विश्व में सर्वाधिक फिल्में बनाने का दावा करने वाली भारतीय सिनेमा आजकल दो वजहों से चर्चा में छाई हुई है, उनमें से पहली खबर फिल्म ऐंड टेलिविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (FTII) से है, जहाँ के चेयरमैन पद पर गजेंद्र चौहान की नियुक्ति को लेकर हो रही नकारात्मक राजनीति अपने चरम पर है. महाभारत में युधिष्ठिर के रोल निभाने से ज्यादा चर्चा इस मुद्दे को लेकर गजेन्द्र चौहान को पहले ही मिल चुकी है, और निश्चित रूप से उनका कद भी पहले से बड़ा हो गया है. रणबीर कपूर, ऋषि कपूर, अनुपम खेर, अमोल पालेकर जैसे फ़िल्मी दिग्गज इस मामले को लेकर गजेन्द्र चौहान पर न सिर्फ निशाना साध चुके हैं, बल्कि उन्हें अपने पद से हटने की सलाह भी दे चुके हैं. गौरतलब है कि एफटीटीआई छात्रों की हड़ताल को लगभग एक महीने हो चुके हैं, साथ ही साथ इसमें हो रही राजनीति की परतें भी खुलने लगी हैं. हालाँकि, 'चेयरमैन पद के लिए अयोग्य' होने का आरोप झेल रहे एफटीआईआई के अध्यक्ष चौहानको अब टीवी के साथियों का सहारा जरूर मिला है, जो उनके लिए कुछ हद तक ही सही, राहत की बात है. महाभारत में युधिष्ठिर की भूमिका निभाने वाले चौहान के समर्थन में उनके पुराने साथी कलाकार पुनीत इस्सर (महाभारत के दुर्योधन), पंकज धीर(कर्ण) और गूफी पेंटल(शकुनी) सामने आये हैं. दिलचस्प यह है कि विरोध और समर्थन की इस राजनीति के बीच सरकार मौन है, और परस्पर विरोधी खबरें छन-छानकर बाहर आ रही हैं. खबर यह भी है कि इस पद के लिए अमिताभ बच्चन, रजनीकांत, अनुपम खेर, श्याम बेनेगल, पुकुट्टी इत्यादि बड़े नामों की सिफारिश ख़ारिज करके महाभारत में युधिष्ठिर का रोल निभाने वाले गजेन्द्र चौहान को सरकार ने नियुक्ति-पत्र थमा दिया, क्योंकि वह भाजपा के सदस्य हैं और उसके लिए प्रचार भी किया है. इस नियुक्ति के बाद वैश्विक सिनेमा से काफी पीछे चल रहे बॉलीवुड में उबाल आ गया है और गुटबाजी सतह पर दिखने लगी है. इस राजनीति में हमेशा की तरह मोहरा छात्र ही बने हैं और योग्यता, अयोग्यता का प्रश्न इस कदर उठाया जा रहा है जैसे बॉलीवुड ने इस मामले में कितने मील के पत्थर रख दिए हैं और गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति से, वैश्विक सिनेमा में उसकी प्रतिष्ठा और 'मानव संशाधनों' की सम्भावना को गहरा धक्का पहुंचा है. इस बात को आप खुद भी परख सकते हैं, जब आप बॉलीवुड में बन रही फिल्मों की क्वालिटी पर नजर डालेंगे! घटिया कहानी के साथ एकाध आइटम गानों के सहारे हिंदी दर्शकों को बोर करने की क्षमता रखने वाले बोलिवूडीए यदि योग्यता और अयोग्यता की बात करें, तो आश्चर्य होना स्वाभाविक ही है. यही नहीं, सन्देश देने के स्तर पर बॉलीवुड फिल्मों की चर्चा न ही की जाय तो बेहतर रहेगा, क्योंकि इसमें आपको पूरे बॉलीवुड के