जितना ढिंढोरा पीटा गया इन दो शब्दों का, उतना ही उल्टा हश्र भी हुआ. पिछले 20 साल से जजों की नियुक्ति में सुधार लाने की चर्चाएं हो रही थीं और सुप्रीम कोर्ट ने इसको बड़ी बेदर्दी से असंवैधानिक ही बता डाला. कोर्ट का यह निर्णय आना था कि सरकार ने प्रतिक्रिया देने में ज़रा भी विलम्ब नहीं किया और अति सक्रियता दिखाते हुए केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कह ही दिया कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से संसद की संप्रभुता पर सवाल खड़े हो गए हैं. कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि हमारी सरकार और पार्टी में ऐसे लोग हैं, जिन्होंने समय-समय पर और आपातकाल के वक्त में भी न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया है. ऐसा कहने के पीछे उनकी मंशा यह समझाने की रही होगी कि सरकार के फैसले को न्यायपालिका से टकराव के रूप में नहीं देखा जाय. वैसे, इस प्रतिक्रिया के समय उन्होंने यह भी कहा कि पूरा फैसला पढ़ने के बाद ही सरकार इस मामले पर ठोस प्रतिक्रिया देगी.' बढ़िया है प्रसाद जी, ठोस, द्रव और गैस तीनों प्रकार की प्रतिक्रियाएं आप को देने का अधिकार है और इसी अधिकार का प्रयोग करते हुए आपके महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने भी कहा कि उच्चतम न्यायालय के फैसले से दोबारा लागू होने वाली कॉलेजियम प्रणाली का संविधान में कहीं उल्लेख नहीं है और ‘अपारदर्शी' होने के कारण यह उचित भी नहीं है. जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी को असंवैधानिक बताया तो सरकार ने भी कॉलेजियम को एक तरह से असंवैधानिक बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी! इससे पहले कि इस बारे में आगे बात करें, समझना उचित रहेगा कि कॉलेजियम और एनजेएसी प्रणाली के बीच में भेद कहाँ है और सरकार इसे लागू करने के प्रति इतनी उतावली क्यों है!
अगस्त 2014 में जब इस बारे में चर्चा चल रही थी तब सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका को बदनाम करने के लिए किए जा रहे बार-बार के प्रयासों और भ्रामक अभियान पर कठोर रुख अपनाते हुए कहा कि इससे लोकतंत्र को बड़ा नुकसान हो रहा है. सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस आरएम लोढा ने कॉलेजियम सिस्टम का बचाव करते हुए तब कहा था कि इसमें कोई गड़बड़ी नहीं है और यह कतई फेल नहीं हुआ है. उन्होंने कहा था कि जनता न्यायपालिका में भरोसा करती है और हमें इसका सम्मान करना चाहिए और यदि यह सिस्टम गलत है तो हम भी गलत हैं. याद कीजिये, अगर आपको जन लोकपाल आंदोलन का दौर याद आये तो उस समय यही संसद और यही नेताओं का समूह ज़ोर शोर से कह रहा था कि जन लोकपाल कोई आसमान से आया हुआ फरिश्ता तो होगा नहीं, जो वह आते ही सब कुछ ठीक कर देगा! बाद में तो जन लोकपाल का जो तियाँ पांचा हुआ, उसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं! यहाँ भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय जिसमें न्यायमूर्ति जेएस खेहर, न्यायमूर्ति जे चेलामेश्वर, न्यायमूर्ति एमबी लोकुर, न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ और न्यायमूर्ति एके गोयल की सदस्यता वाली पांच सदस्यीय एक संवैधानिक पीठ ने एनजेएसी अधिनियम को रद्द करने का सर्वसम्मति से फैसला सुनाया. इस पीठ ने उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति पर उच्चतम न्यायालय के 1993 और 1998 के फैसले को समीक्षा के लिए वृहद पीठ के पास भेजने की केंद्र सरकार की अपील भी खारिज कर दी. सुप्रीम कोर्ट ने इस विधेयक को खारिज करते समय जो तर्क दिए, उन्हें किसी हाल में अनदेखा नहीं किया जा सकता है. कोर्ट ने साफ़ कहा है कि एनजेएसी में सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर कानून मंत्री की मौजूदगी स्वीकार नहीं की जा सकती साथ ही साथ एनजेएसी में समाज के 2 प्रसिद्ध व्यक्तियों को रखने का प्रावधान भी मानने लायक नहीं