पिछले दिनों तब बड़ा हंगामा मचा था, जब एक नामी साहित्यकार ने अपने से काफी कम उम्र के एक मुख्यमंत्री का पैर पकड़ लिया था. बड़ा हो हल्ला मचा, खूब सारी बातें कही गयीं कि साहित्य तो राजनीति की दशा दिशा तय करता था, और अब वह राजनीति के चरणों में पड़ा हुआ है. यूं भी साहित्यकारों की बदहाल आर्थिक स्थिति के बारे में किस्से बड़े पुराने हैं और उनके बारे में कहा यही जाता है कि जैसे चिराग खुद को जला कर रौशनी देता है, वैसे ही साहित्यकार खुद को जलाकर समाज की पीड़ा महसूस करते हैं और उससे दूसरों को रूबरू कराते हैं. ठीक ही तो है, सत्ता की दलाली करके तमाम ऐश-ओ-आराम का भोग करने वाले भला समाज का दर्पण कैसे बने रह सकते हैं! उनके चेहरे में तो अपने मालिक की तस्वीर ही दिखती है, स्वाभाविक रूप से! खैर, इसके बाद थोड़ा आगे बढ़ें तो विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल से जुड़ा साहित्यिक विवाद सामने आया. पूर्व सेनाध्यक्ष और वर्तमान विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह ने यह कहकर हंगामा बरपा दिया कि सम्मेलनों में साहित्यकार शराब पीने, खाना खाने और एक दुसरे की आलोचना करने आते हैं. इसी सम्मलेन में जब कई साहित्यकारों को आमंत्रित नहीं करने पर विवाद खड़ा हुआ तो सुषमा स्वराज ने साफ़ कहा कि यह भाषा का सम्मलेन है, साहित्यकारों का नहीं! बिचारे साहित्यकार खुद को अपमानित होते देखते रहे... अपनी कलम से समाज के दर्पण के रूप में कार्य करने का दम भरने वाले साहित्यकार खुद ही दर्पण में अपनी शकल देखने को मजबूर हुए! साहित्यकारों के मोदी सरकार से जलने भुनने का हाल ही में यह एक बड़ा कारण था, लेकिन तब उन्हें मौका मिला नहीं कि वह कुछ इफ या बट कर पाते... !!
खैर, एक सीमित नजरिये से देखा जाय तो केंद्र सरकार के खिलाफ साहित्यकारों को यह मौका जल्द ही मिल गया और उनमें से कुछ ने तो बाकायदा अपने पुरस्कार लौटाकर जता दिया कि उन्हें यूं ही नहीं लिया जाय... मशहूर लेखिका और जवाहरलाल नेहरू की भतीजी नयनतारा सहगल के बाद ललित कला अकादमी के पूर्व अध्यक्ष अशोक वाजपेयी ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया! जानकारी के अनुसार उन्होंने भारतीयों के 'जीवन और अभिव्यक्ति, दोनों की स्वतंत्रता के अधिकार पर हो रहे हमलों को देखते हुए' पुरस्कार लौटाने का फैसला किया है. हिंदी कवि और आलोचक के रूप में मशहूर अशोक वाजपेयी ने दादरी में बीफ़ की अफ़वाह को लेकर हुई हिंसा और कई सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्याओं से जुड़ी घटनाओं पर 'प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी' पर भी सवाल उठाया तो ऐसा ही तर्क नयनतारा सहगल ने भी दिया. हालाँकि, यह सिलसिला आगे बढ़ता उससे पहले ही अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की भांजी नयनतारा सहगल और हिन्दी कवि अशोक वाजपेयी के कदम पर सवाल उठाते हुए कहा कि लेखकों को विरोध प्रदर्शन के लिए अलग रास्ता अपनाना चाहिए तथा स्वायत्त साहित्यिक संस्था का राजनीतिकरण नहीं करना चाहिए. उन्होंने इसके लिए बाकायदा तर्क भी दिया कि आपात काल के दौरान भी अकादमी ने कोई रुख नहीं अपनाया था. खैर, दोनों रूख अपनी अपनी जगह ठीक और गलत हो सकते हैं. लेखकों का सम्मान लौटाना ठीक इसलिए हो सकता है कि अगर देश में सच में हालात इतने ख़राब हो गए हैं कि लोगों के मानवाधिकार खतरे में पड़ रहे हैं, तो उनका कदम ठीक जरूर कहा जायेगा और इसलिए यह तर्क कोई मायने नहीं रखता कि आपातकाल के दौरान किसने क्या किया था? इसके विपरीत अगर एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना को मुद्दा बनाकर कुछ साहित्यकार एक चुनी हुई बहुमत वाली सरकार के खिलाफ राजनीति कर रहे हैं तो यह वाकई गलत बात है. साहित्य का आज क्या स्तर रह गया है, यह किसी से छिपा हुआ तथ्य नहीं है. चेतन भगत जैसे लोग, जो हिंदी को रोमन में लिखने का बेतुका तर्क प्रस्तुत करते हैं और अपने उपन्यासों में मस्तराम का सुधरा संस्करण पेश करके वाहवाही लूट ले जाते हैं तो इसमें मठाधीश साहित्यकारों की असफलता ही छिपी हुई है. आज का युवा वर्ग अगर किताबों से दूर गया है तो इसका सीधा मतलब यही है कि उसे उसके हिसाब से कंटेंट नहीं मिल रहा है और साहित्यकार अपनी बनाई एक आभाषी दुनिया में रचना करने को प्राथमिकता दे रहे हैं, जिसे कुछ पुरस्कार यह शासकीय वाहवाही मिल जाए. ऐसे में, बेवजह की राजनीति से साहित्य का और भी बेड़ागर्क होना तय है. वैसे, देश में ठीक ढंग से एक विपक्षी पार्टी का दर्जा भी हासिल न कर पाने वाली कांग्रेस साहित्यकारों के रूख पर स्वाभाविक रूप से प्रसन्न नजर आ रही है. कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने छूटते ही कहा कि भारत की परिकल्पना के मूल आधार पर हमला हो रहा है और इसलिए नयनतारा को सलाम करने और उनकी तारीफ करने की जरूरत है. भारत की इस परिकल्पना के प्रति नयनतारा को खड़े रहने के लिए उन्हें तिरंगे की सलामी दी जानी चाहिए. ठीक बात है तिवारी जी! लेकिन, काश आप और आपकी कांग्रेस पार्टी यह विरोध करने में सक्षम होते, तो देश में ऐसा होने पर आप ही हंगामा मचा देते! शर्म तो राजनीतिक तंत्र को आना चाहिए कि उसके पास सरकार का विरोध करने के लिए व्यवस्था नहीं है, इसलिए कोई संयुक्त राष्ट्र संघ जा रहा है तो कोई अपना पुरस्कार लौटा रहा है.
