देश, समाज की ज़रा भी जानकारी रखने वाला व्यक्ति जय प्रकाश नारायण के नाम से न केवल सुपरिचित होगा, बल्कि इस लोकनायक के बारे में और अधिक जानने समझने को उत्सुक भी होगा. मेरा जन्म चूंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में हुआ है, जिसे जय प्रकाश नारायण की जन्मस्थली भी कहा जाता है, इसलिए मेरी उत्सुकता इस महान व्यक्तित्व के बारे में और भी रही है. हालाँकि, इनके जन्मस्थान के बारे में भ्रांतियां हैं और बिहार के सारन जिले का सिताबदियारा गांव भी इनके जन्मस्थान का दावेदार कहा जाता है. खैर, यह विवाद अपनी जगह है, लेकिन इस बात में कोई विवाद नहीं है कि जेपी के सबसे सक्रीय और विलक्षण शिष्य के रूप में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की पहचान रही है, जो बलिया जिले से ही जन्म और आजीवन राजनीति से जुड़े रहे हैं. न केवल स्थान से इनका सम्बन्ध रहा, बल्कि जेपी के सिद्धांतों का भी चंद्रशेखर ने पूरे जीवन पालन करने का निश्चय बनाये रहे. दिलचस्प बात यह भी है कि जब देश में आपातकाल लगा और पुलिस जेपी को गिरफ्तार करने गांधी शांति प्रतिष्ठान पहुंची तो वह सो रहे थे. रात का समय होने के बावजूद, जेपी के अनेक सहयोगियों को इसकी सूचना मिली, लेकिन जब जेपी को पुलिस अपनी जिप्सी में ले जा रही थी तब उनके पीछे पीछे चंद्रशेखर ही थे. गिरफ्तारी के लिए जैसे ही जेपी पुलिस की कार में बैठे, उसी वक्त चंद्रशेखर भी वहां पहुंचे थे. जेपी के इस शिष्य ने संसद मार्ग थाने में अपने गुरु के साथ जाकर वहीं अपनी गिरफ्तारी भी दी थी! आप सोचेंगे कि यह लेख चंद्रशेखर के बारे में लिख रहा हूँ या जेपी के बारे में, तो यहाँ स्पष्ट करना जरूरी समझता हूँ कि जेपी के साथ उनके तमाम शिष्यों की कहानी भी उतनी ही महत्वपूर्ण है, जिसने आगे भारतीय राजनीति को प्रभावित किया. चाहे उनके पुराने समाजवादी शिष्य रहे हों या फिर भाजपाइयों के रूप में नए शिष्य! सैद्धांतिक रूप से देखा जाय तो, लोकनायक द्वारा प्रतिपादित सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांतियाँ शामिल थीं, जिनमें राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति का नाम था. सम्पूर्ण क्रांति का प्रभाव इतना व्यापक था कि केन्द्र में किसी पहाड़ की तरह मजबूत कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया. जय प्रकाश नारायण जिनकी हुंकार पर नौजवानों का हुजूम सड़कों पर निकल पड़ता था, यह उनका ही प्रभाव था कि बिहार से उठी सम्पूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने-कोने में आग बनकर भड़क उठी और जेपी के नाम से मशहूर जयप्रकाश नारायण घर-घर में क्रांति का पर्याय बन गए. लालू प्रसाद, रविशंकर प्रसाद, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान या फिर सुशील मोदी, आज के सारे नेता उसी छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का हिस्सा थे जिन्होंने आगे चलकर भारतीय राजनीति को अपने-अपने ढंग से प्रभावित किया. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आपातकाल लोकतंत्र का काला अध्याय है, इससे देश को बहुत नुकसान हुआ है, लेकिन जो अच्छी बात हुई वह यह कि आने वाली पीढ़ियों को लोकतंत्र का असल मूल्य पता चला!
