अपने अब तक के इतिहास में कांग्रेस का इतना बुरा दौर शायद ही आया हो. लोकसभा में उसके सदस्यों की संख्या 44 के स्तर तक पहुँचने को तो शर्मनाक कहा ही जा सकता है, मगर उससे भी ज्यादा लज्जास्पद यह बात है कि कांग्रेस वर्तमान के राजनीतिक हालात से अभी भी मुंह चुराती नजर आ रही है. हकीकत में उसे इस बात का अहसास ही नहीं है कि संसद में उसकी हैसियत महज एक क्षेत्रीय पार्टी की ही रह गयी है और उसके पास नेता-प्रतिपक्ष का पद भी नहीं है. इस बात को कहने के पीछे ठोस आधार है और पिछले दिनों संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब सोनिया गांधी की तबियत पूछने उनकी सीट के पास पहुंचे तो उन्होंने बेहद रूखा व्यवहार किया. उनकी इस बात को मीडिया ने संजीदगी से नोटिस किया और उनके इस व्यवहार की सुर्खियां भी बनीं. मीडिया ने पिछले दिनों अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी के विदेश चले जाने को भी बखूबी नोटिश किया था. हालाँकि, इन तमाम वाकयों का चरम तब नजर आया, जब लोकसभा में वह हो गया, जो नहीं होना चाहिए था. मतलब 27 कांग्रेसी सांसदों सांसदों की बर्खास्तगी. इस दुःखद वाकये पर कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी की अजीब प्रतिक्रिया देखिये, उन्होंने कहा 'यह लोकतंत्र के लिए काला दिन है'. जब उनसे पूछा गया कि आखिर उनकी पार्टी द्वारा लोकसभा में इतने हंगामे के बाद विकल्प ही क्या बचा था तो उन्होंने झट से कहा कि वगैर चर्चा के इस्तीफा माँगना उनकी पार्टी ने भाजपा से ही सीखा है! वह शायद यूपीए के शासनकाल में तमाम मंत्रियों के इस्तीफे की बात याद दिलाते हुए इशारा कर रहीं थीं कि उनकी पार्टी ने भाजपा से बदला लेने के लिए हंगामा करना जारी रखा था. अब इस सोच को एक बड़ी राष्ट्रीय नेता की राजनीति कही जाय अथवा जानबूझकर अपनाई गयी आत्मघाती नीति, यह विचारयोग्य बात है. इसी सन्दर्भ में यह याद दिलाना उपयुक्त होगा कि मात्र कुछ ही दिन पहले शशि थरूर ने सोनिया गांधी को चेताते हुए कहा था कि उनकी पार्टी के नेताओं द्वारा बेवजह हंगामा करना ठीक नहीं है, इससे गलत सन्देश जा रहा है. तब सोनिया गांधी ने थरूर को डांटते हुए कहा था कि 'आप की आदत पड़ गयी है पार्टी स्टैंड के खिलाफ बोलना'. खैर, उस एपिसोड के बाद काफी पानी बह चूका है और कांग्रेस की अजीब चाहत भी पूरी हो चुकी है कि स्पीकर उसे सदन से धकिया कर बाहर करें और वह सरकार पर लोकतंत्र की हत्या का आरोप चस्पा करे. लेकिन, इस पूरे मामले को गौर करने पर लगता है कि कांग्रेस ने मात्र खोया ही है और उसे राजनीतिक माइलेज मिलने की जगह नुक्सान ही हुआ है, क्योंकि लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन ने साफ़ कहा है कि 'मुझे देखना है कि सदन सुचारू रुप से चले'. उन्होंने आगे कहा कि 'सदन में विरोध का तरीका होता है, प्लेकार्ड दिखाना सही नहीं'. महाजन आठ दिन से इस बात को सहन कर रही थीं. उन्होंने कहा कि हद तो तब हो गई जब स्पीकर के सामने प्लेकार्ड लाए जा रहे थे'. नाराज दिख रहीं स्पीकर ने कहा कि मैंने बार बार कोशिश की इन्हें बंद करूं. महाजन ने कहा कि आज की कार्रवाई सभी के लिए संदेश