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राजनीतिक के साथ सामाजिक संगठनों पर प्रश्नचिन्ह

ज़मीनी हकीकत की दृष्टि से अगर उत्तर प्रदेश की बात की जाय तो जब समाजवादी पार्टी की सरकार आती है तो यादव दबंगों की गुंडई बढ़ जाती है, जब बहुजन समाज पार्टी की सरकार आती है तो दलित नेता अपना दुष्प्रभाव दिखाने लगते हैं और जब भाजपा सत्ता में आती है तो अगड़े अपनी दबंगई दिखाने के लिए बदनाम हैं ही. यही हाल बिहार का समझ लीजिये, जब लालू यादव का राज रहा है तब जाति विशेष के आपराधिक कारनामें बढ़ जाते हैं. सिर्फ उत्तर प्रदेश और बिहार ही क्यों, दुसरे राज्यों में भी अगर कोई पार्टी सत्ता में आ जाती है तो वर्ग विशेष की दबंगई घातक रूप में सामने आती है. इन राज्यों में अब हरियाणा के बल्लभगढ़ से जो घटना सुनने में आयी है, उसने अच्छे अच्छों को हिलाकर रख दिया है. प्रथम दृष्टया जो बातें सामने आ रही हैं, उससे साफ़ जाहिर होता है कि दबंगों की दबंगई हुई है. कोढ़ में खाज यह कि ज़ख्म पर नमक छिड़कते हुए तमाम राजनीतिक दल अपनी रोटियां सेंकने से बाज नहीं आ रहे हैं. हालाँकि, हरियाणा सरकार ने पूरे मामले की सीबीआई जांच की सिफारिश कर दी है, लेकिन सीबीआई की रिपोर्ट से पहले ही इस पूरे प्रकरण को 'जातीय संघर्ष' बताने में जरा भी देरी नहीं की जा रही है. क्या हरियाणा, क्या दिल्ली, क्या यूपी और बिहार ... हर जगह इस घटना को भुनाने के प्रयास तेजी से होने लगे, वगैर इस बात की परवाह किये कि ऐसे मुद्दों पर राजनीति करने से सामाजिक विभाजन का खतरा और बढ़ेगा ही, जो अंततः सबके लिए घातक साबित होगा! घटना के अपराधियों को हर हाल में कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए, लेकिन उन लोगों का कृत्य कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता है, जिन्होंने इस घटना को माध्यम बनाकर सामाजिक सद्भाव को नफरत में बदलने का प्रयास किया है. हर प्रदेश में, समाज में रंजिश की घटनाएं होती रही हैं, दबंग और अपराधिक प्रवृत्ति के लोग अपने से कमजोरों को सताते रहे हैं, सत्ता भी इसमें यदा कदा शामिल होती रही है, किन्तु इससे पूरे समाज पर प्रश्नचिन्ह किस प्रकार उठाया जा सकता है और अगर समाज पर प्रश्नचिन्ह उठता है तो तमाम सामाजिक संगठन क्या कर रहे हैं और उनकी क्या जवाबदेही है?

ब्राह्मण संगठन, क्षत्रिय संगठन, दलित समाज, गुप्ता समाज और ऐसे ही अनेक नामों से पंजीकृत संगठन और उसके पदाधिकारी आखिर वर्ग संघर्ष को रोक क्यों नहीं रहे हैं? सामाजिक संगठनों की जवाबदेही पर आगे चर्चा करेंगे, उससे पहले कुछ राजनेताओं के हालिया बयानों पर गौर करना आवश्यक है. इस कड़ी में, फरीदाबाद में दबंगों के हमले में अपने दो बच्चों को खोने वाले दलित परिवार से मिलने आए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर गरीबों को ‘‘दबाने की राजनीति’’ करने का एकमुश्त आरोप लगाया और कहा कि इसी के कारण ऐसी घटनाएं होती हैं, लेकिन वह यह बात भूल गए कि ऐसी घटनाएं कांग्रेसी शासनकाल में भी होती रही हैं और अपने 60 साल से ज्यादे समय में भी कांग्रेस लोगों की मानसिकता बदलने में विफल ही रही है! बसपा मुखिया मायावती ने भी सनपेड गांव की घटना को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए चेतावनी दी है कि यदि दोषियों की गिरफ्तारी और पीड़ित परिवार की सहायता में तनिक भी विलम्ब हुआ तो उनकी पार्टी सड़कों पर उतर कर आंदोलन करेगी. इस मुद्दे पर राजनीति करने का मौका बिहार चुनाव में अगड़ी पिछड़ी की राजनीति कर रहे लालू यादव कैसे हाथ से जाने देते. उन्होंने तत्काल प्रधानमंत्री को ही निशाने पर लिया और कहा, ‘खुशफहमी और आत्ममुग्धता के शिकार पीएम महोदय को अपनी ‘मन की बात’ करने के बजाय उत्पीड़ित, वंचितों, पिछड़ों और दलितों के ‘कष्ट की बात’ करनी चाहिए.’’ राजद प्रमुख ने तीखे स्वर में हमला बोलते हुए कहा कि ‘‘बिहार में भाषणबाजी करने के पहले मोदी बतायें कि केन्द्र तथा हरियाणा में उनके राज में गरीब, दबे कुचले और दलित कब तक जिंदा जलाए जाते रहेंगे. इन सभी बयानों को देखने के बाद साफ़ है कि किसी को न तो दलित परिवार की चिंता है और न ही किसी ने घटना की तह में जाने की जहमत उठाई है. हाँ! उन्होंने अपनी अपनी गोटियां बिछाकर राजनीतिक चालें जरूर चल दी हैं. मामले की गंभीरता को समझते हुए हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर सुनपेड का दौरा करने वाले थे लेकिन बाद में मुख्यमंत्री का दौरा टाल दिया गया. बीजेपी के स्थानीय सांसद किशनपाल गुर्जर ने गांव का दौरा किया, पीड़ित परिवार से मिले और भाजपा शासन ने इसकी सीबीआई से जांच की सिफारिश करके ठीक समय पर सही कदम उठाया, क्योंकि अगर प्रदेश पुलिस इस गंभीर मामले की जांच करती तो उसके प्रभावित होने की आशंका उठायी ही जाती.

