बैंकों के राष्ट्रीयकरण के समय से ही प्रश्न उठते रहे हैं कि आम जनमानस इससे उस तरीके से लाभान्वित नहीं हो रहा है, जिस प्रकार उसे होना चाहिए. कई दशकों बाद अब 2015 में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा जनधन योजना को बड़े ज़ोर शोर से प्रचारित किया गया और शुरूआती दौर में इसमें करोड़ों खाते भी खुले, कई सौ करोड़ जमा भी हुए... लेकिन, उसके बाद स्थिति फिर जस की तस! आखिर, बैंक में खाता खुलना ही 'लोगों का बैंकिंग से जुड़ना' नहीं होता है, बल्कि लोगों के जीवन-स्तर में क्रमिक सुधार लाना भी बैंकिंग प्रक्रियाओं की मूल जिम्मेदारी है. साफ़ है कि आज़ादी के 70 सालों बाद भी देश का आम आदमी बैंकिंग प्रक्रियाओं से नहीं जुड़ पाया है या जुड़ा भी है तो सिर्फ पैसे भेजने और पाने तक ही इसका प्रयोग करता है, जबकि बैंकिंग की मूल अवधारणा ही उस साहूकार से मुक्ति है, जो किसी व्यक्ति के पैदा होने से लेकर उसके मरने तक की आर्थिक जरूरतों में न्यायपूर्ण ढंग से साथ निभाता रहे... क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि शिक्षा, शादी, व्यवसाय, कठिनाई के समय बैंक वगैर परेशान किये आम आदमी को सहयोग करता है? खैर, इस भूमिका के बाद थोड़ा आगे बढ़कर आर्थिक नीतियों की ओर देखते हैं तो, अप्रैल महीने में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भारतीय बैंकों के सन्दर्भ में कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा था कि, “जब बैंको को ब्याज दर बढ़ाना होता है तो वो पॉलिसी रेट की बात करते हैं.
लेकिन जब रिज़र्व बैंक अपना रेट कम करता है तो वो इसे कम क्यों नहीं करते.“ अर्थशास्त्री सीधा मानते हैं कि बैंक अपनी ब्याज दरों में जितनी जल्दी कटौती करेंगे, अर्थव्यवस्था के बेहतर होने की सम्भावना भी उतनी ही बढ़ जाती है. लेकिन, भारतीय परिदृश्य में न बैंको द्वारा न केवल ऊँची ब्याज दर रखी जा रही है बल्कि कर्ज देने और उसकी 'रिकवरी' का इतना खौफ पसरा रहता है कि आम जनमानस इससे दूर ही रहना पसंद करता है. क्या यह तथ्य विश्वास करने योग्य है कि बैंकों के क़र्ज़ में जो आम आदमी एक बार फंस जाता है, वह कई बार तो बर्बादी की कगार तक पहुँच जाता है और अगर नहीं पहुंचा तो अगली बार क़र्ज़ लेने से कान पकड़ लेता है. हाँ! इसके विपरीत कॉर्पोरेट्स के लिए तमाम बैंक अपने पालक पांवड़े बिछाए खड़े रहते हैं और कई बार नियमों को ताक पर रखते हुए क़र्ज़ देने को तैयार बैठे रहते हैं. इस प्रकार के तमाम उदाहरण सहारा और अडानी इत्यादि के सन्दर्भों में सामने आ चुके हैं. खैर, भारतीय रिजर्व बैंक ने इंडस्ट्री और आम अादमी को रेट कट का तोहफा एक बार फिर दिया है. आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने और कर्ज लेने वालों को बड़ी राहत देते हुए रिजर्व बैंक ने साल 2015 में चौथी बार मुख्य नीतिगत दर 0.50 प्रतिशत घटा दी. इसी के साथ बैंक ने आवास ऋण लेने वालों के लिए मानदंडों में ढील भी दी है. रिजर्व बैंक के इस कदम के बाद मुख्य नीतिगत दर 0.50 प्रतिशत घटकर 6.75 प्रतिशत रह गयी है. इससे पहले जून में भी इसे चौथाई फीसद घटाकर 7.25 प्रतिशत किया गया था. हालाँकि, इस बार भी पहले की तरह ही प्रश्न उठ रहे हैं कि क्या रिजर्व बैंक द्वारा दिया गया यह तोहफा आम आदमी तक पहुंचेगा? क्या सरकारी और निजी बैंक कॉर्पोरेट्स को बेहद आसानी से क़र्ज़ देने से अलग हटकर आम भारतीय को फायदा पहुंचाने पर कार्य करना चाहेंगे?
