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वैश्विक परिदृश्य और भारतीय अर्थव्यवस्था

World economy and Indian strength, hindi article, Indian ruppe iconइस बात में कोई शक नहीं है कि वैश्विक सम्बन्ध अब अर्थव्यवस्था की बुनियाद पर ही आधारित हैं. दक्षिण एशिया के सन्दर्भ में देखा जाय तो अर्थव्यवस्था के संतुलन के लिए भारत और चीन दो महत्वपूर्ण देश हैं, जबकि वैश्विक अर्थव्यवस्था आज भी अमेरिकी इशारे का इन्तेजार ही करती है. यूरोप में ग्रीस के दिवालिया प्रकरण के बाद, चीन द्वारा युआन का अवमूल्यन करना सर्वाधिक चर्चा में रहा है. इसी प्रकरण पर चीन का अमेरिका तक में विरोध हुआ है. इस सन्दर्भ में जिस मंदी का आंकलन किया जा रहा है, वह चीन के निर्माण क्षेत्र का ख़राब डेटा आने के बाद सामने आया है. विश्व भर में चीनी सामानों की मांग में भारी गिरावट आने के कारण चीन ने अपनी मुद्रा का अवमूल्यन किया, ताकि कम दाम पर ही सही, उसका निर्यात उपक्रम चलता रहे, मगर समझना दिलचस्प होगा कि अगर इसी चीनी रास्ते पर दूसरे देश चलने का प्रयत्न करने लगें तो फिर क्या होगा? इस बाबत रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने इशारा भी किया था. अब हालत यह है कि चीनी मुद्रा के अवमूल्यन के कारण अमेरिकी वॉल स्ट्रीट और भारतीय बाज़ारों समेत पूरे विश्व के अर्थशास्त्री आंकलन में डूबे हुए हैं. हालाँकि, भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती का एक स्वर में समर्थन किया गया है वित्त मंत्री अरुण जेटली और रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भारतीय मुद्रा की मजबूती की बात दुहराईWorld economy and Indian strength, hindi article, arun jaitley है तो वहीं मूडीज जैसे रेटिंग एजेंसीज ने भी भारत की साख का सकारात्मक आंकलन किया है. देखा जाय तो 2008 के वैश्विक संकट के बाद विश्व बाजार के समक्ष यह बड़ा संकट उत्पन्न हुआ है. इसके पीछे के कारण कोई विशेष नहीं हैं, बल्कि ऋण लेने की प्रवृत्ति, आमदनी से अधिक खर्च करने की प्रवृत्ति और बाज़ारों पर कब्ज़ा करने की आक्रामक महत्वाकांक्षा इन परिस्थितियों के लिए विशेष रूप से जिम्मेवार है. इस बात में कोई शक नहीं है कि इस चपेट में भारत का 'मेक इन इंडिया' प्रोग्राम भी आ सकता है. जब यह प्रोग्राम प्रधानमंत्री द्वारा ज़ोर शोर से शुरू किया गया था, तभी अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने इसके प्रति सचेत किया था और अब उनकी आशंका ठीक ही साबित हुई. देखा जाय तो भारत की सम्भावना निर्माण क्षेत्र के बजाय, सेवा क्षेत्र में कहीं ज्यादा है. हाँ! निर्माण हम निर्यात के बजाय खुद के लिए अवश्य ही कर सकते हैं. निर्माण का सीधा फार्मूला यही है कि अगर मेरा सामान तुमसे सस्ता है तो वह बिकेगा, मगर इसका क्या किया जाए कि अगला वह सामान और भी सस्ता कर दे. ऐसे में, एक वर्चुअल कम्पीटीशन का वातावरण निर्मित हो जाता है, जो एकाएक उठान और फिर गर्त में जाने का रिकॉर्ड कायम करता है. चीन के साथ ठीक यही हुआ है. हालाँकि भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती के पीछे जो प्रमुख कारण हैं उनमें 2015 -16  में जीडीपी ग्रोथ का 8 प्रतिशत का अनुमान है तो टैक्स कलेक्शन में सुधार भी दर्ज किया गया है. इसके अतिरिक्त, रिटेल इनफ्लेशन 3.8 और होल सेल इनफ्लेशन 4.1 है, जिसे नियंत्रण में माना जा सकता है. साथ ही साथ कच्चे तेल और सोने की कीमतों में अस्थिरता को वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर बताया जा रहा है तो करंट अकाउंट डेफिसिट 1.3 प्रतिशत सुधरा है. भारतीय अर्थव्यवस्था के पास इस समय विदेशी मुद्रा भंडार 355 बिलियन डॉलर है, जो एक रिकॉर्ड है और निवेश की संभावनाएं भी बढ़ ही रही हैं. निवेश