भारत की संस्कृति में विचारों, कर्म अध्यायों की इतनी सुन्दर व्याख्या है कि दुनिया की किसी अन्य संस्कृति से इसकी तुलना नहीं हो सकती. ज्ञात तथ्यों के आधार पर यदि कहा जाय तो किसी कार्य के तीन आयाम होते हैं, जो क्रमशः मन, वचन और कर्म की यात्रा करते हुए अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ते हैं. उदाहरणार्थ यदि किसी छोटे बच्चे को विद्यालय भेजने का समय है तो सर्वप्रथम यह विचार हमारे मन में पनपता है, तत्पश्चात हम अपनी वाणी द्वारा घरवालों को, उस बच्चे को अपनी बात बताते हैं, अपने विचार से अवगत कराते हैं और तब आखिर में उस बच्चे का दाखिला सम्बंधित विद्यालय में होता है. लेकिन जरा सोचिये, यदि यह बात हमारे मन में ही दबी रह जाय तो... !! अथवा हम इसे बस विचार के रूप में प्रतिष्ठित करके इतिश्री कर लें तो ... !! निश्चित रूप से हमारा कार्य उस स्थिति में सफल अथवा पूरा नहीं कहा जा सकता है. Bhagwad Geeta Gyan and Youth, Spirituality in Hindi
Bhagwad Geeta Gyan and Youth, Spirituality in Hindi |
आज कल उन तमाम बातों पर बेहद संकुचित दायरे में पुनर्चर्चा शुरू हो रही है या शुरू की जा रही है, जिन बातों पर आम जनमानस की अगाध श्रद्धा रही है. यह अलग बात है कि महान भारतीय विचारों के कई मर्मज्ञ अपनी चारित्रिक निष्ठा को लेकर इस काल में संदिग्ध साबित हो रहे हैं. सदियों से भगवदगीता के नाम से कोई अनजान नहीं है. इस ग्रन्थ को यदि सर्वाधिक प्रतिष्ठित ग्रन्थ कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. धर्म की कठोर, मगर व्यवहारिकता के साथ स्पष्ट व्याख्या करने वाला ऐसा महाग्रन्थ, जिसके बारे में कहा गया है कि यदि तराजू के एक पलड़े पर समस्त वेद, शास्त्र रख दिए जाएँ तो भी भगवद्गीता की महिमा उन सभी ग्रंथों से ज्यादा ही होगी. यूं तो गीता के प्रत्येक अध्याय में मानव जीवन की तमाम दुविधाओं का निराकरण है, किन्तु उसकी जो सीख सर्वाधिक प्रभावित करने वाली है, वह है 'परिवर्तन संसार का अटल नियम है'. जो आज है कल वह नहीं होगा, कल कुछ और होगा और इस तरह से यह श्रृंखला अनंत रूप से अनादिकाल तक चलती रहने वाली है. दिलचस्प यह भी है कि दुनिया में कोई भी सिद्धांत तभी मान्यता प्राप्त करता है, जब वह सिद्धांत समय की कसौटी पर खरा उतर सके. कहने को तो कई 'आदर्शवादी सिद्धांत' इस विश्व में उत्पन्न हुए, किन्तु व्यवहारिकता के अभाव में उन पर उठ रहे प्रश्नों का निराकरण न करने से वह समय की धारा में लुप्त हो गए! गीता के परिवर्तनशील सिद्धांत को समय ने अपनी कसौटी पर कई बार कसा है, और हर बार वह उतना ही खरा उतरा है. Bhagwad Geeta Gyan and Youth, Spirituality in Hindi
समय के साथ इस पर सवाल भी उठे हैं और सवाल उठाना जरूरी इसलिए भी है, क्योंकि लाखों लोगों की भीड़ में गीता के मर्म की व्याख्या करने वाले कई विशेषज्ञ, उन्हें आप संत कह लें या कुछ और आज सलाखों के पीछे पड़े हैं. आखिर क्यों? तर्क यह भी दिया जा सकता है कि गीता को ये लोग जानते तक नहीं, सिर्फ दिखावा करते हैं. वैसे यह सच ही है कि यह लोग गीता को मानने और समझने की बजाय सिर्फ उसकी क्रेडिबिलिटी को कैश कराने में ज्यादा यकीन करते रहे हैं. मार्केटिंग के दौर में गीता जैसा पवित्र ग्रन्थ भी अछूता नहीं बचा है. एक से एक सजावटी पुस्तकें, जिनकी जिल्दें और फ्रेम्स आपको किसी महँगी पेंटिंग का अहसास कराएंगी, वह वर्ग विशेष के ड्राइंग हाल में या कार की डैशबोर्ड पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही होंगी, बेशक उस किताब को कभी खोला तक न गया हो.
उद्धृत करना थोड़ा अजीब होगा, किन्तु गीता तो इस मामले में बहुत पहले से प्रचलन में रही है. आज़ादी के काल में महात्मा गांधी इसको अपने हाथ में लेकर घुमते थे तो वर्तमान प्रधानमंत्री ने इसे कई अंतर्राष्ट्रीय हस्तियों को भेंट किया है. पिछले दिनों इसके 'राष्ट्रीय ग्रन्थ' बनाने का प्रश्न जोर शोर से उठा था, किन्तु जिस ग्रन्थ के सिद्धांत सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रतिष्ठित हों, उसे राष्ट्रीय-ग्रन्थ की मान्यता देने की बात कहने से सिवाय विवाद के आखिर क्या हासिल हो जायेगा? खैर यह बात अपनी जगह है, किन्तु विवाद से परे हटकर देखें तो जब कभी कर्म की बात होगी तो सबसे पहले गीता का ही स्मरण होगा. गीता अपने प्रथम क्षण से ही धर्म, जाति, क्षेत्र, सम्प्रदाय से ऊपर होकर सभी के लिए है इसलिए इसकी अंतरराष्ट्रीय मान्यता सर्वत्र स्वीकृत है. अनेक विदेशी विद्वानों तक ने गीता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है. यहाँ तक कि जर्मनी जैसे देश में संस्कृत और गीता को जानने वाले बहुत हैं, क्योकि गीता कर्म की बात करते हुए 'फल' की चिंता न करने का उपदेश देती है. गीताकार ने स्पष्ट कहा है-
सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज।
अहम् त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामी मा शुचः।। - गीता 18/66
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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