अपने वेबसाइट बनाने के कार्य के लिए एक संस्थान की मैडम के पास मेरा जाना हुआ तो वहां एक दूसरी मैडम बैठी थीं. मुझे देखते ही उन्होंने मेरा परिचय कराते हुए कहा कि जब तू एनजीओ बनाएगी तब इनकी जरूरत तुझे पड़ेगी! उन दूसरी मैडम ने झट से मुझसे कहा "आपका भी एनजीओ है!"
मैंने कहा, जी नहीं! मैं वेबसाइट बनाता हूँ, आपकी एनजीओ के लिए भी वेबसाइट बना दूंगा. वैसे आप किस फिल्ड में कार्य करने के लिए एनजीओ बनाने वाली हैं? यह मेरा प्रश्न था! उन मैडम ने बड़ी सहजता से कहा- अभी सोचा नहीं है! उनकी इस बात पर मैंने मन ही मन मुस्करा लिया, किन्तु प्रत्यक्षतः उनके इस प्रयास को गंभीरता से लेना ही पड़ा! यह सिर्फ एक कहानी नहीं है, बल्कि कई लोगों को पता ही नहीं है कि समाज, सामाजिक सोच और सेवा के बारे में उनकी राय क्या है, किन्तु वर्तमान में मन ही मन वह एनजीओ बनाने की सोच रखते हैं. अब ऐसा क्यों है, यह तो ईश्वर ही जाने!
मेरे एक और पत्रकार मित्र का अनुभव सुनिए. कई दिनों बाद उनसे मुलाकात हुई तो वह बड़े चहक रहे थे. उनकी ख़ुशी का राज पूछता, उससे पहले ही वह चहक उठे कि मिथिलेश भाई! मेरा एनजीओ अमुख-अमुख ... ... आयोग से सम्बद्ध हो चुका है, अब ऑफिस का खर्च और केसों को निपटाने के नाम पर मालपानी आता रहेगा! तू भी लिखता-पढता तो रहता है, एक एनजीओ क्यों नहीं रजिस्टर करा लेता? मर्जी करेगी तो चलाना नहीं तो बाद में अच्छे दाम पर निकाल देना....
मतलब, एनजीओ भी बिकते हैं! मेरे इस सवाल पर वह हंस पड़ा, मगर कुछ बोला नहीं. मैंने भी सोचा वह मजाक कर रहा होगा, लेकिन उसकी बाद के सही होने का अंदाजा मुझे कुछ महीने बाद तब हुआ जब एक अन्य एनजीओ धारक के पास पहुंचा. उन्होंने मोलभाव करते हुए मुझे समझाया, मिथिलेश भाई! मेरे इस एनजीओ की वेबसाइट का ठीक ठाक प्राइस लगा लो, तुमसे अपने सभी एनजीओ की वेबसाइट बनवाऊंगा. बाद में मुझे पता चला कि वह महाशय हर महीने एक एनजीओ रजिस्टर कराते हैं और सम्बंधित मार्केटप्लेस में अच्छे दामों पर निकाल देते हैं. यह तो रहा मेरा व्यक्तिगत अनुभव, किन्तु यह बात सबको ज्ञात हो चुकी है कि वर्तमान इंडिया में कुकुरमुत्तों की संख्या कम हो गयी है, जबकि एनजीओ की संख्या काफी बढ़ चुकी है. सच तो यह है कि सामाजिक क्षेत्र में जरा भी सक्रीय रहने वाले व्यक्ति ने अपना एनजीओ बना रखा है या फिर नहीं बनाया है तो उसने ऐसा सोच जरूर रखा होगा. हालाँकि, इस एनजीओ बनाने के पीछे जो मकसद बताया जाता है, वह समाज की सेवा होता है, किन्तु असल में वह अपने व्यक्तिगत हित साधने का एक औजार मात्र बन जाता है. हाल ही आये एक अध्ययन के अनुसार एनजीओ के सन्दर्भ में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आये हैं. सीबीआई द्वारा देश में पहली बार पंजीकृत एनजीओ की संख्या के बारे में की गई जांच से पता चला है कि भारत में कम-से-कम 31 लाख से ज्यादे एनजीओ पंजीकृत हैं, जबकि देश में स्कूलों की तादाद इसकी आधी ही है और सरकारी अस्पतालों की संख्या इनसे 250 गुना कम है. यही नहीं, इसका आंकड़ा देश के मौजूदा पुलिसकर्मियों से