जेपी आंदोलन ने देश में राजनेताओं की एक नई पीढ़ी को जन्म दिया और यह नेतृत्व टीवी स्क्रीन्स या सोशल मीडिया जैसे माध्यमों का नहीं था, बल्कि यह मुल्क के लिए जीने-मरने का नेतृत्व था, जिसने शुरुआत में अपना जज्बा दिखाने की भरपूर कोशिश की. जेपी की एक और खासियत थी, जिसे सर्व स्वीकृत व्यक्तित्व भी कहा जा सकता है और यही वजह थी कि वह देश में बड़ा बदलाव ला सके. एक अलग नजरिये से देखा जाय तो सिर्फ एक सरकार को उखाड़ फेंकना भर ही जेपी का योगदान नहीं था, बल्कि नेहरू खानदान को राजनीतिक चुनौती देकर एक वास्तविक लोकतंत्र की रूपरेखा तैयार करने में भी इस महानायक की बड़ी भूमिका थी. दिलचस्प बात यह कि नेहरू गांधी परिवार से जेपी के सम्बन्ध प्रगाढ़ थे और 1929 में जब वे अमेरिका से लौटे और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम तेज़ी पर था तब उनका संपर्क गांधी जी के साथ काम कर रहे जवाहर लाल नेहरु से ही पहले हुआ. जेपी आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने वाले एक मशहूर पत्रकार के अनुसार जयप्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी का संबंध तो चाचा और भतीजी का था, लेकिन जब भ्रष्टाचार के मुद्दे को जेपी ने उठाना शुरू किया तो इंदिरा की एक प्रतिक्रिया से वो संबंध बिगड़ गया. इंदिरा ने एक अप्रैल, 1974 को भुवनेश्वर में एक बयान दिया कि जो बड़े पूंजीपतियों के पैसे पर पलते हैं, उन्हें भ्रष्टाचार पर बात करने का कोई हक़ नहीं है. कहा जाता है कि "इस बयान से जेपी को बहुत चोट लगी. इस बयान के बाद जेपी ने पंद्रह बीस दिनों तक कोई काम नहीं किया. खेती और अन्य स्रोतों से होने वाली अपनी आमदनी का विवरण जमा किया और प्रेस को दिया, साथ ही साथ इंदिरा गाँधी को भी भेजा." समझा जा सकता है कि ऐसे लोकनायक का नैतिक स्तर कितना ऊँचा रहा होगा. सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी और कुछ ही दिनों में जेपी का जनता पार्टी से भी मोह भंग हो गया, जिसके अनेक कारण थे. वो पटना में बीमार पड़े थे और जनता पार्टी के नेताओं ने उनकी कोई सुध नहीं ली. एक चर्चित वाकये के अनुसार जब एक पत्रकार ने मोरारजी को सलाह दी कि वो जेपी को देखने पटना जाएं, तो उन्होंने तुनक कर कहा, "मैं गाँधी से मिलने कभी नहीं गया तो ये जेपी क्या चीज़ है." हालाँकि, इंदिरा गाँधी ने इसके ठीक उल्टा किया और वो पटना में जेपी से मिलने गईं. ज़ाहिर है कि जेपी के जीते जी उनकी विचारधारा के गुण गाने वालों ने उनकी सुध नहीं ली तो उनके मरने के बाद तो उनकी विचारधारा का तिंया पांचा करने में उनके शिष्यों ने खूब ज़ोर लगाया! उनकी कर्मस्थली बिहार का स्वरुप बाद के दशकों में और भी बिगड़ता चला गया तो उनके शिष्यों ने जातिवादी राजनीति को चरम तक पहुँचाया.
जनसंघ के रूप में आरएसएस कैडर ने भी जेपी के आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई थी, और सरकार बनने के बाद अटल बिहारी बाजपेयी मंत्री भी बने, लेकिन जल्द ही वैचारिक टकराव धरातल पर आ गया और भाजपा के रूप में संघ ने अपना राजनैतिक कैडर अलग कर लिया. जेपी के खांटी समाजवादी शिष्य उसके बाद कांग्रेस के ही पिछलग्गू बने रहे और अब 21वीं सदी के दुसरे दशक में तो उनका समाजवादी नारा भी गायब होने के कगार पर है, प्रतीक रूप में भी यह नारा शायद ही बचे! हालाँकि, जेपी की नयी पैरोकार भाजपा ने इस बार जेपी की 113वीं जयंती ज़ोर शोर से मनाई है, लेकिन इसका मंतव्य सीधा सीधा बिहार विधानसभा चुनाव से जोड़ा जा रहा है. प्रधानमंत्री मोदी ने इस अवसर पर अपने भाषण में जेपी के व्यक्तित्व की बातें कीं, आपातकाल की बातें कीं और बताया कि लालकृष्ण आडवाणी और जॉर्ज फर्नांडीज को उन्होंने पहली बार करीब से आपातकाल के दौरान ही देखा था, तभी जेपी के पास जाने का मौका भी मिला. भाषण देने में महारत हासिल करने वाले नरेंद्र मोदी यहीं नहीं रुके, बल्कि अपने अनुभवों के आधार पर बताया कि जेपी बड़े सरल थे. उनकी आवाज धीमी ही रहती थी, लेकिन भीतर से उबलती हुई ज्वाला थी, देश में बदलाव लाने की! वे एक विचार से बंधे हुए नहीं थे, उन्हें चिंता नहीं थी कि दुनिया क्या कहेगी. जब जो सच लगा उसके लिए जी लिये. काश! नरेंद्र मोदी असल में जेपी की सम्पूर्ण क्रांति के उन सूत्रों को भी समझने की कोशिश करते, जिसे समाजवाद कहा गया. जेपी के असल शिष्यों ने तो उनके समाजवाद को जातिवाद और परिवारवाद बना डाला और देश के हालिया माहौल में भी संप्रदायवाद की गंध महसूस की जा रही है, जिसे किसी भी हाल में जेपी के सिद्धांतों से नहीं जोड़ा जा सकता है. राजनीति अपनी जगह है, समयानुसार इसकी चालें बदलती रही हैं, लेकिन अगर प्रकाश की जय करना है तो जयप्रकाश के सिद्धांतों से हमें सीख लेनी ही होगी और वह उनके छद्म शिष्यों के वश की बात तो नहीं ही है.
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