संसद के चालू सत्र में मध्य प्रदेश के कटनी से दिल्ली आए कुछ बच्चे संसद की कार्यवाही देखकर निराश हो गए थे. स्कूल की शिक्षिका की इस बाबत प्रतिक्रिया थी कि 'हम इन बच्चों को इतनी दूर से यहां संसद की कार्यवाही दिखाने लाए, संसद चली नहीं. ये तकरीबन हर रोज़ की कहानी है. जो लोग संसद की कार्यवाही देखने आते हैं उन्हें हंगामा ही नसीब होता है और वो मायूस होकर लौट जाते हैं. यह तो रही संसद से रूबरू होने वाली आम जनता का हाल, जो यह बताने के लिए पर्याप्त है कि हमारी संसदीय व्यवस्था किस दिशा में और किस दशा में गुजर रही है. उम्मीदों के अनुरूप संसद का वर्तमान सत्र हंगामों से लबरेज है. भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण इतिहास के अपने सबसे बुरे दौर में आ खड़ी हुई कांग्रेस ने संसद में भाजपा का विरोध करते हुए वह सब कुछ कर रही है, जो वह कर सकती है. संसद को ठप्प करना तो खैर, सांसदों का जन्मसिद्ध अधिकार है, लेकिन इस बार संसद में धरना, काली पट्टी बांधकर रोष जताना जैसे कार्य भी बेहद तेजी से देखने को मिल रहे हैं, शायद किसी एक्शन फिल्म की तरह. सदन की कार्यवाही के दौरान कांग्रेसी सांसदों ने केंद्र सरकार के खिलाफ तख्तियां लहराईं, तब लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने इस पर नाराजगी जताते हुए कहा कि सदन में पोस्टर, बैनर, झंडे दिखाना और काली पट्टी बांधकर आना सदन की गरिमा को आहत करने वाला है और वह ऐसे सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई करने को मजबूर होंगी. खैर, कार्रवाई से भला डरता कौन है, क्योंकि यदि कार्रवाई का ही डर होता तो संसद में स्प्रे फेंकना, नोटों की गड्डी लहराना और मारपीट करने का दृश्य जनता को क्यों देखना पड़ता. संसद के इसी जुलाई-सत्र में कुछ और सम्बंधित खबरें आयीं हैं, जिन्हें समझना दिलचस्प होगा. अपने ऊपर हो रहे हमलों से आहत विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने अपने ट्विटर अकाउंट से ट्वीट किया कि 'कोयला घोटाले के एक आरोपी को राजनयिक पासपोर्ट दिलाने के लिए कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने मेरे ऊपर दबाव डाला. वह तो अच्छा हुआ कि सुषमाजी का मानवीय स्वभाव यहाँ नहीं जागा, अन्यथा ललित मोदी की तरह उन्हें एक और आरोप से दो-चार होना पड़ता. अब यहाँ, काउंटर प्रश्न यह भी उठता है कि यदि सुषमा स्वराज के ऊपर कोई ऐसा दबाव था तो उन्होंने खुलासा करने में इतनी देरी क्यों की? आखिर, यह किस प्रकार का तालमेल है! भाजपा ने कांग्रेस के चुप न रहने पर एक और खुलासा किया कि कांग्रेस सरकार के सीएम हरीश रावत भी भ्रष्टाचार में संलिप्त हैं. भाजपा ने रावत के निजी सचिव के खिलाफ एक स्टिंग जारी किया, जिसमें पार्टी ने आरोप लगाया है कि मुख्यमंत्री ने पीएस के साथ मिलकर आबकारी नियमों में बदलाव करते हुए शराब ठेका देने की प्रक्रिया में बिचौलियों को शामिल किया और शराब कारोबारियों को फायदा पहुंचाने का काम किया. प्रश्न यहाँ भी वही है कि स्टिंग जारी करने के लिए अब तक इन्तेजार क्यों किया गया? क्या इसे भी दबाव बनाने की रणनीति मानी जा सकती है कि यदि कांग्रेस ने सुषमा, शिवराज और वसुंधरा पर अपना विपक्ष - हठ नहीं छोड़ा तो भाजपा के तरकश में भी कई तीर हैं, जिसका एकाध