राधिका जार जार रो रही थी. उसकी बड़ी बेटी सोनू उसे चुप कराती हुई कह रही थी, मम्मी तुम्हें स्टेज पर बोलना है. इतना रोने पर कैसे बोल पाओगी?
उसकी सास की बरसी थी और इस दूसरी बरसी पर उसकी लिखी पहली पुस्तक 'कर्त्तव्य' का उद्घाटन भी था.
यूं सास बहुओं के झगड़े मशहूर होते हैं और टेलीविजन पर सास-बहु की लड़ाइयों के किस्से उसके निर्माताओं को बड़ी मोटी कमाई कराते हैं.
पर राधिका और उसकी सास स्व. प्यारी देवी का सम्बन्ध किसी माँ बेटी से कम न था.
कम बोलने वालीं प्यारी देवी की दो और बहुएं थीं, पर उन्हें उनसे कुछ खास लगाव नहीं हो सका था. शहर में रहने वाली दोनों बहुओं से सप्ताह में एक बार बात हो जाए तो ठीक, नहीं हो तो भी कोई गम नहीं. पर मजाल जो राधिका से वह किसी दिन बात किये बिना रह पाएं.
वैसे तो औरतों के आपसी समीकरण की समझ किसे होती है, पर उन दोनों के बीच अगाध प्रेम का शायद एक कारण यह भी था कि अपनी शादी के बाद अपनी सास के साथ अधिक समय तक राधिका ही गाँव पर रही थी, जबकि अन्य दो बहुएं शादी के बाद एक महीने भी न रुक सकीं.
हालाँकि बच्चों के बड़े होने पर उनकी पढाई के लिए राधिका को भी शहर आना पड़ा, पर वह महीने, दो महीने में गाँव का एक चक्कर लगा लेती थी.
सास ने भी कभी शिकायत नहीं की. शायद बदलते ज़माने में शिक्षा की जरूरत वह भी समझती थीं.
इस बीच प्यारी देवी लकवाग्रस्त हो गयीं और उनके शरीर का एक हिस्सा सुन्न हो गया.
बहुओं समेत, सभी रिश्तेदार भी हॉस्पिटल पहुंचे.
धीरे-धीरे रिश्तेदारों के बाद बहुएं भी बच्चों की पढाई के नाम पर खिसक गयीं, सिवाय राधिका के.
तुम भी जाओ राधिका, कहते हुए प्यारी देवी की आँखों से आंसू छलक पड़े.
हॉस्पिटल के उस पतले बिस्तर पर सास बहु फफक पड़ीं. उन दोनों को रोता देखकर उसके पति और उसकी बेटी की आँखें भी छलछला गयीं.
ऐसे में प्यारी देवी शहर जाने को तैयार हो गयीं, किन्तु राधिका के ससुर गाँव को किसी हाल में छोड़ने को तैयार न थे.
कहते थे- इस गाँव से मेरी अस्थियां ही जाएँगी, तुम्हें जाना हो तो जाओ.
अब भला अपने बूढ़े पति को इस अवस्था में प्यारी देवी कैसे छोड़तीं. तब राधिका ने कठोर फैसला लेते हुए अपनी बेटी को पति संग शहर भेज दिया और खुद गाँव रुक गयी.
भगवान ने प्यारी देवी को चार महीने में ही अपने पास बुला लिया, लेकिन इस चार महीने में सास बहु के संबंधों ने नयी ऊंचाइयां छू लीं. पढ़ी लिखी राधिका ने सास द्वारा कहे गए अनेक किस्सों को अपनी कलम से सहेजा और उसका लिखा संकलन बनकर तैयार हो गया. उसकी पहली संकलित किताब का औपचारिक उद्घाटन सास की दूसरी बरसी पर होना था. मानवीय भावनाओं से लबरेज इस किताब में बेस्टसेलर होने की सभी संभावनाएं मौजूद थीं. ऊपर से हिंदी के नामी समीक्षकों ने इस पुस्तक को दिल खोलकर सराहा था.
किताब के औपचारिक उद्घाटन पर उसने बस इतना ही कहा कि 'इस किताब की लेखिका मैं नहीं, बल्कि मेरी सहेली स्व.प्यारी देवी हैं, मैं तो बस उनके अनुभव की अनुवादक हूँ'
और वह छोटा सा हाल तालियों से गूँज उठा.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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