उत्तर प्रदेश का नाम कानून व्यवस्था के लिहाज से हमेशा ही 'अति' प्रशंसनीय रहा है. गुंडा, गुंडई, दादागिरी जैसे शब्द उत्तर प्रदेश की जनता के लिए आम शब्द जैसे प्रतीत होते हैं. हालाँकि, राजनीति में गुंडा फैक्टर इस्तेमाल करना भारतीय राजनेताओं के लिए कोई नई बात नहीं है, किंतु अन्य जगह यह बहुधा ऊपरी स्तर पर ही होता है, जिससे आम जनता को कोई विशेष मतलब नहीं होता है. परंतु उत्तर प्रदेश के नेता और राजनीतिक कार्यकर्ता कुछ ज्यादे ही समाजवादी किस्म के हैं, इसलिए बड़े और छोटे में भेद नहीं करते, बल्कि सबको समान रूप से दुखी किया करते हैं. यह बात सिर्फ हम ही नहीं कह रहे हैं, बल्कि तमाम आंकड़े इसकी गवाही देते हैं. इसी अपराध को लेकर अमिताभ बच्चन ने एक बार समाजवादी पार्टी के लिए विज्ञापन किया था कि 'यूपी में है दम, क्योंकि जुर्म यहाँ हैं कम'! इस विज्ञापन को लेकर जैसी छीछालेदर अमिताभ बच्चन की मची, उसे वह आज तक नहीं भूले होंगे. उस चुनाव में समाजवादी पार्टी बुरी तरह से परास्त हुई थी. यह अलग बात है कि जातिवादी तिकड़मों और बेहतर विकल्प होने के अभाव में समाजवादी पार्टी ने सत्ता हासिल की, जिसमें युावा अखिलेश यादव का चुनाव प्रचार भी शामिल था. हालाँकि, सपा की जीत पर विश्लेषकों को आश्चर्यमिश्रित दुःख अवश्य हुआ होगा. अपराध की पुष्टि यूं तो कई एजेंसियां करती रही हैं, किन्तु यदि खुद पार्टी का प्रमुख नेता ही यदि अपनी ही पार्टी के नेताओं को गुंडा और जनता को परेशान करने वाला कहे तो ऐसी स्थिति को 'जनता को मुर्ख बनाने' की कला के अतिरिक्त और क्या कहा जाय. विदेशी पढाई कर लौटे और बड़ी उम्मीदों के साथ उत्तर प्रदेश की गद्दी पर बैठे अखिलेश यादव कई सालों के बाद अगर यही अनुभव जुटा पाये हैं कि उनकी पार्टी के नेता गुंडे हैं और ज़मीन कब्ज़ा करने के साथ थाने की राजनीति में बड़ी दिलचस्पी लेते हैं, तो इसे उनकी नादानी समझी जाय अथवा इक्कीसवी सदी में जनता को नादान समझने की सोच! जी हाँ! उत्तर प्रदेश का यह अनुभव तो अधिकांश बाशिंदों को था ही, लेकिन इसकी सार्वजानिक स्वीकारोक्ति, वह भी एक कार्यरत मुख्यमंत्री के मुंह से, हमारी व्यवस्था पर गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है. याद दिलाना उचित होता कि यह वही अखिलेश यादव हैं, जिन्होंने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय की खुलेआम आलोचना की थी, जिसमें माननीय कोर्ट ने जनता के पैसे से नेताओं को अपना धुआंधार विज्ञापन करने पर सख्ती से निर्देश जारी किये थे. तब कड़ी टिप्पणी करते हुए उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री ने कहा था कि 'सुप्रीम कोर्ट हमें यह भी बता दे कि हमारा पहनावा क्या हो'! सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट जैसी सर्वोच्च न्यायिक संस्था के निर्णयों पर बारीक निगाह रखने वाले और उसका विरोध करने का साहस रखने वाले अखिलेश यादव, भला अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं के व्यवहार से अनजान कैसे बने रहे? या फिर यदि उनको इसके बारे में जानकारी थी तो उन्होंने इसे नियंत्रित करने के लिए क्या कदम उठाये? इससे भी आगे बढ़कर कहा जाय तो अब जब उन्हें अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं की असलियत पता चल गयी है तो वह इन्हें अनुशासित करने के लिए अब भी क्या कदम उठाने वाले हैं? यदि इन्हें नियंत्रित करने के लिए मुख्यमंत्री ठोस कदम नहीं उठाते हैं तो भला यह कैसे समझा जाय कि उनकी बातों में गंभीरता है और वह वास्तव में उत्तर प्रदेश में