भी ज्यादा है. देश में हर 709 लोगों पर जहां एक पुलिसवाला है, वहीं हर 400 लोगों पर एक एनजीओ काम कर रहा है. कहने को तो यह सभी एनजीओ शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, गरीबी उन्मूलन इत्यादि क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं, और अधिकांश एनजीओ के पास अच्छा ख़ासा फंड भी है, लेकिन इसके बावजूद एक अन्य अध्ययन में कहा गया है कि भारत में 20 करोड़ से ज्यादे लोग आज भी भूखे पेट सोने को मजबूर हैं और अनेक लोग इलाज के अभाव में न केवल दम तोड़ते हैं बल्कि बेरोजगारी और अशिक्षा जैसी समस्याएं विकराल मुंह फाड़े इक्कीसवीं सदी में जस की तस खड़ी हैं. आखिर हमारा समाज हर बात के लिए केवल सरकार को ही दोषी क्यों ठहराए? क्या उसने कभी इन एनजीओ के कर्ताधर्ताओं से पूछा भी है या पूछने की सोची भी है कि उनके पास अकूत धन कहाँ से आया और वह देखते-देखते कम समय में ही इतने प्रभावशाली कैसे हो गए? इसकी तह में जाने पर दिखता है कि यह एनजीओ न सिर्फ आम जनमानस से चंदे के रूप में बड़ी रकम बटोरते हैं, बल्कि इनकी आय का उससे भी बड़ा श्रोत सरकारी फंड्स हैं जो सांसद निधि, विधायक निधि या किसी और मद से प्राप्त किया जाता है. निश्चित रूप से यह रकम सेटिंग और कमीशन के मकड़जाल को पार करने के बाद ही निकलती होगी. चंदा और सरकारी फंड्स के बाद तमाम कॉर्पोरेट घरानों से इन एनजीओ को मिलने वाली आय और भी बड़ी होती है. यह अलग बात है कि इस तथाकथित दान के बदले यह एनजीओ इन कॉर्पोरेट्स के हित में आंदोलन, हड़ताल, रैलियां करते ही रहते हैं. कॉर्पोरेट घरानों के बाद, साइज में अपेक्षाकृत विशाल और प्रभावशाली एनजीओ विदेशी संस्थानों का रूख करते हैं और यह बात इंटेलीजेंस की रिपोर्ट में भी कही जा चुकी है कि विदेशों से बड़ी गड्डियां लेने के बदले यह एनजीओ सरकार विरोधी रूख अपनाकर अपनी वफादारी भी सिद्ध करते हैं. इस फंडिंग थ्योरी के अतिरिक्त हवाला कारोबार का सबसे बड़ा जरिया भी एनजीओ ही साबित हुए हैं. इस सम्बन्ध में बदली हुई केंद्र सरकार ग्रीनपीस इंडिया जैसे संस्थानों को पहले ही विदेशों से चंदा लेने पर रोक लगा चुकी है. केंद्र ने इसके लिए इस एनजीओ का लाइसेंस छह माह के लिए निलंबित कर दिया और उसके सभी खाते फ्रीज कर दिए और ग्रीनपीस पर देश के हितों को प्रभावित करने का सीधा आरोप लगाया. सिर्फ ग्रीनपीस ही क्यों, एनजीओ के खिलाफ कार्रवाई के मामले में भारत सरकार ने अमेरिका को भी दो-टूक कह दिया कि कानून का पालन सभी को करना ही होगा. धन के दुरुपयोग को लेकर ग्रीन पीस और फोर्ड फाउंडेशन के खिलाफ कार्रवाई के बाद अमेरिका भारत पर नरमी बरतने के लिए दबाव बना रहा था. इससे सम्बंधित एक और खबर सामने आयी कि हांगकांग के केंद्रीय बैंक ने भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की हांगकांग शाखा पर 10 लाख डॉलर यानी करीब 6.4 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया है. आरोप है कि एसबीआई की स्थानीय शाखा ने मनी लॉड्रिंग और आतंकवादियों को वित्तपोषण विरोधी कानूनों की अवहेलना