इतिहास को छानने के बावजूद गिनी-चुनी फिल्में ही मिलेंगी, उनमें भी २०वीं सदी में बनी फिल्में ज्यादा होंगी. आज कल तो फिल्में 100 करोड़ के हिसाब से नापी और तोली जा रही हैं और उसी हिसाब से मसाले भी ठूंसे जा रहे हैं. वो तो भला हो एकाध निर्माता-निर्देशकों का कि 'क्वीन' और 'तनु वेड्स मनु' जैसी कुछ एक फिल्मों के सहारे बॉलीवुड की इज्जत बच जाती है, वरना घटिया मार्केटिंग और आलसी स्टार-कास्ट के सहारे चलताऊ 'फिल्में' बनाने वाले निर्माता-निर्देशक कितनी क़्वालिटी का काम करते हैं, इसका अंदाजा आपको किसी मल्टीप्लेक्स में जाते ही लग जाएगा. इस परिणाम यह होता है कि बॉक्स ऑफिस पर हॉलीवुड की डब की हुई फिल्में राज करती हैं. बहुत पीछे न जाइये, बल्कि इस साल का ही आंकड़ा देख लीजिये, जिसमें एवेंजर, फ़ास्ट एंड फ्यूरियस, टर्मिनेटर और 'जुरासिक वर्ल्ड' जैसी फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को हर स्तर पर आइना दिखाया, तो बॉक्स ऑफिस कलेक्शन में भी बीस साबित हुईं. सच बात तो यह है कि वैश्विक सिनेमा तो छोड़िये, क्षेत्रीय सिनेमा भी बॉलीवुड से बीस नहीं, बल्कि इक्कीस साबित हो रहा है. एफटीटीआई के चेयरमैन पद के लिए कुत्ते-बिल्ली की तरह लड़ने वाले तथाकथित योग्य 'सिनेमा विशेषज्ञ' बदलते समाज को पकड़ भी पा रहे हैं और उसे परदे पर उतारने की नीयत रखते हैं, इस पर एक बड़ा क्वेश्चन मार्क लगा हुआ है. इस क्षेत्र में उन्हें टेक्नोलॉजी, पैसा और स्क्रिप्ट के मामलों में वैश्विक सिनेमा से जबरदस्त चुनौती मिल रही है तो दूसरी ओर आइटम गानों और मारधाड़ के साथ चलताऊ एक्शन देखने वाले वर्ग पर क्षेत्रीय सिनेमा ने कब्ज़ा कर रखा है, जिनमें दक्षिण भारतीय फिल्म इंडस्ट्री और भोजपुरी सिनेमा का नाम लिया जा सकता है. अब निरहुआ, अमिताभ बच्चन का काम कर लेता है! बॉलीवुड फिल्मकारों को समझना चाहिए कि अब 80 के दशक से हम काफी आगे निकल आये हैं, जब अमिताभ बच्चन विलेन को दो-चार घूंसे मारते थे तो जोर की तालियां बजती थीं, अथवा ऋषि कपूर 'बादलों में रंग' भर कर 'चांदनी' को रिझाते थे तो दर्शकों में रोमांच पैदा हो जाया करता था. दर्शकों के बदले स्वाद का अहसास रणबीर कपूर को हाल ही में जरूर हुआ होगा, जब उनकी 'बेशरम', रॉय और 'बॉम्बे वेलवेट' को स्तरहीन फिल्मों का तमगा दर्शकों और विश्लेषकों द्वारा एक राय से दिया गया. खैर, इन योग्यता के संरक्षकों को दूसरी खबर की ओर भी ले जाना आवश्यक है, जो क्षेत्रीय सिनेमा से ही है. जी हाँ! 