कानून का राज स्थापित करना चाहते हैं. वैसे यह पूरी बात अखिलेश यादव ने आने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के सन्दर्भ में कही है. ऐसे में उनकी बातों से ऐसा प्रतीत होता है कि वह पार्टी कार्यकर्ताओं को अनुशासित सिर्फ चुनाव तक ही करना चाहते हैं, फिर अगले चुनावों तक गुंडई करने की खुली छूट दे देंगे! वैसे, जिस प्रदेश में पत्रकारों पर घोर अत्याचार हो रहे हों, ज़िंदा जलने की घटनाएं सामने आ रही हों और खुद अखिलेश सरकार के मंत्री इसमें फंसे हों, तो भला ऐसे एकाध बयान देने के अतिरिक्त वह कर भी क्या सकते हैं. आखिर, अपनी झेंप भी तो मिटानी है. यह गुण निश्चित रूप से उन्होंने अपने पिता एवं चतुर राजनेता मुलायम सिंह यादव से हासिल किये होंगे. वह भी अपने कार्यकर्ताओं की बद्तमीजियों को सार्वजनिक रूप से डांट देते हैं, जबकि बाद में वह यह कहने से भी गुरेज नहीं करते हैं कि 'बच्चों से जवानी में गलतियां' हो जाती हैं.' सिर्फ मुलायम सिंह यादव ही क्यों, उनकी पार्टी का इतिहास भी मायावती के 'झूला फ़ाड़ कांड' के रास्ते से होकर गुजरा है और प्रदेश के तमाम बाहुबलियों की शरण स्थली बना रहा है. ऐसे में अखिलेश यादव का यह कहना बेमानी ही है कि उनकी पार्टी पर दूसरों की तुलना में ज्यादा जिम्मेदारी है. अब कार्यकर्ता थाने की राजनीति छोड़ दें. अब सपाईयो को ज्यादा पढऩे-लिखने की भी जरूरत है, जिससे कि गांव से लेकर शहर के कोने तक समाजवादी सिद्धांत जनता तक पहुंच सकें. हमको सत्ता में शीर्ष पर रहने के लिए ज्यादा मेहनत करने की जरूरत है. आखिर, अब समाजवादी कार्यकर्त्ता कितनी मेहनत करें भला! रात दिन मेहनत कर करके इन्होंने पूरे भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में अपना नाम कमाया है. समाजवादी सिद्धांत को गाँव गाँव तक ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के कोने-कोने तक पहुँचाया है. आखिर, पत्रकारों के जलने से लेकर, जमींन कब्जाने और थाने की राजनीति करने की स्वीकृति खुद मुख्यमंत्री ने ही कर ली है. ऐसे में उत्तर प्रदेश में कानून के राज पर भला किसे शक हो सकता है. आज 21वीं शदी, जब दुनिया चाँद को लांघकर मंगल और उससे आगे जाने के मंसूबे बाँध रही है, ऐसे में उत्तर प्रदेश जैसे राज्य, अदद कानून के राज के लिए तरसें, यह शर्मनाक विषय है. अखिलेश यादव ने जिस 'थाने की राजनीति' का ज़िक्र किया है, उसमें आम जनता ही पिसती है और उसे दलाली के रूपयों से लेकर पक्षपात तक का शिकार बनने पर मजबूर किया जाता है. ज़रा मुख्यमंत्री के बयान 'थाने की राजनीति' और पुलिस पर एक पत्रकार द्वारा खुद को मंत्री के दबाव में जलाये जाने वाले आरोप पर गौर कीजिये, आपको बहुत कुछ समानता नजर आ जाएगी. जांच रिपोर्ट चाहे जो भी कहे, किन्तु मुख्यमंत्री के उदगार बहुत कुछ बताने के लिए अपने आप में पर्याप्त हैं. निराशा की बात यह है कि आने वाले सालों में भी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कानून का राज कैसे स्थापित हो इसकी दिशा दिख नहीं रही है, ऐसे में जातिवादी दंश को झेलना उत्तर प्रदेश की जनता की मजबूरी बने रहने की सम्भावना ज्यादा दिखती है. हाँ! यदि जनता खुद चेते और जातिवादी राजनीति को ठोकर मार कर किनारे करे और योग्यता के आधार पर चुनावों में वोट करे तो तस्वीर अवश्य ही बदलेगी! पर यक्ष प्रश्न यही है कि क्या वाकई में जनता यह सोचेगी?
samajwadi party politics in up and crime graph in state, hindi article by mithilesh
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