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कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत का अटल-स्वप्न

जम्मू कश्मीर सदा से ही भारतवासियों के गले की हड्डी रहा है. हालाँकि, वर्ष 1989 में शुरु हुए घाटी में सशस्त्र विद्रोह को 1996 में नियंत्रित कर लिया गया और चरमपंथियों को आत्मसमर्पण के बाद भारतीय सुरक्षा बलों के सहयोगियों के तौर पर सक्रिय करने की नीति अपनाई गई ताकि चरमपंथ का मुकाबला किया जा सके. बावजूद इसके इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि तमाम अलगाववादी घाटी में आज भी सक्रीय हैं और पाकिस्तान परस्त नीतियों को अंजाम देने में जुटे हुए हैं. यही नहीं, इस घाटी की यह भी मुख्य समस्या है कि जबसे केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है, तबसे पड़ोसी देश पाकिस्तान गला फाड़-फाड़कर संयुक्त राष्ट्र संघ और दुसरे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत विरोधी रूख को परवान चढाने में लगा हुआ है. ऐसी परिस्थितियों में, किसी कठिनाई को कार्य करके किस प्रकार दूर किया जाता है, इस बात के लिए आने वाली पीढ़ियां नरेंद्र मोदी को सदियों तक याद करती रहेंगी. एक तरफ उनके विरोध में तमाम बुद्धिजीवी कमर कसे हुए हैं, लेकिन दूसरी ओर बेपरवाह होकर वह अपने क़दमों को मजबूती से बढ़ाते जा रहे हैं. इसी कड़ी में, अटल बिहारी वाजपेयी के विकास के मंत्र ‘कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत’ को रेखांकित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जम्मू कश्मीर के लिए 80 हजार करोड़़ रुपये के मेगा पैकेज की घोषणा की है और साथ ही साथ इस राज्य को एक नये, आधुनिक, प्रगतिशील और खुशहाल प्रदेश में बदलने का संकल्प दुहराया है. 

आपको याद हो तो पिछली दीपावली को नरेंद्र मोदी कश्मीरियों के बीच थे और इस बार ठीक दीपावली के पहले प्रधानमंत्री की इस बड़ी घोषणा ने घाटी के बारे में उनकी प्राथमिकता दर्शाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. अपनी मजबूत इच्छाशक्ति दर्शाते हुए पीएम ने साफ़ कहा कि "कश्मीर पर मुझे इस दुनिया में किसी की सलाह या विश्लेषण की जरूरत नहीं है, बल्कि अटल जी के तीन मंत्र इसके लिए काफी हैं. आम भारतीय की भावनाओं को उकेरते हुए प्रधानमंत्री ने दुहराया कि कश्मीरियत के बिना हिन्दुस्तान अधूरा है और यह हमारी आन, बान और शान है. नहले पर दहला मारते हुए नरेंद्र मोदी ने अपनी छवि में प्रत्येक वर्ग के लिए सहिष्णुता का प्रदर्शन करते हुए कहा कि दिल्ली का खजाना ही नहीं, हमारे दिल भी आपके लिए हाजिर हैं. हालाँकि पीएम की यह कोशिश कइयों को नागवार गुजरी और कइयों ने प्रतिक्रिया व्यक्त करने में ज़रा भी देरी नहीं की. इसी कड़ी में उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट में लिखा, 'प्रधानमंत्री मोदी ने कश्मीर मुद्दे को रुपयों और पैसों में तोलने की गलती की है.' अब सवाल यह है कि प्रधानमंत्री ने गलती की है या विपक्षी नेताओं की टांग खींचने वाली आदत गलत है, क्योंकि कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत का 'अटल-स्वप्न' तो सबको साथ लेकर चलने में ही है. ज़ाहिर है कि एक के बाद एक मुसीबतों से गुजर रही घाटी को ऐसे ही सच्चे प्रयासों की आवश्यकता है, जिससे पिछले दो दशकों से परेशान आवाम को राहत मिल सके. रोजी-रोजगार और शांति के साथ अगर यह राज्य विकास के पथ पर आगे बढे तो फिर इससे बढ़कर कोई दूजी बात नहीं! और हाँ! इस क्रम में मुफ़्ती सरकार के पहले जो भी गलतियां की गयी हैं, उन्हें दुहराने से बचने का प्रयास करना और उससे बढ़कर सुधारने का प्रयास होना ही चाहिए. 

पीएम ने इस सन्दर्भ में ठीक ही कहा कि जम्मू कश्मीर में 1947 में आए पश्चिम पाकिस्तान के शरणार्थियों का पुनर्वास और राज्य से विस्थापित कश्मीरी पंडितों की सम्मानजनक वापसी एवं पुनर्वास उनकी सरकार का सबसे महत्वपूर्ण दायित्व है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने तत्काल ही इसे साफ करते हुए कहा कि राज्य के लिए घोषित 80 हजार करोड़़ रुपये के पैकेज के तहत कश्मीरी पंडितों की पुनर्वापसी प्रमुखता से शामिल होगी. गौरतलब है कि "1947 के विस्थापित हों या कश्मीर से विस्थापित पंडित, उनकी हमेशा से यह मांग है कि सभी के पुनर्वास और सम्मान की जिंदगी की व्यवस्था की जाए. हमारे देश की यह बिडम्बना रही है कि अगर आप मुस्लिम समुदाय की बात करते हैं तो आप सेक्युलर हैं और आपने अगर गलती से भी हिन्दू या सिक्खों पर हुए अत्याचारों की बात उठायी तो आप 'साम्प्रदायिक' हो जाते हैं! नरेंद्र मोदी इस मामले में सर्वोत्तम नीति अपना रहे हैं 'सबका साथ, सबका विकास'. उन्होंने कहा भी ‘‘जम्मू कश्मीर को जो मुश्किलें झेलनी पड़ी, वो हिन्दुस्तान के अन्य राज्यों को नहीं झेलनी पड़ी. 1947 में लाखों की तादाद में विस्थापित :तत्कालीन पश्चिमी पाकिस्तान से: इस भूभाग पर आए. 15 से 20 प्रतिशत जनसंख्या यहां विस्थापित के रूप में है. यह छोटी वेदना नहीं है, बड़ी पीड़ा है. निश्चित रूप से आने वाले समय में प्रधानमंत्री द्वारा घोषित राशि जम्मू कश्मीर की समस्याओं को दूर करने में एक महत्वपूर्ण कदम साबित होगी. जहाँ तक दुसरे प्रयासों की बात है तो अब तक विरोध का झंडा उठाये संगठनों के साथ अंदर या बाहर की बातचीत होती रहनी चाहिए, ताकि वह विरोध का झंडा छोड़कर मुख्यधारा की राजनीति में शामिल हो सकें. वैसे भी, हुर्रियत जैसे तमाम धड़े प्रदेश की चुनावी राजनीति में पिछले दरवाजे से अपने कैंडिडेट खड़े करते रहे हैं या समर्थन करने के रास्ते चलने का प्रयत्न करते हैं. उन जैसे लोगों के विरोध को कश्मीर का एक भी व्यक्ति सहयोग न करे, इस बात का प्रयत्न घाटी की सभी समस्याओं का अपने आप में हल है. प्रधानमंत्री का बड़ा प्रयास इस दिशा में दूरगामी महत्त्व का कदम है.

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