प्रत्येक दुर्घटना दुर्भाग्यपूर्ण होती ही है, लेकिन इस घटना से मोदी के राजनैतिक विरोधी यह चाहते हैं कि प्रधानमंत्री इस्तीफा दे दें या फिर उन सबके सामने व्यक्तिगत रूप से जाकर अपना व्यक्तिगत अपराध, जो उन्होंने किया ही नहीं है, उसे कबूल करें! क्यों भई! यह कौन सा लोकतंत्र है? नयनतारा और अशोक बाजपेयी को यह समझना चाहिए कि भारत की ऐसी मानसिकता एक दिन में नहीं हो गयी है, बल्कि पिछले 60 सालों की तुष्टिकरण और भ्रष्टाचारी राजनीति का भी इसमें काफी कुछ योगदान है. यूं भी भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी, वित्तमंत्री अरुण जेटली, गृहमंत्री राजनाथ सिंह, अल्पसंख्यक मामलों से जुड़े मुख़्तार अब्बास नकवी इस घटना की कड़ी भर्त्सना कर चुके हैं. साथ ही साथ केंद्रीय गृह मंत्रालय राज्यों को यह निर्देश दे चुका है कि चाहे जो कोई हो, साम्प्रदायिक विद्वेष कि राजनीति पर ज़ीरो टॉलरेंस की नीति अपनाई जाय तो दोषियों पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाय! ऐसे में अगर वामपंथी विचारक कसम खा कर बैठे हैं कि मोदी को बदनाम करना ही है, तो फिर यही कहा जायेगा कि यह सरकार साहित्यकारों को 'खुश' करने का जुगाड़ नहीं कर सकी, इसलिए... या फिर पिछली सरकार की वफादारी की कसम खाकर ये लोग... !! वैसे भी, उत्तर प्रदेश में मोदी की सरकार तो है नहीं, और अगर प्रदेश सरकार से हालात नहीं सम्हल रहे हैं तो वह केंद्र की मदद ले, राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करे, सुप्रीम कोर्ट जाये, आंदोलन करे... लेकिन, अगर उसका ही एक ताकतवर मंत्री संविधान की धज्जियां उड़ाता हुआ संयुक्त राष्ट्र संघ चला जाये तो उसकी मंशा पर प्रश्नचिन्ह स्वाभाविक ही है. ऐसी ही एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना, कन्नड़ चिंतक एमएम कलबुर्गी के हत्यारों की गिरफ्तारी में देरी होने से दुखी छह कन्नड़ लेखकों ने भी अपने पुरस्कार कन्नड़ साहित्य परिषद को लौटा दिए थे. कलबुर्गी की 30 अगस्त को उनके आवास पर अज्ञात लोगों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. इस राज्य में भी कांग्रेस शासन में है तो उसे भी संवैधानिक विकल्पों का इस्तेमाल करना चाहिए था, अन्यथा साफ़ है कि भाजपा के साथ यह पार्टियां भी राजनीति करने में लिप्त हैं. इन सभी तथ्यों और राजनीति को देखते हुए, बेहतर होगा अगर तमाम साहित्यकार राजनीति करने के बजाय, अपने खोल से बाहर आकर समाज को दर्पण दिखाने वाले साहित्य की रचना करें... तब शायद मुजफ्फरनगर, दादरी जैसे अध्याय भारत को देखने ही न पड़ें. आखिर, ऐसी घटनाओं से समाज की मानसिकता का भी पता चलता है या नहीं..! अगर हाँ! तो फिर साहित्यकारों को भी निश्चित रूप से इसके लिए जिम्मेदारी लेनी चाहिए और तब उन्हें अपने सम्मान लौटाते समय यह कथन जोड़ देना चाहिए कि 'समाज में अपनी जिम्मेदारी न निभा पाने के कारण मैं / हम इस सम्मान के योग्य नहीं थे, इसलिए इसे वापस कर रहे हैं'! यह होगी असल बात... आईने वाली, दर्पण वाली... वरना कहने को तो कुछ भी कह दो, लिखने को तो कुछ भी लिख दो ... मुंह है, कलम है! और करने को तो कुछ भी कर दो ... राजनीति है, सब जायज़ है... लेकिन, फिर इसे साहित्य न कहो, तुम्हें समाज की कसम!
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