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राजनीति का तरीका बदले सत्ताधारी भाजपा

BJP should change their politics, because they are in power, core political analysis - shivsenaआज (12 अक्टूबर 2015) की बड़ी और वैचारिक खबरों की ओर देखा तो तीन खबरों में एक तरह का साम्य दिखा, जो भाजपा से सम्बंधित भी दिखीं. पहली खबर थी मुंबई में सुधीन्द्र कुलकर्णी के ऊपर स्याही पोतने की तो दूसरी खबर थी रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर द्वारा दादरी घटना पर संजीदा बयान देने की तो तीसरी खबर का सम्बन्ध था हिंदू महासभा एवं अभिनव भारत जैसे संगठनों से जुड़ी रहीं 67 वर्षीय हिमानी सावरकर के निधन की. ये खबरें जुडी कैसे हैं और इनके राजनीतिक निहितार्थ क्या हैं, इसकी व्याख्या आगे की पंक्तियों में करेंगे, पहले इन ख़बरों पर साधारण रूप से नज़र डालते हैं और सामान्य ढंग से इसकी व्याख्या करते हैं, फिर इसकी परत दर परत व्याख्या आसान हो जाएगी! मुंबई जैसे शहर, जिसे देश की आर्थिक राजधानी भी कहा जाता है वहां अगर किसी के चेहरे पर जबरदस्ती स्याही पोत दी जाय तो कानून व्यवस्था पर प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है. इसके बावजूद तमाम दोषियों पर कोई कार्रवाई नहीं होना सत्ताधारी राजनीति पर गंभीर प्रश्न खड़ा करता है. गौरतलब है कि पाकिस्तान के पूर्व मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी की पुस्तक के विमोचन से कुछ ही घंटे पहले कार्यक्रम के आयोजक सुधींद्र कुलकर्णी पर शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने स्याही पोत दी, क्योंकि शिवसेना ने पुस्तक के विमोचन का कार्यक्रम रद्द करने की मांग की थी जो कि आयोजकों द्वारा सुनी नहीं गयी. बताया जा रहा है कि इस घटना में आठ से दस सेना कार्यकर्ता शामिल थे, जिन्होंने कुलकर्णी को अपशब्द भी कहे और धमकाया भी! आश्चर्य तो ये है कि यह सब करने के बाद इसके आरोपी नरम लोकतंत्र की व्याख्या करते नज़र आये! कुलकर्णी पर स्याही फेंके जाने पर प्रतिक्रिया जताते हुए शिवसेना के एक नेता संजय राउत ने कहा कि 'स्याही मलना लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शन का बहुत नरम तरीका है. अब सवाल यह है कि इस नए लोकतान्त्रिक तरीके का आविष्कार करने वाली शिवसेना और उसके शिवसैनिक खुद क्या इस तरीके को सहन कर सकते हैं? ज़ाहिर है, अगर उनके नेता के साथ कोई ऐसा तरीका आजमाए तो उनकी प्रतिक्रिया कितनी नरम हो सकती है और ऐसी प्रतिक्रिया से न केवल मुंबई बल्कि महाराष्ट्र में तनाव फैला दिया जायेगा! सवाल यह भी है कि मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस इस तरह की हरकतों पर चुप्पी साधे क्यों बैठे हुए हैं? अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब मशहूर