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याकूब का समर्थन मतलब देशद्रोह!

सुप्रीम कोर्ट के रूम नंबर चार में तीन जजों जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस प्रफुल्ल पंत और जस्टिस अमिताभ रॉय की लार्जर बेंच ने सुबह सुनवाई शुरू की. यहाँ, याकूब की ओर से तीन वकील आए थे और उन्‍होंने दो बातें कहीं- क्‍यूर‍ेटिव पीटिशन पर दोबारा सुनवाई होनी चाहिए और डेथ वारंट जारी करने का तरीका गलत था. इसके पक्ष में याकूब के वकीलों ने तमाम दलीलें रखीं. इसके बाद नंबर था सरकारी वकील अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी का. उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को यह नहीं भूलना चाहिए कि मुंबई पर हुए हमले में 257 लोगों की मौत हुई थी और कई अन्य घायल हुए थे. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 1993 मुंबई बम धमाकों के दोषी याकूब मेमन की क्यूरेटिव पिटीशन पर दोबारा सुनवाई से इंकार करते हुए कहा कि उसके खिलाफ जारी हुआ डेथ वारंट सही है. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने मेमन को दी जाने वाली फांसी पर भी रोक लगाने से इंकार कर दिया. साथ ही साथ महाराष्ट्र के राज्यपाल ने भी याकूब मेमन की दया याचिका काे खारिज कर दिया है. अब आतंकवादी याकूब का फांसी पर चढ़ना तय हो गया है. इस बीच अनेक लोगों को मौत के घाट उतारने में भागीदार रहे इस आतंकी की फांसी पर हुई राजनीति ने कई सवालात पेश कर दिए हैं, जिन पर अगर सावधानी से निर्णय नहीं किया गया तो आने वाले समय में सिस्टम पर सवाल उठाने वालों की संख्या में इजाफा ही होगा, जो पहले तो मानवता की आड़ लेकर शुरू होगा, किन्तु बाद में स्वार्थ, भ्रष्टाचार और दूसरी कमियों का शिकार हो जायेगा. आखिर, याकूब मेमन का केस कोई आज से तो चल नहीं रहा है. निचली अदालतों से होते हुए इस आतंकी द्वारा प्रत्येक कानूनी पहलू आजमाया गया और सुप्रीम कोर्ट से होते हुए राष्ट्रपति और क्यूरेटिव पिटीशन तक मामला पहुंचा. सवाल यह है कि याकूब की फांसी से सहानुभूति रखने वाले अब तक कहाँ थे? यदि वह इतने ही बड़े हमदर्द थे तो पहले कहाँ थे? उन्होंने पिछले 22 साल में तमाम कानूनी पहलुओं को क्यों नहीं आजमाया? अब यह बात कहना कि उसे न्याय का मौका नहीं मिला, यह भारतीय तंत्र पर ऊँगली उठाने वाली बात थी. इस ऊँगली उठाने वाले लोगों में अनेक राजनेता, वकील, सामाजिक कार्यकर्त्ता, अभिनेता और यहाँ तक कि खुद पूर्व जज भी शामिल रहे हैं. पूर्व जज ही क्यों, जब क्यूरेटिव पिटीशन के खारिज होने के बाद, दोबारा इस आतंकवादी ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी अर्जी फिर डाली तो दो जजों की बेंच में ही मतभेद सामने आ गए. हालाँकि, बाद में कोर्ट ने इस फैसले को कायम रखा. इस मामले में प्रश्न तो उठता ही है कि क्या वह सभी गणमान्य व्यक्ति, जिन्होंने याकूब की फांसी की सजा पर आवाज मुखर की, कानून से ऊपर हैं, सुप्रीम कोर्ट से ऊपर हैं, राष्ट्रपति से ऊपर हैं और कुल मिलकर हमारे संविधान से ऊपर हैं क्या? ऐसी स्टेज में, जब इस प्रकार का संवेदनशील मसला हमारे सामने हो और समाज में ओवैसी जैसे कुविचारों वाले राजनेता धार्मिक उन्माद फैलाने को तैयार बैठे हों, इन गणमान्य व्यक्तियों का गैर-कानूनी सपोर्ट किस प्रकार से जायज ठहराया जा सकता है? खुदा न खास्ता, यदि याकूब की फांसी इस दबाव में टाल दी जाती तो क्या यह हमारे समूचे तंत्र की असफलता नहीं होती? तब क्या यह साबित नहीं होता कि हमारी तमाम जांच एजेंसियां, इंटेलिजेंस, पोलिटिकल सिस्टम, कोर्ट और राष्ट्रपति तक ने आँखें बंद करके अब तक फैसला किया था और उन्हें अपराधियों पर निर्णय लेने