है, जिसमें इस बात की स्पष्टता भी नहीं है कि ये 2 लोग कौन होंगे. अपने तर्कों में कोर्ट ने यह भी कहा कि एनजेएसी में कोई भी 2 सदस्य किसी नियुक्ति को रोक सकते हैं और ये जजों की नियुक्ति में न्यायपालिका की सर्वोच्चता के सिद्धान्त के खिलाफ है. ज़ाहिर है, एनजेएसी के जरिये न्यायिक नियुक्तियों में सरकार के राजनीतिक हस्तक्षेप से इंकार नहीं किया जा सकता है. इसके समर्थन में सरकार ने जो तर्क दिए थे, उसका मूल आधार यही था कि उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायतों से निपटने के लिए उसके पास कोई तंत्र नहीं है और इस बारे में कोई आंकड़ा नहीं रखा जाता है. लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में विधि एवं न्याय मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने पहले कहा था कि उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों के आचरण एवं कार्यशैली समेत उनके खिलाफ शिकायतों से सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में आंतरिक तौर पर निपटती है. सरकार और दुसरे लोगों द्वारा एकाधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति में हुई तथाकथित अपारदर्शिता का मुद्दा भी उठाया गया है, जिसमें दिनाकरण को हाईकोर्ट का जज बनाना प्रमुख है. लेकिन, सिर्फ इसी आधार पर कॉलेजियम सिस्टम को ख़त्म करने का फैसला थोड़ा जल्दबाजी में लिया गया फैसला प्रतीत होता है. वैसे, थोड़ी गहराई से बात की जाय तो अभी निचली अदालतों में व्यापक सुधार के लिए बड़े प्रयास की आवश्यकता थी और अगर सरकार ने अपनी इतनी ऊर्जा एनजेएसी पर लगाने की बजाय लोगों को शुरूआती न्याय दिलाने में लगाई होती तो उसपर आम जनता का भरोसा कहीं ज्यादा बढ़ता.
यह भी ठीक बात है कि दुनिया में यह एक अकेली ऐसी प्रणाली है जिसमें जज ही जजों को नियुक्त कर रहे थे और देर-सबेर इसमें बदलाव होंगे ही, लेकिन हाल फिलहाल तो यही लग रहा है कि सरकार शीर्ष स्तर पर अपने मनमाफिक जजों को रखने में सक्रीय भूमिका चाहती है. राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के हिमायती लोगों को समझना चाहिए कि हमारे देश में वैसे भी वीआईपी और वीवीआईपी कल्चर का किस हद तक बोलबाला है और अगर जज भी सरकार के मुताबिक आने लगें तो फिर आम लोगों को न्याय मिलना काफी हद तक संदिग्ध हो जायेगा. काफी समस्याओं के बावजूद जनता का भरोसा उच्चतम न्यायालय पर बना हुआ है, क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता ही है, जिसने इंदिरा गांधी से लेकर, सलमान खान, संजय दत्त, मधु कोड़ा, ए राजा, सोमनाथ भारती और ऐसे ही अनगिनत प्रभावशाली लोगों को न्यायिक कठघरे में खड़ा किया है, जनहित में तमाम फैसले लिए हैं. ऐसे में जब तक देश में जागरूकता का स्तर इस हद तक नहीं बढ़ता कि जनता सरकार के ऊपर खुद ही अंकुश रख सके, पांच साल बाद नहीं, बल्कि हर फैसले के बाद, तब तक कॉलेजियम सिस्टम को बने रहने देना चाहिए. हाँ! उसके बाद बेशक कोई भी आयोग न्यायाधीशों की नियुक्ति करे. लेकिन हाल फिलहाल देश का आम आदमी उस स्तर तक सशक्त नहीं है, यह हमें मानना चाहिए और जब उसके अधिकारों की बात आती है तो निष्पक्ष न्याय सर्वोच्च होता ही है. इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय की सर्वोच्चता सबसे ज्यादा आवश्यक है... !! सरकार को अगर सुधार करना ही है तो वह निचली अदालतों से कार्य करना प्रारम्भ करे, सर्वोच्च तंत्र से छेड़छाड़ करने योग्य उस पर विश्वास नहीं है जनता को! अतः संसद की सर्वोच्चता से सर्वोच्च न्यायालय की जबरदस्ती टकराहट न कराएं रविशंकर प्रसाद जी, क्योंकि जहाँ भी आम नागरिक के अधिकारों पर प्रश्नचिन्ह उठने की सम्भावना होगी, वहां कोर्ट को दखल देने का संवैधानिक अधिकार सुनिश्चित है और यह मामला नागरिकों और उसके लोकतान्त्रिक अधिकारों से सीधे जुड़ा हुआ है.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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