को लेकर भारतीय प्रधानमंत्री सिलिकॉन वैली की यात्रा करने वाले हैं. हालाँकि, इस यात्रा का विरोध 150 World economy and Indian strength, hindi articleप्रोफेसर्स द्वारा नरेंद्र मोदी के मानवाधिकार रिकॉर्ड को लेकर किया जा रहा है, जिसमें यह प्रोफेसर्स कंपनियों से भारत के साथ व्यापर बढ़ाने को लेकर सतर्कता बरतने का अनुरोध कर रहे हैं. वैसे, इन प्रोफेसर्स का विरोध सतही और राजनीति से प्रेरित ही है, क्योंकि जब उनके देश का राष्ट्रपति बाँहें फैलाकर भारत का स्वागत करने को तत्पर है, तो कुछेक कंपनियों की तो भारत के साथ व्यापार करना लाभकारी ही है. वैसे भी काम वेतन में भारतीय कर्मी आज भी अमेरिका का कॉल सेंटर बिजनेस देख रहे हैं, हालाँकि अब इस सेगमेंट में धीरे-धीरे कमी आ रही है. वेतन को लेकर भारतीय कर्मी भी अब वैश्विक मानकों के पास पहुँचने को तैयार दिख रहे हैं, जो हमारी क्वालिटी में इम्प्रूवमेंट को ही दिखाता है. वेतन को ही लेकर भारतीय अर्थव्यवस्था एक ओर और घिरी दिखती है, मगर इसमें दोष हमारे राजनेताओं के चुनवी वादों का ही ज्यादा है.  किसी ने ठीक ही कहा है कि किसी की भावनाओं के साथ इतना भी न खेलो कि वह खेल को सच समझने लग जाए. लोकसभा के चुनाव के समय, जिस प्रकार नरेंद्र मोदी ने पूर्व सैनिकों के वन रैंक, वन पेंशन के मुद्दे को छेड़ा और न सिर्फ छेड़ा, बल्कि उधेड़ा उसका परिणाम उन्हें अब समझ आ रहा है. तमाम किन्तु-परन्तु के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली को विलेन बनाकर आगे कर दिया गया है, जिन्होंने ‘एक रैंक एक पेंशन’ के तहत पूर्व सैनिकों की पेंशन में हर साल बढ़ोतरी से साफ़ इंकार कर दिया है. खैर, उनका यह कहना भी अनुचित नहीं है कि वेतन या पेंशन में सालाना या हर महीने रिवीज़न दुनिया में कहीं नहीं होती है और न ही यह मुमकिन है. हालाँकि, जो बात निकालकर सामने आ रही है, उससे ये ज़रूर लग रहा है कि सरकार सैद्धांतिक तौर पर 'एक रैंक, एक पेंशन' से सहमत है, मगर अर्थतंत्र के अनुकूल हल अब तक नहीं निकल पाया है. पिछले 78 दिनों से ‘एक रैंक एक पेंशन’ की मांग करते हुए दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे सैनिक अब केंद्र सरकार के लिए एक कठिनाई बनते जा रहे हैं, जो अपनी मांगों में लचीलापन लाने को तैयार नहीं दिखते हैं. खैर, यह तो एक बात है, मगर राजनैतिक वादों के लिए अर्थव्यवस्था को अनजान बोझ से नहींWorld economy and Indian strength, hindi article, xi jinping, china article in hindi दबाया जा सकता है, विशेषकर सेना के मामले में तो यह और भी आवश्यक है, क्योंकि सेना और सैनिकों से जुड़े मामलों को बार-बार रिवाइज करने का जोखिम नहीं लिया जा सकता है. इस मामले में सरकार को बेहद जिम्मेवारी से कार्य करना होगा. उम्मीद यही की जानी चाहिए कि सरकार और पूर्व सैनिक, इस बड़ी समस्या का हल सावधानीपूर्वक निकाल लेंगे, जिससे अर्थव्यवस्था के पेंच ढीले नहीं होंगे. ग्लोबलाइजेशन के दौर में यही तो समझने वाली बात है कि यहाँ कोई भी स्वतंत्र नहीं है, विशेषकर अर्थ के मामले में. चीन ने कुछ किया तो उसका असर दुनिया पर पड़ेगा और भारत ने अगर अर्थव्यवस्था को प्रबंधित करने में असावधानी की तो उसका परिणाम भी सभी को भुगतना होगा, इसलिए भारतीय कहावत को ध्यान रखना ही होगा जो साफ़ कहती है कि अपनी चादर से बाहर पैर फैलाना कतई ठीक नहीं है. इसी कहावत के आधार पर भारतीय अर्थ की मुसीबत में नहीं फंसते हैं, न 2008 में और न ही 2015 में ... और न ही आगे! हाँ, दूसरों की करनी हम पर भारी न पड़े, इसलिए जरूर हमें सेवा-क्षेत्र और निर्माण-क्षेत्र के बदलते हुए ट्रेंड्स पर नजर रखनी है तो रोजगार बढ़ाने पर भी ध्यान केंद्रित करना है.
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