पिछले दशकों से गुजरात प्रदेश की जिस प्रकार राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय पर चर्चा हुई है, उससे अन्य प्रदेशों के राजनेताओं को निश्चित रूप से ईर्ष्या हुई होगी. 2002 में गोधरा प्रकरण और उसके बाद भड़के दंगे, जो राष्ट्रीय शर्म के रूप में चिन्हित हुए, मगर उसके बाद गुजरात की चर्चा नरेंद्र मोदी और विकास को लेकर ही हुई. गुजरात की सम्पन्नता, वहां की सहकारी व्यवस्था, अमूल डेयरी और अमिताभ बच्चन के 'कुछ दिन गुजारो गुजरात में' वाले विज्ञापन से गर्व की अनुभूति करने वाले इस प्रदेश के लिए हार्दिक पटेल का आंदोलन और उसमें गयी 9 लोगों की जानें एक शर्म का विषय जरूर महसूस हो रही होंगी. न केवल गुजरातियों, बल्कि पूरे भारत में भाजपा समर्थकों को भी इस प्रकरण से अवश्य ही झटका लगा होगा, विशेषकर बिहार में जहाँ की जातिवादी राजनीति को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार निशाने पर ले चुके हैं. आखिर ऐसा हुआ क्यों, जिससे लालू यादव जैसे लोगों को इस प्रदेश पर निशाना साधने का मौका मिला? क्या सच में गुजरात सिर्फ ऊपरी चकाचौंध में लिपटा था, जिसकी चमक एक झटके में उतर गयी अथवा इसके पीछे गुजरात में एक राजनीतिक 'शून्य' का होना था, जो नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नई दिल्ली में सक्रीय होने से उत्पन्न हुआ था. मेरे हिसाब से दूसरा कारण ज्यादा मुफ़ीद लगता है, जिसके लिए खुद नरेंद्र मोदी ही जिम्मेवार हैं, जिन्होंने आनंदीबेन पटेल जैसे जनाधारविहीन नेता को गुजरात की ड्राइविंग सीट थमा दी. इस आंदोलन से साफ़ जाहिर हुआ है कि पटेलों में अपने उपनाम के अतिरिक्त जरा भी पैठ नहीं है आनंदी बेन की. खैर, हार्दिक प्रकरण के राजनीतिक बिन्दुओं पर विश्लेषक अपना आंकलन पेश करते ही रहेंगे, मगर इस आंदोलन ने देश भर में 'आरक्षण' के मुद्दे पर बड़ी बहस छेड़ दी है, जिसे एक बड़े और उलझाऊ सामाजिक मुद्दे के रूप में पहचान हासिल है. इस शार्ट-टर्म आंदोलन के बाद, जिसे देखो, वही आरक्षण मामले पर अपनी राय पेश करने में लग गया है. कुछ समर्थन में तो कुछ विरोध में तर्क की लम्बी-लम्बी लड़ियाँ बनाने में लगे हुए हैं. महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर भारत में इस तरह का अंतर्विरोध देख कर भारी आश्चर्य होता है और यह हमारे विकास के साथ-साथ ज़मीनी स्तर पर शिक्षा की क्वालिटी और प्रसार पर भी गंभीर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है. शिक्षा पर प्रश्नचिन इसलिए कि 21वीं सदी के इस दौर में भी युवकों की एक बड़ी संख्या अपनी स्किल विकसित करने के बजाय, सरकारी नौकरी में आरक्षण के प्रवेश द्वार से घुसकर 'हरामखोरी' का मार्ग अपनाना चाहते हैं! अभी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महत्वकांक्षी कौशल विकास अभियान ‘स्किल इंडिया’ की शुरूआत करते हुए कहा था कि जिस तरह चीन वैश्विक विनिर्माण कारखाना बन गया है, वैसे ही भारत को दुनिया के ‘मानव संसाधन के केंद्र’ के रूप में उभरना चाहिए. इस भाषण में प्रधानमंत्री ने ज़ोर देकर कहा था कि सरकार ने ‘गरीबी के खिलाफ लड़ाई’ के तहत यह अभियान शुरू किया है और