गजलकार गुलाम अली का मुंबई में होने वाला कंसर्ट इसी शिवसेना के विरोध के कारण रद्द करना पड़ा! वहीं अपनी पुस्तक 'नाइदर ए हॉक नॉर ए डोव :एन इंसाइडर्स एकाउन्ट ऑफ पाकिस्तान्स फॉरेन पॉलिसी' के विमोचन के लिए मुंबई आए कसूरी ने कहा, आज जो हुआ, उससे मैं बेहद दुखी हूं. आपके पास विरोध करने का अधिकार है लेकिन सुधींद्र कुलकर्णी के साथ जो हुआ वह विरोध नहीं है. सवाल यही है कि क्या हम पाकिस्तान के साथ स्टेट ऑफ़ द वॉर की स्थिति में हैं? इससे सम्बंधित शाहरुख़ खान की मशहूर फिल्म 'मैं हूँ ना' में भी एक दृश्य है जब मेजर/ विलेन का रोल निभा रहे सुनील सेट्ठी द्वारा निर्दोष पाकिस्तानियों को मारने के लिए कोर्ट मार्शल की सुनवाई चलती है तो उनसे सीनियर अधिकारी के रूप में नसीरुद्दीन शाह 'स्टेट ऑफ़ द वॉर' की बड़ी सही व्याख्या करते हैं. इस दृश्य में शिवसेना जैसी मानसिकता के लिए बहुत साफ़ व्याख्या की गयी है कि हम पाकिस्तान के साथ 'स्टेट ऑफ़ द वॉर' की स्थिति में नहीं हैं! लेकिन, विरोध के नाम पर हमेशा हद पार करने वालों को यह बात क्यों समझ आएगी भला! वैसे, इस घटना के विरोध में देश भर में आवाजें उठी हैं. केंद्र और राज्य की सत्ता पर काबिज पार्टी बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस घटना की निंदा करते हुए कहा है कि हाल के दिनों में ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं और ये लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है. ज़ाहिर है भाजपा के लौह पुरुष और भीष्म पितामह का दर्जा पाने वाले लाल कृष्ण आडवाणी ने इसी बहाने राज्य और उससे ज्यादा केंद्र सरकार को निशाने पर लिया है. जिस प्रकार की घटनाएं हालिया दिनों में बढ़ी हैं, उन्हें किसी प्रकार से लोकतंत्र के हित में नहीं कहा जा सकता है. बेहतर यही होगा कि सरकारें इस तरह के मामलों पर और भी ज्यादा सख्ती दिखाएँ, न केवल बाहर से बल्कि अंदरखाने भी इसके लिए कड़ा सन्देश जारी किया जाय! वैसे इस घटना की निंदा केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरिन रिजीजू ने भी की और कहा कि हर किसी को विरोध प्रदर्शन करने का अधिकार है, लेकिन वे किसी को शारीरिक रूप से नुकसान नहीं पहुंचा सकते. अब आते हैं दूसरी खबर की ओर जिसमें मनोहर पर्रिकर ने साफ़ कहा है कि दादरी में पीट-पीट कर एक व्यक्ति की हत्या जैसी घटनाओं से राजग सरकार की छवि को नुकसान पहुंचा है और इन सब चीजों के साथ आरएसएस का कोई लेना देना नहीं है. पर्रिकर ने कहा, ‘‘इन घटनाओं से राजग की छवि के साथ प्रधानमंत्री के दृष्टिकोण को भी नुकसान पहुंचता है, जबकि यह नहीं कहा जा सकता कि यह सरकार की मंशा है.’ ज़ाहिर है कि पर्रिकर जी सरकार के ऊपर होने वाले अटैक से दुखी हैं, जबकि उनके संगठन का इस पूरी उठापठक में कोई सीधा सम्बन्ध नहीं रहा है.