है, सभी को नियमों के तहत ही चलना होगा. देखा जाय तो भाजपा ने इस मामले में धैर्य से काम लिया है और संसद-सत्र की शुरुआत के पहले ही उसने सर्वदलीय मीटिंग भी बुलाई, सुषमा स्वराज समेत कई मंत्री इस मामले पर सदन में बयान देने को तैयार दिखे और ऐसा लगता है कि अंतिम समय तक इन्तेजार करने के बाद सांसदों को सस्पेंड करने का निर्णय हुआ होगा. कांग्रेस चाहे जो कहे, लेकिन ऐसा लगता नहीं है कि इस मामले में वह जरा सी सहानुभूति भी हासिल कर पायी है. हंगामा लम्बा खींचने से कई लोग यह कयास लगाने लगे थे कि अब सांसदों को बाहर करना ही विकल्प बचा है. इसके अतिरिक्त सपा, तृणमूल और दूसरे दल भी संसद को लगातार बाधित करने के मुद्दे पर सहमत नहीं दिखे, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि पिछले आम चुनाव में बुरी तरह हारने के बाद कांग्रेस ने इस से कोई सबक सीखा नहीं है. उसे और उसकी अध्यक्षा को लगता है कि पार्टियां राजनीति और कूटनीति से चलती हैं, जबकि हकीकत यह है कि अंततः आपको अपनी छवि जनता के दिलो-दिमाग में ठीक करनी ही होती है. सच यही है कि वगैर जनता को तवज्जो दिए कांग्रेस और गर्त में ही जाएगी, चाहे वह हंगामा करे या नंगा नाच ही क्यों न करे! जहाँ तक भाजपा का सवाल है, तो उसने सांसदों को बर्खास्त करके फिलहाल लीड जरूर ले ली है, लेकिन उसकी असली परीक्षा विभिन्न लंबित विधेयकों पर लोकसभा और विशेषकर राज्यसभा में अपने पक्ष में माहौल करना होगा, अन्यथा परिणाम वही होगा 'ढाक के तीन पात'! इसके अतिरिक्त, एक अच्छी रणनीति को बेहतरीन तरीके से प्रयोग करने का यह मतलब कतई नहीं है कि भाजपा को ललित गेट और व्यापम जैसे मुद्दों पर सफाई देने से राहत मिल गयी है. सच तो यह है कि आम जनमानस का एक बड़ा वर्ग इन प्रश्नों पर न केवल उत्तर चाहता है, बल्कि समुचित कार्रवाई की आश भी लगाए बैठा है. भाजपा के वरिष्ठतम नेताओं में से एक शांता कुमार द्वारा पिछले दिनों व्यक्त भाव का यही अभिप्राय रहा होगा. भविष्य किसने देखा है और राजनीति जैसे उतार-चढ़ाव वाले क्षेत्रों में तो आंकलन करना और भी मुश्किल कार्य होता है, मगर अपनी लोकप्रियता के निचले स्तर पर खड़ी कांग्रेस और उसके हाई कमांड को जनता की नब्ज समझनी ही होगी और यदि उसे लगता है कि उसकी पार्टी को विरोध करना ही चाहिए तो संसद ही क्यों सड़क क्यों नहीं! आखिर, सड़क से चलने पर ही तो पार्टियां संसद तक पहुँचती हैं. अफ़सोस यही है कि कई दशकों तक खानदान के नाम पर सत्ता सुख भोग चुकी कांग्रेस अपने इसी पत्ते को तुरुप का इक्का आज भी समझ रही है इसीलिए उसमें जनता से जुड़ने की जरूरत और इच्छाशक्ति का पूर्ण अभाव दीखता है. यदि ऐसा नहीं होता तो संसद से उसके थोड़े सांसदों को बाहर नहीं खदेड़ा गया होता. और यदि बाहर भी किया गया होता तो उसके साथ कम से कम मीडिया, आम जनता की थोड़ी तो सहानुभूति होती! अफ़सोस! नीति भी गयी, राजनीति भी गयी और सहानुभूति का एक कतरा न मिला कांग्रेस को ... !! क्यों? क्यों? क्यों? इस प्रश्न का उत्तर सोनिया गांधी और उनके जन्मजात उत्तराधिकारी खुद से ही पूछें तो बेहतर रहेगा!
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