अगर देश के लोगों की क्षमता को समुचित और बदलते समय की आवश्यकता के अनुसार कौशल का प्रशिक्षण दे कर निखारा जाता है तो भारत दुनिया को 4 से 5 करोड़ कार्यबल उपलब्ध करा सकता है. अब भाई, विदेशों में तो आरक्षण युक्त नौकरियाँ मिलने से रहीं और यह जो चार पांच करोड़ नौकरियों का आंकड़ा सरकार दे रही है, वह निश्चित रूप से हार्दिक पटेल जैसों को तो मिलने से रही, क्योंकि उन जैसों के तो ग्रेजुएशन में 50 फीसदी से भी कम अंक हैं. खैर, उनके अंदर राजनीतिक और सांगठनिक प्रतिभा बताई जा रही है, मगर उनके अराजक व्यवहार और वक्तव्य के कारण, कोई कंपनी मैनेजमेंट का काम देने से भी परहेज करना चाहेगी. खैर, यह एक मुद्दा है मगर तस्वीर का दूसरा पहलू बेहद दिलचस्प आंकड़ा पेश करता है. एक अपुष्ट आंकड़े के अनुसार सेन्ट्रल गवर्नमेंट के पास लगभग 32 लाख कार्यरत एम्प्लोयी हैं, जिसमें रेलवे, होम मिनिस्ट्री के साथ दुसरे मंत्रालय इत्यादि शामिल हैं. इसी तरह एक अन्य अनुमान के अनुसार सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में लगभग 16 लाख सरकारी एम्प्लोयी कार्यरत हैं. इन आंकड़ों के देखकर हम समझ सकते हैं कि देश में सरकारी नौकरियाँ पांच फीसदी से भी कम हैं और इसी पांच फीसदी की लड़ाई के लिए मंडल-कमंडल, गुर्जर, जाट, पटेल, अति पिछड़े, महादलित और न जाने कौन-कौन से बम फोड़े जा रहे हैं. एक आंकलन यह भी है कि हार्दिक पटेल जैसे युवा एक ऐसी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो ये देख रही है कि आरक्षण की राजनीति की वजह से उन्हें उनका शेयर नहीं दिया जा रहा और हार्दिक जैसे युवकों का एक बड़ा समूह कई समुदायों में है जो ऐसा आरक्षण चाहते हैं जो उन्हें नौकरी की गारंटी दे, वगैर कुछ किये. जी हाँ! सरकारी नौकरी का एक यह रूप भी है, जिसे आपसी बातचीत में 'हरामखोरी' की संज्ञा भी दी जाती है. जहाँ तक आरक्षण का प्रश्न है तो इसका एक सामाजिक पहलू जरूर है, मगर वह सामाजिक पहलू हासिल होने की बजाय और गहरी खाई बनाता जा रहा है. पिछले लोकसभा का एक छोटा सा उदाहरण यहाँ सटीक रहेगा. भाजपा से गठबंधन करने के बाद रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी को 7 सीटें मिली, जिसमें तीन आरक्षित थीं. जरा गौर कीजिये, उन आरक्षित सीटों पर इस पार्टी ने किसको टिकट दिया? इन तीनों सीटों पर खुद रामविलास, उनके पुत्र चिराग पासवान और उनके भाई रामचन्द्र पासवान ने परचा भरा और मोदी लहर में जीत भी गए. हो गया दलित/ पिछड़ों का सशक्तिकरण! यह सिर्फ पासवान की ही कहानी नहीं है, बल्कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के जीते हुए सांसदों की ओर नजरें घुमा लीजिये. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के सुपुत्र अखिलेश तो हैं ही, लोकसभा में सपा के पांच सांसदों में खुद मुलायम सिंह यादव, उनकी बहु डिम्पल यादव और धर्मेन्द्र यादव, तेजप्रताप यादव, अक्षय यादव जैसे उनके सगे रिश्तेदार ही शामिल हैं. अब जरा गौर कीजिये कि इन वट-वृक्षों के नीचे कोई दूसरा पेड़ किस प्रकार पनप सकता है. बिहार में लालू यादव से जब उनके पुत्रों के सम्बन्ध में किसी पत्रकार ने कड़वा प्रश्न किया तो