manohar parikkarपर्रिकर साहब का यह दर्द काफी हद तक ठीक है और ऐसी ही घटनाएं तब भी उछली थीं, जब मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए घोषणा की जाने वाली थी और आडवाणी के घर बहुचर्चित प्रदर्शन हुआ था. आडवाणी तब नाराज होकर गोवा नहीं गए थे और कहा गया कि मोदी के इशारे पर यह प्रदर्शन हुए, जबकि हकीकत यह थी कि आरएसएस या भाजपा से उन प्रदर्शनकारियों का कोई सीधा या उल्टा सम्बन्ध नहीं था. पिछले दिनों मचे एक बड़े बवंडर, जिसमें नाथूराम गोडसे की मूर्तियां लगाने के ऊपर चर्चा छिड़ी थी, उसमें यही कहा गया कि यह पूरा प्रकरण भाजपा प्रायोजित था, जबकि गोडसे का मुद्दा उठाने वाले नेताओं से भाजपा का बहुत दूर का भी सम्बन्ध नहीं था! अब आते हैं तीसरी खबर पर जो हिमानी सावरकर से सम्बंधित है और हिमानी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे विनायक दामोदर सावरकर के भाई नारायण सावरकर की पुत्रवधू एवं महात्मा गांधी की हत्या के आरोपी रहे नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे की बेटी थीं. हिमानी सावरकर का एक प्रसिद्द वक्तव्य है, जिसमें वह कहा करती थीं कि 'बीजेपी इज जस्ट अनदर कांग्रेस'! अब इन तीनों खबरों और इसकी साधारण व्याख्या को जोड़िये... एक तरफ शिवसेना जैसी पार्टी है, जो महाराष्ट्र में कभी बड़े भाई की भूमिका में थी लेकिन आज वह ऐसे छोटे भाई की भूमिका में है, जिसे मुंबई में प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में बुलाने की आवश्यकता ही नहीं समझी जाती. यही नहीं, महाराष्ट्र में जब चुनाव परिणामों की घोषणा हो गयी तो शिवसेना को शरद पवार की एनसीपी का इस्तेमाल करके बाकायदा यह अहसास कराया गया कि भाजपा की नज़र में उसकी कीमत दोयम दर्जे की ही है. केंद्र में भी शिवसेना को मंत्रालय बांटते समय अपमानित ही किया गया! शिवसेना की स्थिति सांप-छछूंदर की बनी रही, लेकिन बुढ़ापे में वह किसके सहारे तलाक लेती और नए शौहर की तलाश इतनी भी आसान नहीं! अब अपने बाकी सहयोगियों की तरह शिवसेना को भी महाराष्ट्र में धकेलने की प्रक्रिया बखूबी आजमाई जा रही है तो शिवसेना को मजबूरन विपक्ष की राजनीति करनी पड़ रही है. वही राजनीति, जो सत्ता में न होने पर भाजपा करती रही है. ऐसे में मनोहर पर्रिकर भाजपा और संघ की इस राजनीति को समझ ही नहीं पाये हैं कि हिंदुत्व या देशभक्ति की हार्डकोर राजनीति पर यह पार्टी एकाधिकार कर चुकी है, ठीक वैसे ही जैसे आज़ादी के समय में कांग्रेस देशभक्ति के नाम का पेटेंट करा चुकी थी और दुसरे तमाम संगठन और क्रन्तिकारी हासिये पर धकेल दिए गए थे.  तब इस एकाधिकार का क्या परिणाम हुआ, हम यह जानते हैं और अब हिंदुत्व की एकमात्र ठेकेदार बन रही या लगभग बन चुकी भाजपा के शासनकाल के लक्षण किस रूप में सामने आ रहे हैं, यह हम देख ही रहे हैं. राजनीति का सूत्र ही यही है कि अपने विरोधियों को अपने करीब रखो, जबकि पहले कांग्रेस या अब भाजपा-संघ की राजनीति में अपने विरोधियों/ सहयोगियों को अपने वटबृक्ष में समेट लेने की मानसिकता खुद राष्ट्र और इन संगठनों के लिए भी बेहद घातक रहा है. कांग्रेस चाहे लाख कहे कि उसका फलां योगदान है आज़ादी में, लेकिन गांधी की तानाशाही और नेहरू-प्रेम ने देश को बड़े ज़ख्म भी दिए हैं. यह बात कई बुद्धिजीवियों को पसंद नहीं आएगी, लेकिन सच यही है कि राजनीतिक रूप से महात्मा गांधी एक तानाशाह और असहिष्णु व्यक्तित्व रहे हैं, बेहद कट्टर और कठोर! सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, वीर सावरकर, संघ, बल्लभ भाई पटेल जैसे अनेक उभारों को उन्होंने बुरी तरह कुचला है, साइडलाइन किया है, जिसका परिणाम विभाजन और उसके बाद कांग्रेसी खंडन के एकछत्र साम्राज्य के रूप में देश ने भुगता! खैर, यह मुद्दा काफी लम्बा है और इसका संक्षिप्त वर्णन सिर्फ इसलिए कि आज के भाजपाई वर्चस्व की इससे तुलना हो सके!