'बाहुबली' फिल्म को इस लेख के पढ़ने से पहले आप या तो देख चुके होंगे, अथवा उसको देखने का प्लान जरूर बना रहे होंगे. आखिर, इस फिल्म में ऐसा क्या है कि बॉलीवुड के शहंशाह कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन इस फिल्म में न होने के लिए अफ़सोस जता चुके हैं और चाहते हैं कि वास्तव में इस प्रकार बनने वाली फिल्मों में काश वह भी रहते! बॉलीवुड में पिछले 45 साल से काम कर रहा कलाकार आखिर संतुष्ट क्यों नहीं हो पाया है, जो एक क्षेत्रीय सिनेमा में रोल करने के लिए आहें भर रहा है? वजह कोई छुपी हुई हो ऐसा नहीं है और वह वजह है 'डेडिकेशन', शोध और कुछ बेहतर करने की अटूट चाहत, बजाय कि दर्शकों को ठगने के! आज बॉलीवूड में कितनी फिल्में बनती हैं, जिन पर ठीक से साल भर भी शोध करने की जहमत उठाई जा सके, जबकि 'बाहुबली' के राजामौली ने आठ साल इस फिल्म को दिए, और इस फिल्म से जुड़े प्रभास समेत दुसरे कलाकारों ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण 3 साल इस फिल्म को डेडिकेट कर दिए, तब जाकर इस फिल्म में 'बाहुबल' नजर आ रहा है. एक फ़िल्मकार के तौर पर जिम्मेवारी, दर्शकों के प्रति संवेदनशील सोच, कुछ बेहतर देने को बॉलीवुड में क्यों नजर नहीं आती? मैगी, चॉकलेट, जूते, प्रॉपर्टी, गहने, कंडोम, अंडरवियर, पान मसाला, शराब और न जाने किस-किस का विज्ञापन करने को तैयार बॉलीवड के तथाकथित सुपर स्टार, आम जनमानस के प्रति अपनी जिम्मेवारी किस हद तक निबाहते हैं, इसको बताने की जरूरत है क्या? प्रियंका चोपड़ा जैसी सीनियर अभिनेत्री ने 'मैगी-विवाद' पर बयान दिया कि हम फ़ास्ट फ़ूड बेचेंगे, जिसे नहीं खाना हो वह न खाए. यही तो है बॉलीवुड की घटिया क़्वालिटी और घटिया मानसिकता. इसलिए, जब आम जनता इतना कुछ झेल रही है तो 'गजेन्द्र चौहान' को झेलने में उसे भला क्या मुश्किल होगी और बॉलीवुड के शुभचिंतकों, आप सब विज्ञापनों से पैसे कमा ही रहे रहे हो, और आपकी फिल्मों में तमाम मुश्किल सीन्स, आपके बॉडी डबल कर ही रहे हैं, इसलिए आप व्यर्थ 'योग्यता', अयोग्यता के चक्कर में क्यों पड़े हो! वैसे भी, सरकारी नियुक्तियों का विरोध आप जैसे रईसों से कहाँ होगा और कर भी लिए तो क्या उखड जायेगा, जब अन्ना हज़ारे कुछ नहीं कर पाये? थोड़े बहुत बयान देने से आपकी अग्रिम संभावनाओं पर बुरा असर पड़ सकता है, और आपको पद्मश्री, या कोई दूसरी चेयरमैनशिप मिलने में कठिनाई आ सकती है, इसलिए चुपके से बैठे रहो और अपने होम-थियेटर में 'बाहुबली' को रीपीट करके कई बार देखना और सोचना कि क्या वाकई आपके मरने के बाद आपको याद रखी जाने वाली फिल्मों में आपने काम किया है? क्या समाज की सच्ची तस्वीर सामने लाने के लिए, जो सिनेमा की साहित्यिक जिम्मेवारी भी है, थोड़ा बहुत प्रयास किया है? क्या वाकई 'प्यासा', मुग़ल-ए-आजम, मदर इण्डिया, लगान, तारे ज़मीं पर के आगे की जिम्मेवारी निभाने की सोच है आप में? क्या वाकई 'बाहुबली' को देखकर आपके सीने में अहसास जगते हैं? यदि हाँ! तो इसे सिद्ध करो और यदि नहीं तो 'बकवास बंद करो'!
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