हाल ही में अमित शाह द्वारा दिया गया बयान बड़ा चर्चित रहा है, जिसमें उन्होंने कहा है कि पांच साल मोदी सरकार के लिए काफी नहीं हैं. इससे पहले उन्होंने काले धन को लेकर बयान दिया था कि यह एक 'चुनावी जुमला' था. इन प्रश्नों के सहारे यदि हम राजनीतिक दलों के खर्चों और चंदों की जड़ तक पहुँचने की कोशिश करें तो एक दिलचस्प तस्वीर उभर कर सामने आती है. यह एक तथ्यात्मक बात है कि यदि सही-सही पता चलने लगे कि हमारे राजनीतिक दलों को कितना पैसा आता है ओर कहां-कहां खर्च होता है, तो देश का अधिकांश भ्रष्टाचार अपने आप खत्म हो जाएगा. इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार, सूचना आयोग और छह मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय दलों को निर्देश दिया था कि वे अगले डेढ़ माह में बताएं कि सभी दलों पर सूचना का ‘कर्तव्य’ क्यों नहीं लागू किया जाए? हालाँकि, सूचना आयोग ने दो साल पहले ठीक यही कहा था लेकिन तब राजनीतिक दलों ने उसकी बात पर कान देने की जरूरत नहीं महसूस की थी. देश के छोटे-बड़े राजनीतिक दल हर साल करोड़ों-अरबों रूपयों का वारा - न्यारा करते हैं. नियमतः 20 हजार रु. से कम दान का स्त्रोत बताना जरुरी नहीं है, इसलिए 20-20 हजार की जरूरत के अनुसार अनगिनत झूठी रसीदें बनाई जाती हैं. औपचारिक रूप से आयकर विभाग को जो हिसाब, राजनीतिक दलों द्वारा दिया जाता है, वह आंख में धूल झोंकने का काम ज्यादा होता है. कुछ बताने, कुछ छिपाने का खेल चलता ही रहता है. पार्टी के साथ-साथ नेताओं की अपनी पॉकेट्स भी फूल होती जाती हैं. पार्टी फंड इकट्ठा करने के नाम पर राजनीतिक दल दलाली, रिश्वतखोरी, ब्लेकमेलिंग, झांसेबाजी, धौंस, छल-कपट आदि क्या-क्या पैंतरे नहीं अपनाते हैं? यह सारा लेन-देन नकद किया जाता है, वगैर किसी हिसाब किताब के. यह धंधा काले धन की खदान है, इस बात की पुष्टि कई आतंरिक जांचों में हो चुकी है. पर समस्या यह है कि इस मुद्दे को उठाये कौन? क्योंकि हमाम में सब नंगे जो हैं! इसके अतिरिक्त बड़ी बात यह है कि यदि काला धन खत्म हो गया तो हमारे ये नेता 'मौज' कैसे करेंगे? जब देश की नौकरशाही हमारे नेताओं को इस कालेधन में तैरते हुए देखती है तो वह भी बेफिक्र होकर हाथ साफ करती है. आईएएस एसोशियेशन बाकायदा 'भ्रष्ट' आईएएस अधिकारियों पर अपनी राय रखता है. जब नेता और नौकरशाह खुली लूट-पाट में लगे हों तो इनके आगे की कड़ी, मतलब ठेकेदार-बंधु और फिर आम जनता भी पीछे क्यों रहे? जिसको जहां मौका मिलता है, वह वहीं हाथ साफ़ करते दिख जाता है. खैर, इसी खर्चे के व्योरे की कड़ी को आगे बढ़ाते हुए चुनाव आयोग ने विभिन्न दलों से 'ऑडिट-रिपोर्ट' की मांग की थी. भाजपा समेत दुसरे दलों ने तो इस पर अपनी रिपोर्ट जमा कर दी थी, किन्तु न जाने क्यों कांग्रेस इस पर एक साल से ज्यादे समय तक अड़ी रही. हालाँकि, एक साल तक विरोध करने के बाद, अब जाकर कांग्रेस ने अंतत: चुनाव आयोग के निर्देश का पालन करते हुए उसे 2013-14 की अपनी वार्षिक ऑडिट रिपोर्ट दे दी. इसमें बताया गया कि पार्टी के पास 580 करोड़ रुपए से अधिक की नकदी और दूसरी चीजें हैं. कांग्रेस के कोषाध्यक्ष महोदय श्रीमान मोतीलाल वोरा ने चुनाव आयोग को अपनी वार्षिक रिपोर्ट भेजी, लेकिन स्पष्ट