BJP should change their politics, because they are in power, core political analysis - rssएक-एक कर अपने राजनीतिक विरोधियों और सहयोगियों को नेतानबूत करने पर उतारू भाजपा यह समझने को तैयार ही नहीं है कि वह राजनीतिक विरोधियों को तो समाप्त कर भी ले, लेकिन विरोध तो ज़िंदा रहेगा ही! यह मानवीय स्वभाव है... अगर कोई इस विरोध को दबाना चाहे तो यह 'दमन' कहलाता है, जो तानाशाही के रास्ते होते हुए अंततः विनाश को प्राप्त होता है! आखिर, भगवान राम जैसे आदर्श राजनीतिज्ञ को एक धोबी की बात पर खुद के खिलाफ क्यों कार्रवाई करनी पड़ी? सरल रूप में इसे कोई भावुकता कह ले, मर्यादा निभाने की बात कहले, सत्यवादिता कह ले... लेकिन, हकीकत में यह जन समुदाय में पनप रहे विरोध को शांत करने का राजनीतिक दांव था, जिसे राजधर्म कहा जाता है. इस व्याख्या को झूठ मानने वाले, जरा इस परिस्थिति को आज के हालत में देखें और कल्पना करें कि अगर आज 21वीं सदी में भी किसी की बीवी का अपहरण हो जाय और वह एक साल बाद लौटे तो क्या पति और उसका परिवार उसको स्वीकार करता है? चलो, जैसे तैसे परिवार उसको स्वीकार कर भी ले तो गाँव समाज उसका बायकाट करता ही है. तब की स्थितियां तो काफी भिन्न रही होंगी! सवाल उस व्यक्ति के सही या गलत होने का नहीं है, क्योंकि अगर वह साधारण व्यक्ति हुआ तो वह गाँव या समाज छोड़कर अपना नया समाज किसी दूसरी जगह बना लेगा, लेकिन अगर वह क्षेत्र का विधायक या सांसद है और अगले चुनाव में विपक्षी इस मुद्दे के बारे में दुष्प्रचार करता है तो उसका व्यवहारिक कदम क्या होगा? खैर, इस प्रकरण में कई पंक्तियाँ लिख दी गयीं, लेकिन समझना आसान है कि राजनीतिक जीवन में विरोध और विरोधियों की कितनी कीमत होती है. इस केन्द्रीयकृत राजनीति का भाजपा को अल्पकालिक लाभ हुआ है तो दीर्घकालिक नुक्सान के लक्षण भी खूब साफ़ दिख रहे हैं. दक्षिणपंथी विचारकों को भूलना नहीं चाहिए कि आज वैश्वीकरण के दौर में पूरी दुनिया एक गाँव बन गयी है और विश्व में और लोग भी हैं, जो उन पर नजर रखे हुए हैं. मोदी जी तो यह बात कतई नहीं भूले होंगे कि दस साल तक उन्हें किस प्रकार अमेरिका जैसे देशों में घुसने नहीं दिया गया तो आज भी गाहे बगाहे उनका पुराना ज़ख्म सामने आ ही जाता है. आज क्यों दादरी की एक छोटी सी घटना से पूरी की पूरी भाजपा सरकार बदनाम हो रही है और दसियों साहित्यकार और बुद्धिजीव अपना पुरस्कार वापस कर रहे हैं. शुरू में इसे अनदेखा करना आसान होगा, लेकिन धीरे-धीरे इसका प्रभाव और दुष्प्रभाव भी बढ़ेगा ही! जनता भी शनै शनै विभाजित ही होगी और जनता विभाजित होगी तो फिर आपस में डायरेक्ट एक्शन भी करेगी... ही! शिवसेना या दुसरे हिन्दू संगठनों द्वारा छोटे स्तर पर ही सही, राजनीतिक