नमूना ही उसने दिखाया है! आगे जरूरत पड़ी तो और.... ... !! चलिए तालमेल तो संसदीय व्यवस्था का अभिन्न अंग बन चुका है, लेकिन इस प्रकार के तालमेल से लोकतान्त्रिक व्यवस्था को ही नुकसान पहुँचता है लगातार, इस बात से भला किसे इंकार हो सकता है! ऐसी स्थिति में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चुनाव-पूर्व वह वक्तव्य मिथ्या ही नजर आता है, जिसमें वह कहा करते थे कि भ्रष्टाचार पर 'ज़ीरो टॉलरेंस' की नीति अपनाई जाएगी, लेकिन इस संसद-सत्र में तो तालमेल के प्रयास ही ज्यादे नजर आते हैं. इसी सत्र में दोनों पार्टियों से एक-एक ख़बरों ने ध्यान खींचा, जिसका ज़िक्र बंद आँखों को खोलने वाला है. कांग्रेसी नेता शशि थरूर अपनी पार्टी द्वारा बेवजह किये जा रहे हंगामे से आहत थे, जिसका विरोध उन्होंने यह कहकर किया कि मात्र 44 सांसदों से संसद को लगातार ठप्प रखने से गलत सन्देश जा रहा है. उनका कहना था कि उनको पार्टी हाई कमांड से तगड़ी फटकार मिली. कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने कहा "आप हमेशा ऐसे ही करते हो, ये आपकी आदत हो गई है. अब थरूर ने क्या गलत किया, यह तो सोनिया गांधी ही समझा सकती हैं. खैर, इसके बाद बिचारे थरूर ने चुप रहना ही बेहतर समझा. ऐसी ही एक खबर भाजपा खेमे से भी आयी, जब उसके वरिष्ठतम नेताओं में से एक शांता कुमार ने पार्टी को एक पत्र लिखा और कहा कि व्यापम जैसे घोटालों से पार्टी की बदनामी हो रही है. शांता कुमार ने भाजपा में आतंरिक संवाद न होने के मुद्दे पर भी अपनी राय रखी थी. उनको भी डांट पड़ी और मीडिया से दूर रहने की नसीहत मिली सो अलग! अब सवाल जस का तस है कि लोकतंत्र का जिम्मा उठाने वालीं बड़ी राजनीतिक पार्टियां जब अपनी ही पार्टी में विरोध की छोटी आवाजों को दबाने का कार्य करेंगी और एक दुसरे से गलत तरीके से एडजस्टमेंट करने की कोशिश करेंगी तो जनता, पारदर्शिता और लोकतंत्र की उम्मीद करे भी तो कैसे? इस पूरी प्रक्रिया में संसद-सत्र पर करोड़ों रूपये फूंककर, वक्त की बर्बादी का प्रश्न तो जस का तस है ही. उम्मीद की जानी चाहिए कि जैसे-तैसे, एडजस्टमेंट से ही सही, संसद कार्य को सुचारू रूप से चलने दिया जायेगा और जरूरी बिलों को पास किया जायेगा. वैसे, जब सबकुछ तालमेल से ही होना है तो बेहतर रहता कि सत्र शुरू होने से पहले ही यह तालमेल हो जाता! तब कम से कम जनता को तमाशा तो नहीं देखना पड़ता और न ही वक्त की बर्बादी ही होती! लोकतंत्र की परिभाषा देते हुए कभी अब्राहम लिंकन ने कहा था कि जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए किया जाने वाला शासन ही लोकतंत्र है. लेकिन, संसद-सत्रों के लगातार खलल और गलत एडजस्टमेंट को देखकर लगता है लोकतंत्र की नयी परिभाषा ही बना देनी चाहिए, जिसमें नेता का, नेता के द्वारा, नेता के लिए ही सब किया जाता है. उम्मीद पर दुनिया कायम है, और जनता को अपने प्रधान सेवक से काफी उम्मीदें बंधी हुईं हैं. जनता निराश भी नहीं होगी, अगर सभी मामलों की ठीक तरीके से जांच की जाती है और दोषियों को उनके पदों से तुरंत हटाया जाता है. लेकिन, अगर एडजस्टमेंट की ही कोशिश की जाती रही तो फिर व्यवस्था परिवर्तन का सपना, दिवास्वप्न ही साबित होगा.
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