद धोनी-ब्रांड को सेना से जुड़ाव के कारण और मजबूती मिलेगी. खैर, इस से किसी को आपत्ति नहीं हो सकती और होनी भी नहीं चाहिए, किन्तु इसके काउंटर प्रश्न जरूर पूछा जाना चाहिए कि क्या धोनी के जुड़ाव से सेना के प्रति देश के युवकों में रूझान भी बढ़ेगा अथवा क्या धोनी का यह जुड़ाव मात्र ब्रांडिंग के लिहाज से किया जाने वाले क्षणिक जुड़ाव है अथवा वह सेना की गरिमा को वह ताउम्र समझेंगे भी! मसलन, मैच फिक्सिंग से लेकर, अनाप शनाप ब्रांडों के अम्बैस्डर बनने से पहले वह सेना की अहमियत और अनुशासन अपने दिमाग में बनाये रखेंगे अथवा यह .... .... .!! यह समझना बेहद आवश्यक है कि भारतीय सेना सम्पूर्ण विश्व की सेनाओं में अपने अनुशासन के माध्यम से विशेष स्थान रखती है, मगर हालिया दिनों में इसके राजनीतिकरण करने के प्रयास भी हो रहे हैं, चाहे जाने या अनजाने! पिछली यूपीए सरकार की चाहे लाख बुराई की जाए, लेकिन उसके रक्षा मंत्री रहे ए.के.एंटनी के एक बयान को याद करना यहाँ ठीक रहेगा. अपने कार्यकाल के दौरान, सेना के तत्कालीन जनरल रहे वी. के. सिंह की उम्र का विवाद तब सामने आया था. तब बहुत कुरेदने पर एंटनी ने पत्रकारों से इतना कहा था कि सरकार अपने हाथ खून से नहीं रंगना चाहती. हालाँकि, इसे एक कड़ा बयान माना जा सकता है, किन्तु उसके बाद इस मामले को उचित ढंग से निपटाया गया था. यह बात भी गौर करने वाली है कि तब वी. के. सिंह का व्यवहार राजनीति से प्रेरित आंकलित किया जा रहा था. इसके साथ उन्होंने जिस प्रकार सेना के एक अन्य जनरल को निशाने पर लिया था, उसे उनके आगे आने वाले जनरल ने न सिर्फ रद्द किया, बल्कि भाजपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में वी. के. सिंह के रूख के खिलाफ हलफनामा भी दायर किया. वी. के. सिंह के ही कार्यकाल में सेना की एक टुकड़ी द्वारा दिल्ली की ओर बढ़ने की अफवाह भी उड़ी, जो शायद भारतीय सेना के बारे में सबसे बड़ी अफवाह भी थी, जिसे लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि इस तरह की खबरें डराने वाली होती हैं. हाल फिलहाल में सेना से जुड़ा यह एक गैर जरूरी विवाद था, जिससे वी. के. सिंह और सरकारी विभाग बच सकते थे. इस विवाद के बाद चुनाव में पूर्व सैनिकों की वन रैंक, वन पेंशन की मांग को यूपीए ने सैद्धांतिक रूप से मंजूर करके इसे आने वाली सरकार के कंधे पर डाल दिया. लोकसभा चुनाव में वर्तमान प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे को हाथों हाथ लपका था और इसे जमकर भुनाया भी. समस्या तब आनी शुरू हुई, जब सैनिकों ने इसे सीरियसली ले लिया और इस जंग को अंजाम तक पहुँचाने में जुट गए. इसी कड़ी में जंतर-मंतर पर ठीक पंद्रह अगस्त के पहले पुलिस ने पूर्व सैनिकों के धरने को तितर बीतर करने के लिए बल प्रयोग क्या किया, इसकी धधक लाल किले तक पहुंची और प्रधानमंत्री को अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में, न चाहते हुए भी इस मुद्दे का ज़िक्र करना पड़ा. हालाँकि, पूर्व सैनिकों का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर विश्वास बना हुआ है, लेकिन सवाल यह है कि सेना से जुड़े मुद्दों का इतने लम्बे समय तक राजनीतिकरण करने का क्या तुक है? इसी सन्दर्भ में, जब प्रधानमंत्री ने बिहार राज्य के लिए एक बड़े पैकेज की घोषणा की तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल जैसे उनके विरोधियों ने तत्काल वन रैंक, वन पेंशन के मुद्दे को इससे जोड़ दिया और तुरंत कहा कि अगर केंद्र के पास इतना पैसा है तो वह पूर्व फौजियों की बात क्यों नहीं मान लेती है? यह अलग बात है कि केजरीवाल और राहुल गांधी के सपोर्ट को मात्र कुछ ही दिन पहले पूर्व सैनिकों