ज़मीन तलाशने की कोशिश जारी रहेगी और उनकी कोशिशों का परिणाम भुगतेगी भाजपा! भाजपा को समझना होगा कि विरोध में होना अलग बात है और सत्ता में होना बिलकुल अलग बात! संयुक्त परिवार में घर के मालिक पर कोई भी, किसी भी तरह आरोप लगा सकता है, लेकिन अगर वह खुद मालिक बने तो उसे छोटे बच्चे के खिलौने से लेकर बुजुर्गों की दवाई के बीच के हर समीकरण को दुरुस्त रखना पड़ता है, अन्यथा घर में दो ही स्थिति होती है. या तो मालिक बदला जाता है या फिर घर में बंटवारा होता है. दोनों ही स्थितियां असंतुलन पैदा करती हैं और घर के सदस्यों के लिए अति दुखदायी भी होती है. भई! अकेले होने से आप सुविधाओं का लाभ लेते हो तो मुसीबतों का सामना भई अकेले ही करना पड़ता है... और हर मुसीबत अकेले नहीं झेली जा सकती है! इसके लिए मित्र, परिवार, सहयोगी चाहिए ही होते हैं! भाजपा को यही समझने की आवश्यकता है, और तब वह मरहूम हिमानी सावरकर के कथन के अर्थ को भई समझ जायेगी कि 'क्यों उन्होंने भाजपा को दूसरा कांग्रेस कहा था'! मनोहर पर्रिकर जैसे नेताओं का दर्द भी वह तब आसानी से समझ जाएगी कि बदमाशी करता कोई और है और झेलना भाजपा को ही क्यों पड़ता है? क्यों दादरी की छोटी सी घटना ने देश में तूफ़ान खड़ा कर दिया है और क्यों भाजपा का बचाव करने के लिए कोई संगठन या बुद्धिजीवी आगे नहीं आ रहा है... क्योंकि बुद्धिजीवी हो या संगठन, भाजपा ने या तो उन्हें कुचल दिया है या उन्हें अपने अंदर समाहित कर लिया है. दादरी घटना पर शिवसेना जैसी हिंदूवादी पार्टियां उस पर निशाना साधती हैं कि 'दंगे अपने फायदे के लिए कराये जा रहे हैं' और दूसरी ओर वह कुलकर्णी के मुंह पर कालिख भी पोतती है! भई! ज़िंदा रहना है ... तो कुछ न कुछ तो करना ही होगा, क्योंकि भाजपा अपने सहयोगियों और विरोधियों दोनों को समाप्त करने पर उतारू है ... उसे अहसास ही नहीं है कि अब वह सत्ता में है और लम्बे समय तक शासन करने के लिए उसे विरोधी चाहिए ही, क्योंकि विरोधी जिसके नहीं है वह या तो हिटलर था या फिर उत्तर कोरिया का किम उन जोंग है. वैसे भी, अंदर की बात यह है कि भाजपा या संघी देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं, तो इस काम के लिए उन्हें 100 या दो सौ साल सत्ता में रहना ही होगा, क्योंकि कुछ ईसाई बनाने के लिए अंग्रेजों ने दो सौ साल शासन किया तो मुसलमानों ने हज़ारों साल तक! ऐसे में भाजपा की रीति और नीति तो यही होनी चाहिए कि वह पहले सत्ता में रहे और हिन्दुओं को खुश रखे... जाहिर है, सुधीन्द्र कुलकर्णी भी तो हिन्दू ही हैं! मनोहर पर्रिकर और शिवराज चौहान के अलावा भी तमाम हिन्दू हैं, जिन्हें इतनी जल्दी हिन्दू राष्ट्र नहीं चाहिए!
 
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