आर्थिक फैसलों की इसी कड़ी में, रिजर्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष के लिये सकल घरेलू उत्पाद के अनुमान में भी फिर एक बार संशोधन किया है और इसे 7.6 प्रतिशत से घटाकर 7.4 प्रतिशत कर दिया गया है, जबकि खुदरा मुद्रास्फीति के बारे में कहा है कि यह जनवरी 2016 में 5.8 प्रतिशत रहेगी. इस प्रकार के अनुमान और कदम उन आलोचकों का मुंह बंद कर सकते हैं जो रिजर्व बैंक के गवर्नर और सरकारी नीतियों में भेद देखने का प्रयत्न कर रहे थे, क्योंकि ब्याज दरों में कटौती सरकारी नीतियों से तालमेल की एक सधी हुई कोशिश नजर आती है. वित्तमंत्री अरुण जेटली ने रिजर्व बैंक के कदम पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा भी कि रेपो रेट में कटौती का लाभ ग्राहकों तक जल्द से जल्द पहुंचना चाहिए, ताकि निवेश बढे और अर्थव्यवस्था में सुधार की प्रक्रिया भी आगे बढ़ती हुई दिखे. इसी क्रम में, रिजर्व बैंक ने बैंकों के नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) में कोई बदलाव नहीं किया और इसे चार प्रतिशत पर ही अपरिवर्तित रखा है. गौरतलब है कि सीआरआर वह अनुपात होता है जिसे बैंकों को अनिवार्य तौर पर केंद्रीय बैंक के पास जमा रखना होता है. इस सन्दर्भ में घोषणा करने के दौरान रघुराम राजन के अलग तेवर की भी काफी चर्चा रही. इस दौरान उन्होंने कहा कि ‘मौद्रिक नीति में अगला समयोजन हालिया मुद्रास्फीतिक दबाव पर नियंत्रण, मानसून का पूरा परिणाम, फेडरल रिजर्व की संभावित पहल और केंद्रीय बैंक द्वारा वर्ष के शुरू में की गई नीतिगत दर कटौती का पूरा फायदा ग्राहकों को दिए जाने पर निर्भर करेगा.’’ फेडरल रिजर्व के ज़िक्र से पाठकों को पिछले दिनों हुई वैश्विक हलचल के दौरान अमेरिकी केंद्रीय बैंक के रूख की याद जरूर आयी होगी, जब इसके द्वारा अपने रेट में परिवर्तन की आशंका से ही वैश्विक बाजार सहम गए थे. चीन जैसे देश पहले ही निर्यात घटने से खुद को और वैश्विक बाज़ारों को परेशान किये हुए हैं और ऐसे में अगर अमेरिकी केंद्रीय बैंक भी परिपक्व रूख नहीं अपनाता तो बाज़ारों में और भी गिरावट देखने को मिलती.
हालाँकि, फेडरल रिजर्व ने स्थिर रूख ही अपनाया. अर्थव्यवस्था में जहाँ तक कृषि-क्षेत्र की बात है तो इस सन्दर्भ में राजन ने कहा ‘यदि बुवाई के रकबे में हुई वृद्धि बेहतर खाद्यान्न उत्पादन के रूप में सामने आती है तो खाद्य मुद्रास्फीति का परिदृश्य निश्चित रूप से सुधरेगा. आवास क्षेत्र को प्रोत्साहन देने के लिए भी रिजर्व बैंक ने सस्ते आवासों के लिए जोखिम प्रावधान कम किया है जबकि व्यक्तिगत आवास ऋण के मामले में जमानत की व्यवस्था को और दुरुस्त किया है. अब रिजर्व बैंक के इन कदमों का सारा दारोमदार बैंकों पर है, जो आम जनमानस को राहत पहुंचाने का रास्ता खोल सकते हैं. आरबीआई और सरकार अर्थव्यवस्था की स्थिति को पलटने के लिए बहुत मेहनत कर रहे हैं. जल्दी ही ब्याज दरों में परिवर्तन के नीचे तक पहुंचने की, बैंकों के ज़रिए ही, उम्मीद की जानी चाहिए. सरकार को भी जनधन योजना के तहत, नागरिकों का अकाउंट खोलकर चुप्पी नहीं मार लेनी चाहिए क्योंकि प्रधानमंत्री बेशक विदेशों में इस अकाउंट के गुण गा रहे हैं, लेकिन सच यही है कि गुण गाने भर से नागरिकों के जीवन स्तर में 'गुणोत्तर प्रगति' नहीं आने वाली और न ही आ रही है! सरकार तक शायद कुछ लोगों द्वारा मिलकर 'कमिटी' डालने की बात न पहुंची हो या पहुंची भी हो, लेकिन सच यही है कि ऐसे प्रयास 'ऑफिशियल बैंकिंग सिस्टम' के मुंह पर करारा तमाचा ही है! हालाँकि, कुछ मामलों में ऐसे स्वयंसेवी समूह लाभदायक सिद्ध हुए हैं, लेकिन ऐसे अनेक मामले हैं जहाँ लोग धोखेबाजी का शिकार हुए हैं. पश्चिम बंगाल के शारदा चिट-फंड जैसे अनेक घोटालों का ज़ख्म अभी ताज़ा ही है. आज भी गाँव तो गाँव, शहरों में भी एक पर्सेंट, दो पर्सेंट या तीन पर्सेंट पर 'आधुनिक साहूकारी' का धंधा खूब फल फूल रहा है तो इसे बैंकिंग सिस्टम की असफलता ही मानी जानी चाहिए. नयी सरकार को जनधन योजना की कड़ी को आगे बढ़ाने पर अपना ज़ोर लगाना ही पड़ेगा, अगर वह सच में आम भारतीयों के जीवन-स्तर में सकारात्मक सुधार चाहती है. अनुकूल बात यह है कि रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय आम आदमियों के लिए सही रास्ता बनाने का मार्ग प्रशस्त कर चुके हैं.
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