का संगठन ठुकरा चुका है. इन तमाम उथल पुथल के बीच एक महत्वपूर्ण संगठन विवेकानंद फाउंडेशन के अडवाइजरी बोर्ड में शामिल पूर्व एयर चीफ एस. कृष्णास्वामी ने स्थिति पर चिंता जताई है कहा है कि 'पीएम सबसे मिल रहे हैं, तो पूर्व सैनिकों से क्यों नहीं मिलते? उन्हें बताना चाहिए कि उन्होंने क्या प्लानिंग की है.' इस मामले में पीएम को लेटर लिखने वालों में विवेकानंद फाउंडेशन के अडवाइजरी बोर्ड में शामिल पूर्व आर्मी चीफ शंकर रॉयचौधरी और वी. एन. शर्मा भी हैं. हालाँकि, प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर सीरियस हो चुके हैं और इस बात का इशारा उनके द्वारा सैनिकों को कुछ और दिन इन्तेजार करने को कहना बतलाता है. इस मुद्दे का जो भी हल हो, मगर सेना के गैर-राजनैतिक चरित्र को स्थिर रखने के मुद्दे पर सरकार और विपक्षी पार्टियों को विशेष विचार करना चाहिए, क्योंकि देश की रक्षा का मुद्दा सर्वोपरि है. जहाँ तक बात, वन रैंक, वन पेंशन की है तो इसके लिए 1980 से ही मांग उठ रही है, मगर वित्त मंत्रालय ने आर्थिक घाटे की बात उठकर सरकार को असमंजस में डाल रखा है. उसकी दलील है कि इसके अमल में आने से हर साल आर्थिक बोझ बढ़ता रहेगा और इसे लागू करते ही दूसरे विभागों में इसे लागू करने की मांग भी उठने लगेगी, विशेषकर अर्ध-सैनिक बलों में. सेना का तर्क है कि यह सुविधा सिर्फ उसे मिले क्योंकि सैन्य सेवाएं आम सेवाओं से कठिन होती है और ज्यादातर सैनिक 35 से 37 साल के बीच रिटायर हो जाते हैं लेकिन अर्ध सैनिक बलों का कहना रहा है कि वे भी सेना से कम जोखिम का काम नहीं करते, लिहाजा उन्हें भी सेना के बराबर ही सुविधाएं मिलनी चाहिए. यह मामला न केवल सैद्धांतिक है, बल्कि इसके लागू होते ही और विभागों की ओर से कानूनी लड़ाइयां लड़ी जा सकती हैं और कोर्ट के फैसले के बाद सरकार या तो शर्मिंदा होगी अथवा उसकी मुसीबतें और भी बढ़ेंगी ही. मेरे घर में खुद आर्मी से रिटायर पर्सन हैं, जिनमें मेरे पापा भी शामिल हैं, मगर इस मुद्दे को व्यवहारिक ढंग से देखने की ज्यादा आवश्यकता जान पड़ती है. जैसे, सेना के सैनिकों, पूर्व-सैनिकों के परिवारों को योग्य जगह पर नौकरियां देना, शिक्षा में विशेष सुविधाएं देना, पूर्व सैनिकों के समूह को एक संगठित ढाँचे का रूप प्रदान करना जैसे सरकारी सिक्योरिटी एजेंसीज इत्यादि. इस बात में रत्ती भर भी शक नहीं है कि सेना के लोग आम ज़िन्दगी से अलग ज़िन्दगी जीते हैं और जब वह 40 से पैंतालीस साल की उम्र में रिटायर होते हैं तो वह पब्लिक लाइफ से तालमेल बिठाने में बेहद असहज होते हैं, जिसके तमाम मनोवैज्ञानिक कारण हैं और इन्हीं समस्याओं पर कार्य करने की ज्यादा आवश्यकता है. मेरे पापा जब रिटायर होने वाले थे तो उन्होंने साबुन की फैक्ट्री बिठाने की ट्रेनिंग ली, मगर वह सिर्फ कागजी ट्रेनिंग ही थी. इसी तरह के दुसरे प्रोग्राम सेना या उसके सहयोग से चलाया जाता है तो क्या यह बेहतर नहीं होता कि इन प्रोग्राम्स को जरा सीरियसली लिया जाता और कैंटीन ही की तरह प्रत्येक डिस्ट्रिक्ट में सेना के लिए विशेष कौशल विकास केंद्र होता. सेना के लोग बेहद स्वाभिमानी होते हैं और उनके स्वाभिमान में और बढ़ोतरी होती, अगर उनकी बाकी उम्र भी सरकार उनकी उपयोगिता का संगठित रूप से लाभ लेती. इस कदम से और बलों को भी प्रेरणा मिलती, मगर... इस तरफ सोचता कौन है? और इसी का नतीजा है कि सर्वाधिक अनुशासित और स्वाभिमानी लोगों को राजनीति की तुच्छ बिसात पर मोहरा बनाया जा रहा है!
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Discipline Self-esteem and Indian Army Hindi Article by Mithilesh
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