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शांतिदूत सिर्फ प्रतीकात्मक क्यों?


 बहुत दिन नहीं हुआ, जब शिवसेना द्वारा पाकिस्तानी गायकों, पाकिस्तान के साथ क्रिकेट संबंधों को लेकर जबरदस्त विरोध जताया जा रहा था. सवालों पर शिवसेना का तर्क यही था कि जिस देश के साथ हमारे सम्बन्ध हमेशा ही दुश्मनी के हों, जो बात-बात पर परमाणु हमले की धमकी देता हो, भारत के अभिन्न हिस्से जम्मू कश्मीर पर अनर्गल हक जताता हो, उससे किसी भी प्रकार के सम्बन्ध क्यों होना चाहिए? यह विरोध इतना बढ़ा कि आतंक के गढ़ के रूप में समूचे विश्व में कुख्यात पाकिस्तान की एक असेम्ब्ली में शिवसेना के खिलाफ बाकायदा निंदा प्रस्ताव पारित किया गया. इन तमाम जद्दोजहद में भारत पाकिस्तान के बीच बुरी खबर हमेशा ही आपको मिल जाएगी, लेकिन इस बार कुछ ऐसा है जिसका ज़िक्र पल भर के लिए ही सही, प्रतीकात्मक रूप में ही सही, सकारात्मक रूप में होना ही चाहिए. पाकिस्तान में 14 साल से रह रही बहुचर्चित गीता आखिरकार भारत लौट ही आईं. विशेष विमान से उनकी वापसी हुई और गीता 26 अक्टूबर को करीब साढ़े 10 बजे दिल्ली पहुंची. पाकिस्तान उच्चायोग के वरिष्ठ अधिकारियों ने दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर गीता का स्वागत किया तो उसके साथ पाकिस्तान के ईधी फ़ाउंडेशन एनजीओ के भी पांच सदस्य भारत आए.  भारत, पाकिस्तान के बीच तमाम नकारात्मक खबरों के बीच कराची से रवानगी से पहले गीता ने 'ईधी' की ओर से दिया गया सोने की चैन का तोहफा भी दिखाया, जिससे उनकी ख़ुशी जाहिर होती है. गौरतलब है कि गीता करीब 14 साल पहले भटकते हुए पाकिस्तान पहुंच गई थी और अब उसकी भारत वापसी पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने सहृदयता का परिचय देते हुए गीता को 'भारत की बेटी' कहकर संबोधित किया और स्वागत किया. 


सच कहा जाय तो नफरत की दीवारों पर आप कुछ भी लिख लो, लेकिन प्रेम के एक झोंके में इतनी ताकत होती है कि वह अपना असर छोड़ ही जाती है. इस सन्दर्भ में भारत के सुपर-सितारे सलमान खान की बहुचर्चित फिल्म 'बजरंगी भाईजान' का ज़िक्र किये वगैर गीता की कहानी पूरी नहीं होगी, क्योंकि निश्चित रूप से इस फिल्म ने गीता की वापसी में असर जरूर छोड़ा होगा. फिल्म में, जिस प्रकार भारत आये पाकिस्तानी परिवार की एक लड़की बिछड़ जाती है और बजरंग बली का भक्त बना 'हीरो' तमाम मुसीबतों के बावजूद उसे उसके परिवार के पास पहुंचाकर ही दम लेता है, उसने नफरत के कई सौदागरों का भी दिल जीत लिया होगा. विशेष बात यह है कि इस फिल्म में तमाम खतरों के बावजूद हीरो, वगैर झूठ बोले, छल के बिना अपने कार्यों को अंजाम देता है. बजरंगी भाई जान फिल्म और उसके बाद गीता की वापसी से यह कहा जा सकता है कि सिनेमा भी मानव जीवन में विशेष दखल रखता है, प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष ही सही. देशवासी जहाँ गीता की वापसी से खुश हैं, वहीँ कई नकारात्मक लोगों के पेट में मरोड़ भी उठने लगी है. वह प्रश्न उठा रहे हैं कि इतनी चर्चा, इतनी अटेंशन और इतना सम्मान उसे क्यों मिल रहा है? ऐसे लोगों की नादानी पर तरस ही खाया जा सकता है, क्योंकि इन्हें शांति के दूतों की अहमियत ही नहीं पता, बेशक वह प्रतीकात्मक ही क्यों न हो! ऐसे लोगों में, केजरीवाल की पार्टी की विधायक अलका लांबा ने गीता को मिले सम्मान पर सवाल उठाया है. अलका लांबा ने कहा कि सरकार और मीडिया ने इतना सम्मान तो शहीदों और उनके परिवारों को भी नहीं दिया. वैसे बाद में, अलका लांबा ने अपना ट्वीट हटा लिया, लेकिन उनकी मानसिकता तो सामने आ ही गई! इस कड़ी में राजनीति करने वालों की लम्बी फेहरिस्त है, जिसमें हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी दोनों तरफ के लोग शामिल हैं और इन सबने मिलकर गीता की वापसी से उत्पन्न सकारात्मक माहौल को फीका करने का भरपूर प्रयास किया है. 