ऐसे मामलों में वगैर जांच नतीजों का इन्तेजार किये राजनेताओं द्वारा बयानबाजी समाज में सिर्फ और सिर्फ दुराव को ही बढ़ावा देगी, जिसकी जितनी भी निंदा की जाय वह कम है. ऐसे वक्त में पीड़ित परिवार को सहानुभूति और सहारे की आवश्यकता है, जिसे सरकार,विपक्ष को मिलकर पूरा करना चाहिए. हालाँकि, राजनीति अपनी आदतों से बाज आएगी, इसकी आशा करना कोरी आदर्शवादिता ही होगी. हाँ! सामाजिक संगठनों की भूमिका पर जरूर बात होनी चाहिए. वैसे देखा जाय तो तमाम महासभाएं, जातीय संगठन अपने वर्ग को मजबूत करने के बजाय दूसरी जातियों से विभेद पैदा करने में लगी रहती हैं. यही नहीं, यह तमाम सामाजिक संगठन राजनीतिक पार्टियों के पिछलग्गू भी हैं, जिसके कारण जरूरत के समय इस प्रकार के संगठनों की भूमिका शून्य हो जाती है. आंकड़े उठा कर देखें तो आपको हर जाति का कोई न कोई संगठन दिख जायेगा, लेकिन उसकी भूमिका और जवाबदेही आपको शून्य ही नजर आएगी. हाँ! किसी चुनाव के समय वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जरूर किसी पार्टी का समर्थन करती नजर आएगी. ऐसे ही एक संगठन की बैठक में मुझे जाने का अवसर मिला तो वहां के पदाधिकारियों का रवैया देखकर मुझे अति खिन्नता का अनुभव हुआ. वहां न केवल आर्थिक अनियमितता, बल्कि दूसरी जातियों से खतरे की बात कही जा रही थी. मीटिंग के दौरान भाजपा और कांग्रेस की चर्चा की जा रही थी तो अपने समाज की समस्याओं के बारे में उनकी विचारशून्यता देखकर मेरे मन में यह भाव घर कर गया कि सामाजिक संगठनों का प्रभाव समाज पर क्यों शून्य है और क्यों राजनीतिक पार्टियां इनको मुट्ठी में बंद किये हुए हैं. भारत जैसे विविधता भरे समाज में अगर सामाजिक संगठन अपना रोल ठीक से निभाएं तो मुजफ्फरनगर, दादरी या सनपेड़ा जैसी घटनाओं के समय समाज की सोच राजनीति से ऊपर आये और तब राजनीतिज्ञों को लोगों की लाश पर रोटियां सेंकने का मौका नहीं मिलेगा! इसके लिए सबसे जरूरी बात यही है कि सामाजिक संगठन, राजनीतिक संगठनों के पिछलग्गू होने की भूमिका से बाहर निकलें और अपने समाज को अनुशासित, विकसित और सक्षम करने की भूमिका का निर्वहन करें, जो राजनीति तो नहीं ही करेगी. अगर उसे करना होता तो आज़ादी मिले 70 साल होने को आये हैं, लेकिन किसी एक घटना पर एक समाज दुसरे समाज से भिड़ने को तैयार हो जाता है. ऐसे में भेद पैदा करने वाली राजनीति से न्याय की उम्मीद कोई करे भी तो कैसे!

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