अरे साहब! उस रिक्शे पर मत बैठो, उसने चढ़ा रखी है. मुझे अपनी कंपनी के काम से मीटिंग करने के बाद मेट्रो स्टेशन तक जाना था. थोड़ी दूर का ही रास्ता था, लेकिन अनजान होने के कारण मैंने रिक्शा लेना ठीक समझा. शाम का समय था.
उस मरियल से रिक्शे वाले ने कातर दृष्टि से मुझे देखा.
उसने सचमुच पी रखी थी!
रिक्शे पर बैठते समय एक भभका सा नाक पर लगा, पर चाहकर भी मैं रिक्शे से उतर नहीं पाया. कालोनी के अंदर की सडकों पर वह अपनी तरफ से संभाल कर ही चलाता रहा, किन्तु मुझे उसको लगातार टोकना पड़ा.
धीरे भाई, बाएं ले लो, आराम से. ...
कालोनी के बाहर रिक्शा में रोड पर आ गया था.
मेट्रो स्टेशन सामने ही दिख रहा था. मैं सावधानी वश उतर गया और उसको किराया देने के लिए जेब में हाथ डाला. संयोग से छुट्टे पैसे थे नहीं. पास की दुकानों पर भी पूछ आया, पर नहीं. मैंने उससे कहा कि मेट्रो स्टेशन तक आ जाओ, वहां अपना मेट्रो कार्ड रिचार्ज करा कर तुम्हें पैसे देता हूँ.
हम रॉन्ग साइड थे.
मैं फूटपाथ पर पैदल और वह मेरे पीछे रॉन्ग साइड से ही आने लगा. अचानक एक ट्रैफिक हवलदार प्रकट होकर बिना कुछ पूछे उसके रिक्शे की हवा निकालने लगा.
दिल्ली में ट्रैफिक वाले ऐसे ही प्रकट होते हैं, मानो किसी ने उनका आह्वान किया हो.
खैर, वह रिक्शे वाला सहम सा गया. दारू चढ़ा रखी थी, इसलिए अपना कुछ बचाव भी नहीं कर पाया. उसने रिक्शा वापस मोड़ लिया. मैं असहाय भाव से उसे देखता रहा.
मैं भी जल्दी से स्टेशन में कस्टमर केयर पर गया, वहां भी लाइन लगी थी.
खैर, कुछ देर में पैसे छुट्टे हो गए. मैं जल्दी से रिक्शे वाले की तरफ भागा कि उस बिचारे को पैसे तो दे दूँ.
वहां दूसरे रिक्शे वाले खड़े थे, पर वह नजर नहीं आया. मैंने एक रिक्शे वाले को उसकी पहचान बताई, लेकिन वह कन्फ्यूज हो गया. फिर उससे पूछा कि रिक्शे, साइकिल की दूकान आस पास में है क्या? पर दूकान दूर थी. मैंने उसे किराया पकड़ा दिया और उस रिक्शे वाले को देने की बात कही.
पास से दो-तीन और रिक्शे वाले आ गए और कहने लगे कि नहीं भैया जी! आप इसे मत दीजिये, आप भले आदमी हो, पर यह नहीं देगा.
उस बिचारे ने सबकी बात सुनकर पैसा मेरे हाथ पर वापस रख दिया.
मैं ऊहापोह में पड़ गया और यह सोचकर कि देश में रिक्शेवाले अभी बेईमान नहीं हुए हैं, उसी के हाथ पर पुनः पैसे देते हुए कहा कि आप को मिल जाए तो उसे दे देना नहीं तो आप रख लेना.
वह नहीं, नहीं करता रहा, लेकिन मैंने अधिकारपूर्वक कहा तो वह इंकार न कर सका. फिर मैं मेट्रो कि तरफ लौट पड़ा... पर बड़ी देर तक वह दोनों रिक्शेवाले दिमाग में घूमते रहे.
पता नहीं यह क्या था, पर मन कुछ हद तक ही सही संतुष्ट था!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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