इनमें बिहार चुनाव को बेवजह घसीटते हुए भाजपा के नेता सुशील मोदी ने ट्वीट किया कि '15 साल पहले समझौता एक्सप्रेस से सफर के दौरान भटक कर पाकिस्तान पहुंची बिहार की मूक-बधिर बेटी गीता केंद्र सरकार के प्रयास से आज सकुशल भारत लौट रही है. क्या नीतीश कुमार इसके लिए प्रधानमंत्री को बधाई नहीं देंगे?' अब इन महोदय से कोई पूछे कि क्या गीता जैसी शांति दूतों को राजनीति का विषय बनाया जाना उचित है, तो इनका जवाब क्या होगा? वैसे तो, पाकिस्तानी सोशल मीडिया में कई जगह तो गीता को 'शांति की मिसाल' के तौर पर पेश किया जा रहा है जबकि कुछ लोग भारत पर निशाना साधने से भी नहीं चूक रहे हैं. इस मुद्दे को राजनीतिक रंग देते हुए कई सिरफिरे यह कहने से नहीं चूक रहे हैं कि पाकिस्तान पूरे सम्मान से मूक बधिर महिला को लौटा रहा है जबकि भारत सीमा पर गोलीबारी कर रहा है जिसमें निर्दोष पाकिस्तानी घायल हो रहे हैं." अब ऐसे लोगों को कौन समझाए कि 'गोलीबारी' और धमाके करना, वह भी अपने जन्म के समय से ही पाकिस्तान का ही काम रहा है. आज बेशक अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की आलोचना का शिकार होने पर पाकिस्तान के कुछ अच्छे लोगों ने 'गीता' के माध्यम से अपने देश की छवि सुधारने की कोशिश की है, लेकिन पाकिस्तान को आतंक का गढ़ बना चुके कुछ हठधर्मी उसे बदनाम करने पर ही तुले हुए हैं. जरूरत है, गीता जैसे शांतिदूतों का सम्मान करने की, क्योंकि यही एक स्थाई रास्ता है अमन का, विकास का और खुशहाली का. हालाँकि, सिर्फ प्रतीक बनाने भर से ज़मीनी हकीकत में कोई खास बदलाव आएगा, इस बात की उम्मीद कम ही है.

संयोग से, जिस दिन गीता की घर वापसी हुई, ठीक उसी दिन पाकिस्तान में जबरदस्त भूकम्प भी आया, जिसमें सैकड़ों लोगों के मारे जाने की खबर है. इस भूकम्प की जद में दिल्ली, यूपी समेत भारत का भी एक बड़ा हिस्सा शामिल रहा है, लेकिन अधिकतर नुक्सान की खबरें पाकिस्तान से ही आ रही हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रतीकात्मकता से आगे बढ़कर, पाकिस्तान को इस संकट की घड़ी में मदद पहुंचाने का तुरंत प्रस्ताव दिया, जिसकी खुले दिल से प्रशंसा की जानी चाहिए. हालाँकि, पाकिस्तान इस मामले में कोई सकारात्मक रूख दिखायेगा, इस बात की सम्भावना कम ही है.  अपनी अर्थव्यवस्था के मामले में, सांस्कृतिक मामलों में भारत से काफी हद तक जुड़ा हुआ यह देश आतंक के मामले में आखिर किस मजबूरी का शिकार है, इस बात को वह भी भूल गया है. आतंक के मामलों में सिर्फ भारत से ही उसका विरोध नहीं है, बल्कि अफगानी नागरिक भी उसकी आतंक नीति से हलकान हो रहे हैं. हाल ही में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने राजधानी काबुल में हुए हमले को लेकर पाकिस्तान की आलोचना की है, जिसमें कम से कम 56 लोग मारे गए थे. इसके कुछ ही दिन बाद जब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ पर अफगान और तालिबान के सन्दर्भ में दबाव पड़ा तो वह बिफर गए और सार्वजानिक रूप से झल्लाते हुए कह उठे कि 'तालिबान को बुलाकर मार तो नहीं सकते'! अब सवाल यह है कि वह लादेन को नहीं मार सकते, हाफिज सईद, सलाहुद्दीन को नहीं मार सकते, तालिबान को नहीं मार सकते ... हाँ! वह मासूमों का खून जरूर बहते हुए देखना चाहते हैं. साफ़ है कि पाकिस्तान आतंक के खिलाफ सिर्फ दिखावे के लिए जंग लड़ रहा है और शांति से उसकी सरकारी और फौजी नीति का दूर-दूर तक सम्बन्ध नहीं है. अमेरिका और चीन जैसे देश भी अपने हथियारों की खपत या भारत को रोकने के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल करने में हिचकते नहीं हैं, जबकि दूसरी ओर वह पाकिस्तान के परमाणु हथियारों के आतंकियों के हाथ में जाने के प्रति आशंका भी जताते हैं और दोमुंहेपन से पाकिस्तान को आतंक का रहनुमा भी बताते हैं. ऐसे में, गीता की वापसी जैसे एकाध क़दमों को अगर प्रतीकात्मक कहा जा रहा है तो इसमें गलत क्या है! हालाँकि, राजनीति में कई बार प्रतीकों का भी बड़ा महत्त्व होता है और उसका असर भी दूर तक जाता है. 'गीता की वापसी' का सन्देश भी महत्वपूर्ण हो सकता है, अगर पाकिस्तान अपने पड़ोसी देशों में आतंक फैलाने की नीति का पूर्णतः त्याग कर दे. सच तो यही है कि अगर आतंक से किसी का सबसे ज्यादा नुक्सान हुआ है तो वह पाकिस्तान ही है, लेकिन उसे 'गीता-सन्देश' समझ आये तब तो ... !!

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