किया कि पार्टी से इस तरह की रिपोर्ट मांगने के चुनाव आयोग के अधिकार पर सवाल खड़ा करती है. सवाल बेशक कांग्रेस ने खड़ा किया हो, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि चुनाव आयोग को किसी राजनीतिक दल के खर्चे के बारे में जानने समझने का अधिकार नहीं होगा तो, किसे होगा? राजनेताओं का वश चले तो वह किसी संवैधानिक संस्था का सम्मान ही न करें, वह चाहे सुप्रीम कोर्ट हो, चाहे चुनाव आयोग या सूचना आयोग. अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने जनता के पैसे पर बेतहाशा विज्ञापन करने वालों पर नकेल कसने के इरादे से कुछ दिशा-निर्देश जारी किये थे, लेकिन इन निर्देशों के जारी होने के तुरंत बाद उत्तर प्रदेश के युवा और शिक्षित मुख्यमंत्री ने सुप्रीम कोर्ट पर तंज कसने में जरा भी देरी नहीं की और कहा 'कोर्ट हमारा ड्रेस कोड भी तय कर दे'! संस्थाओं का अपमान करने में सिर्फ यूपी के मुख्यमंत्री ही नहीं, बल्कि दिल्ली के अत्यंत चर्चित मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने 'विज्ञापन' का न सिर्फ बेतहाशा बजट बढ़ाया, बल्कि पूरी दिल्ली को विज्ञापनों से इस बरसात में पाट दिया है. उनका नारा है 'वो परेशान करते रहे, हम काम करते रहे'. अरविन्द केजरीवाल की याद आयी तो यह बताना आवश्यक है कि उन्होंने हाल ही में लोगों से अपील की है कि उनकी पार्टी के पास पैसे खत्म हो गए हैं, इसलिए लोग उन्हें चंदा दें. चूँकि, अरविन्द केजरीवाल की स्टाइल अपने आप में निराली है, इसलिए उन्होंने आगे भी यह जोड़ा है कि वह चाहें तो भ्रष्टाचार से पार्टी की तिजोरी भर सकते हैं, लेकिन.... !! आगे शायद उनका मंतव्य यही होगा कि यदि जनता ने चंदा नहीं दिया तो... !! खैर, यही वह अरविन्द केजरीवाल हैं, जिनसे इनके गुरु अन्ना हज़ारा 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' से सम्बंधित चंदे का हिसाब किताब मांगते-मांगते चुप हो गए और यह वही केजरीवाल हैं, जिनके पूर्व करीबी सहयोगी योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण इत्यादि ऐसे ही कुछ पारदर्शिता के मुद्दों पर पार्टी से बाहर तक निकाल दिए गए. खैर, यह तो बात रही केजरीवाल की, लेकिन क्या यही कहानी सभी राजनीतिक दलों की नहीं है कि वह न सिर्फ अपने खर्चे के मुद्दों पर चुप रहकर काले धन को बढ़ावा देते हैं, बल्कि संवैधानिक संस्थाओं के अपमान पर भी उनका स्वर मुखर हो जाता है. खैर, राजनीतिक दल चाहे जो कहें, लेकिन सच यही है कि आम जनमानस के हृदय में सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग, कैग इत्यादि संस्थाओं के प्रति अपार श्रद्धा और विश्वास है और इसी विश्वास का नतीजा है कि जब-जब राजनीतिक तंत्र देश के लोकतंत्र को कमजोर करने की साजिश करते हैं, यही संस्थाएं उनके विश्वास को बनाये भी रखती हैं और मजबूत भी करती हैं. आने वाले समय में उम्मीद की जानी चाहिए कि राजनीतिक दल, पूरी तरह से आरटीआई के दायरे में आएंगे और न सिर्फ उनके चंदे और खर्चे की जानकारी जनता को होगी, बल्कि विभिन्न मुद्दों पर उनके द्वारा लिए गए स्टैंड पर भी पब्लिक सवाल पूछ सकेगी. आखिर, यही तो सच्चे लोकतंत्र की निशानी है.
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