उनका जवाब बड़ा दिलचस्प था कि 'मेरा बेटा नेता नहीं बनेगा तो क्या भैंस चरायेगा?' ... मतलब, और यादव भैंस चरा सकते हैं, मगर तेज प्रताप जैसे लालू-पुत्र तो 'क्रीमी लेयर' बन चुके हैं! जी हाँ, क्रीमी-लेयर अब 'कृमी' बन चुकी है जो न केवल आरक्षण का 'क्रीम' चट कर रही है, बल्कि गरीब और पिछड़ों को और गरीब बनाती जा रही है. यही कारण है कि एक नयी सामाजिक पहचान बनाकर हार्दिक जैसे समूह बेहद जल्दी खड़े हो जा रहे हैं. आज़ादी के बाद हमने भारतीय समाज को टुकड़ों में तोड़ने की व्यवस्था के रूप में ही आरक्षण को देखा है. आंकड़ों के अनुसार 2000 में एक प्रतिशत ऊपर के वर्ग का देश की 37 प्रतिशत संपत्ति पर कब्जा था जो 2005 में 43 प्रतिशत, 2010 में 48.6 प्रतिशत और पिछले साल तक यानी 2014 में बढ़कर 49 प्रतिशत हो गया. मतलब देश की आधी संपत्ति मात्र एक प्रतिशत के पास चली गई. एक और तथ्य देखें, जिसमें देश के सबसे गरीब 10 प्रतिशत और सबसे अमीर दस प्रतिशत के बीच की खाई जो 2000 में 1840 गुना थी वह 2005 में 2150 गुना, 2010 में 2430 गुना और 2014 में 2450 गुना हो गई है, लेकिन हम आज़ादी से लेकर आज तक यही कहते रहे कि इस खाई को कम करना है. सामाजिक न्याय के आन्दोलनों की उपज पासवान, लालू, मुलायम, मायावती सभी पहले हार्दिक बन कर आते हैं फिर सत्ता में आकर उसी 'क्रीमी लेयर' में शामिल हो जाते हैं और परिस्थिति बद से बदतर हो जाती है. जानना दिलचस्प होगा कि खुद डॉ. अम्बेडकर आरक्षण के इन समीकरणों को समझने के कारण ही इस व्यवस्था को 'अस्थायी' रखना चाह रहे थे, मगर वोट-बैंक की राजनीति ने अस्थायी को स्थाई बनाकर बेडा गर्क ही कर दिया है. इस पूरे आलेख के सारांश पर आप यदि गौर करें तो मुख्यतः तीन बातें उभर कर सामने आती हैं कि राजनीतिक शून्यता नहीं होनी चाहिए, जो गुजरात में हुई और हार्दिक सामने आये (...ऐसी ही शून्यता यूपीए के मनमोहन सिंह के शासनकाल के दौरान भी थी, जिससे अन्ना और केजरीवाल उत्पन्न हुए, हालाँकि यह मामला आरक्षण से अलग था). दूसरी बात कौशल विकास की ओर ध्यान देना चाहिए, न कि एक अनार के पीछे सौ बीमार वाली परंपरा को आगे बढ़ाना चाहिए. इसके बदले सरकारी जॉब की गारंटी हटाने पर ध्यान दिया जाना चाहिए. तीसरा सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है कि आरक्षण से गरीबों और पिछड़ों का नुक्सान ही हो रहा है और भारत जैसे विशाल देश में वर्ग संघर्ष लगातार बढ़ता ही जा रहा है, इसलिए इस अनार को 'कद्दू' बनाकर आर्थिक गरीबों को सशक्त बनाया जाय वह भी इस प्रावधान के साथ कि अगर किसी एक व्यक्ति ने आरक्षण का लाभ ले लिए हो तो, उसके ब्लड-रिलेशन में आने वाले 50 सालों तक कोई भी आरक्षण का लाभ न ले सकेगा (इससे क्रीमी लेयर पर रोक लग सकने की सम्भावना बढ़ेगी...)! यदि, इन बहु-पक्षीय अध्यायों पर गौर नहीं किया गया तो यकीन मानिये, यह जातिवादी संघर्ष आतंकवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, चीन, पाकिस्तान इत्यादि सभी मामलों में सबसे खतरनाक साबित होने वाला है और इसका प्रवेश द्वार बनने की राह पर बढ़ चुका है 'आरक्षण'!
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