की है. यह कार्रवाई भारत सरकार पर दबाव बनाने के मकसद से भी हो सकती है और यदि ऐसा नहीं भी है तो इस कार्रवाई से भारत सरकार को सीख लेते हुए मनी लांड्रिंग, एनजीओ और हवाला कारोबारियों पर और सख्ती से पेश आना चाहिए. इसके अतिरिक्त 'क्लोजर नोटिस' का सामना कर रहे चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ के दो एनजीओ 'सिटिजन फॉर जस्टिस ऐंड पीस' और 'सबरंग ट्रस्ट' एनजीओ से भी मंत्रालय ने पूछा था कि विदेशी चंदा नियमन अधिनियम के तहत उनका रजिस्ट्रेशन क्यों नहीं रद्द कर दिया जाए, क्योंकि दोनों के रेकॉर्ड और अकाउंट बुक की छानबीन में अनियमितता और वित्तीय कदाचार पाये गए हैं. इन बड़े जाइयंट्स के अलावा, नियमों के अनुपालन नहीं करने के आरोप में भारत लगभग 9000 एनजीओ का पंजीकरण रद्द कर चुका है. यह एक बड़ी संख्या है, जो धड़ल्ले से चल रहे गोरखधंधे की ओर सीधा इंगित करती है. हालाँकि, यह सभी एनजीओ अपने अपने तरीके से अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं. कोई विदेशी आकाओं से सरकार पर दबाव बना रहा है तो कोई कोर्ट का रूख कर रहा है, मगर बदलते समय में एनजीओ संस्थाओं को पारदर्शी बनाने की प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए, क्योंकि ओवरऑल इनका प्रभाव और कार्यक्षेत्र भारतीय जनमानस ही तो है. और तो और, इनकी फंडिंग भी आम जनमानस द्वारा या उसके लिए ही इकट्ठी की जाती है, तो आरटीआई के प्रावधानों को इन संस्थानों पर पूरी तरह लागू करने में संकोच क्यों होना चाहिए? इससे कम से कम समाज के हित के लिए कार्य करने वालों की कुछ तो जवाबदेही बनेगी, अन्यथा इनका खतरनाक जाल यूँही फैलता जायेगा जो अंततः भारत सरकार और भारत की जनता के लिए सरदर्द ही उत्पन्न करेंगे और साथ ही चलेगा इनका दुष्प्रचार जो यह कहेगा कि गरीबी, अशिक्षा दूर करना, रोजगार स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करना ही इनका मकसद है. हालाँकि, यह बात भी अतिवादी ही होगी कि देश में सभी एनजीओ धनार्जन, हवाला और राष्ट्रविरोधी कार्य में ही लगे हैं. कई संस्थान, निश्च्चित रूप से ऐसा कार्य कर रहे हैं, जिनसे दबे-कुचलों और शोषितों को आगे आने का अवसर मिलता है. एनजीओ संस्थानों के ऊपर उठ रहे राष्ट्रविरोधी प्रश्नों और अपारदर्शी व्यवहार से समाज का हित सोचने वालों के हृदय में निश्चय ही नकारात्मक भाव उठेंगे. मेरे एक मित्र, जो देश में परिवारों की टूटन पर चिंतित रहते हैं उस पर कार्य करने के लिए एक संस्थान का पंजीकरण कराने की इच्छा रखते हैं, मगर इधर जिस प्रकार से एनजीओ पर होहल्ला उठा है, उससे वह महानुभाव चिंतित थे. अपनी चिंता शेयर करते हुए उन्होंने कहा कि वह कठिनाई से नहीं डरते हैं, बल्कि अपनी बदनामी से ज्यादा डरते हैं! एनजीओ को लेकर डर का माहौल और बढे, उससे पहले सरकार को और खुद इन संस्थाओं को पारदर्शी होने की प्रक्रिया में खुलकर सामने आना चाहिए , इसी में इन संस्थाओं का भी हित है और शायद समाज का भी थोड़ा बहुत हित हो जाय!
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