की समझ ही नहीं है? पूर्व न्यायाधीश मगर अब बड़बोले के रूप में कुख्यात हो चुके मार्कण्डेय काटजू ने इस फांसी के फैसले की बारीक कानूनी व्याख्या करते हुए कहा कि इसमें न्याय के सिद्धांतों का ही उल्लंघन हुआ है तो खुद कई अपराधों के आरोपी और जेल जा चुके, मगर चर्चित अभिनेता सलमान खान ने भी पूरे सिस्टम को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि याकूब को टाइगर के अपराधों की सजा मिल रही है, जो नहीं मिलना चाहिए! हालाँकि, बाद में सलमान खान के पिता ने उन्हें 'नासमझ' कहकर उनके इस देशद्रोह रुपी अपराध पर पर्दा डालने की कोशिश जरूर की. सलमान खान इतने भी नासमझ नहीं हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि मुंबई बम काण्ड में लगभग पूरा मेमन परिवार ही शामिल था, जिन्हें सजा भी हुई है. इसा मेमन और युसुफ मेमन (याकूब के भाई) पर आरोप साबित हुआ था कि माहिम में इनके ही फ्लैट में ब्लास्ट की साजिश रची गई थी. साथ ही उनके यहां हथियार और विस्फोटक भी स्टोर किए गए थे. इसा को 2006 में उम्र कैद की सजा सुनाई गई थी. मेंटल डिसऑर्डर के शिकार युसुफ को भी उम्र कैद हुई थी, लेकिन उसे मेडिकल आधार पर जमानत मिल गयी, इस शर्त के साथ कि वह इस दौरान इलाज के लिए अस्पताल में ही रहेगा. इस मामले में याकूब की भाभी और सुलेमान मेमन की पत्नी रूबीना मेमन को भी सजा मिली है. धमाकों के दौरान रूबीना के नाम पर रजिस्टर्ड मारुति कार से हथियार और हैंड ग्रेनेड बरामद किए गए थे. न्याय की दृष्टि से देखा जाय तो याकूब की फैमिली के 3 सदस्य सुलेमान (भाई), हनीफा (मां) और राहीन (पत्नी) को सबूतों के अभाव में रिहा भी किया गया. जहाँ तक प्रश्न, परिवार के किसी एक व्यक्ति के अपराध करने पर बाकियों को भी घसीटे जाने का है तो सैद्धांतिक रूप से बेशक इसे कुछ और कहा जाय, किन्तु आम आदमी के मामले में हकीकत यही है कि यदि एक व्यक्ति भी अपराध में संलिप्त पाया जाता है, तो उसके पूरे परिवार से पुलिस अपने ढंग से ही निबटती है, कई निर्दोष लोगों के खिलाफ सबूत उत्पन्न कर लिए जाते हैं. यह बेहद आम तथ्य है, जिसे हर कोई जानता है. याकूब के परिवार के लोगों पर तो सीधा मामला बनता है, नहीं तो पाकिस्तान के करांची में छिपने की दूसरी वजह भला क्या हो सकती है!  स्पष्ट है कि इतनी बड़ी बातों को, जो समाज के तथाकथित प्रभावशाली लोगों के मुंह से निकली है, सिर्फ 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' कहकर टॉलरेट नहीं किया जा सकता, क्योंकि देश के सिस्टम पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करने की स्वार्थप्रेरित और राजनीतिक कोशिश आगे भी की जा सकती है. याकूब मेनन को फांसी के बाद इन सभी तथाकथित गणमान्य व्यक्तियों की कानूनी खबर ली ही जानी चाहिए, जिन्होंने न्यायालय और राष्ट्रपति के निर्णय पर सीधा प्रश्नचिन्ह खड़ा किया. यदि इस मामले में जरूरी हो तो केंद्रीय मंत्रिमंडल को कानून ड्राफ्ट करने से भी परहेज नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह देश की एकता और अखंडता से जुड़ा सीधा मामला है और कानून को एक-एक व्यक्ति का स्वार्थ देखने के बजाय सामूहिक हित से ही चलना चाहिए. हमारा संविधान और कानून व्यक्ति के निर्दोष होने के मामले में कहीं कन्फ्यूज नहीं है और वह साफ़ कहता है कि भले ही 100 व्यक्ति छूट जाएँ, किन्तु एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए. लेकिन, अगर कोई व्यक्ति सैकड़ों लोगों की जान लेने में शामिल सिद्ध हो जाए तो, कानून से परे हटकर उसका समर्थन करने एवं संकुचित राजनीति करने वालों को कड़ा सबक मिलना ही चाहिए. 
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