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शांति स्वरूप भटनागर को याद करना जरूरी है, क्योंकि...

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इसरो द्वारा 104 उपग्रहों को एक साथ लांच करके पूरी दुनिया में भारत की ताकत का डंका बजा दिया गया है. इसरो के इस मुकाम को हासिल करने के लिए सैकड़ों वैज्ञानिकों ने प्रयोगशालाओं में न जाने कितने दिन-रात एक किये होंगे. पर क्या आपको पता है, इन सब शोध और विकास की शुरुआत में डॉ शांति स्वरूप भटनागर का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. बेहद दिलचस्प है कि रसायन विज्ञान में फेल होने वाले डॉ. भटनागर भारत के प्रयोगशालाओं के जनक माने जाते हैं. 
आप कल्पना कर सकते हैं कि आज के समय में हमारी शिक्षा व्यवस्था किस दिशा में जा रही है, जहाँ बच्चों की योग्यता का मापन उनके द्वारा पाए गए मार्क्स से ही किया जाता है. ऐसे में शांति स्वरुप भटनागर जैसे साइंटिस्ट्स का ज़िक्र करने से वास्तविक रूप से प्रतिभावान लोगों को आगे बढ़ने में निश्चित रूप से मदद मिलने ही वाली है. 
Shanti Swaroop Bhatnagar Biography in Hindi, New, Pic: thefamouspeople.com
इसलिए भी शांति स्वरूप भटनागर को याद करना जरूरी है. आज के हमारे वैज्ञानिकों की उपलब्धियाँ 'ख़ास' हैं, किन्तु डॉ. भटनागर का योगदान अतुलनीय है. दयाल सिंह ट्रस्ट की छात्रवृति से 1921 में लन्दन विश्वविधालय से विज्ञान में डॉक्टरेट की डिग्री पाने वाले डॉ भटनागर सीएसआईआर के पहले मुख्य निदेशक थे. डॉ. भटनागर के योगदान को याद करने के लिए सीएसआईआर द्वारा 1958 से प्रत्येक साल डॉ. शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार युवा वैज्ञानिकों को विज्ञान में महत्वपूर्ण योगदान के लिए दिया जाता है. 

अगर डॉ. भटनागर के जीवन के संघर्षों को याद करें तो, मात्र 8 महीने की उम्र में ही उनके सर से पिता का हाथ उठ गया था. उनके नाना अभियंता थे, जिन्होंने उनके अंदर विज्ञान को लेकर उत्सुकता का बीज बोया. बचपन के छोटे-छोटे प्रयोगों से ही महान वैज्ञानिक बनने की प्रेरणा मिली और ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बच्चे की प्रतिभा निखारने का पूरा अवसर मिला इन्हें. जाहिर है, आज के समय में किताबों के बोझ तले दबे 'बचपन' को खेल-खेल में विज्ञान की ओर प्रवृत्त करने की ओर ध्यान देना चाहिए. 
आपको जानकर हैरानी होगी कि महान वैज्ञानिक के तौर पर ख्याति अर्जित करने वाले डॉ. भटनागर पर कभी लेखनी का भूत सवार था. 1911 में इन्होंने उर्दू में एक नाटक लिखा ‘करामाती’, जिसका मंचन 'सरस्वती स्टेज सोसाइटी' में अंग्रजी भाषा में हुआ. इस नाटक को उस वर्ष का 'सर्वश्रेष्ठ नाटक’ का पुरस्कार भी मिला था. 
कहते हैं अगर डॉ. भटनागर वैज्ञानिक नहीं होते तो शायद बहुत बड़े साहित्यकार होते. आगे की इनकी यात्रा भी कुछ कम दिलचस्प न रही. लन्दन से लौटने के बाद बीएचयू में रसायन विज्ञान के  प्रोफेसर के तौर पर 3 साल तक इस वैज्ञानिक ने सेवा प्रदान किया. बताते चलें कि वहाँ भी उनकी कलम नही रुकी और बीएचयू के लिए तब उन्होंने 'कुलगीत' की रचना की थी, जिसे उच्च कोटि की हिंदी कविता का उदाहरण माना जाता है. फिर पंजाब यूनिवर्सिटी में फिजिकल केमेस्ट्री के प्रोफेसर के साथ साथ यूनिवर्सिटी केमिकल लैबोरेट्रीज के डायरेक्टर के पद पर डॉ. भटनागर कार्यरत रहे, जिसे इनकी जिंदगी का बहुत ही अहम समय माना जाता है. वहीं उन्होंने रिसर्च करना शुरू किया था. उस समय उनके रिसर्च अलग-अलग देशी-विदेशी संगठन के औद्योगिक परेशानियों के समाधान पर केंद्रित था. वहाँ डॉ. भटनागर 19 साल अनवरत सेवा देने के बाद पूरी तरह शोध के क्षेत्र में आ गए. 

Shanti Swaroop Bhatnagar Biography in Hindi, New, Pic: photodivision.gov.in
1940 में कोलकाता के अलीपुर में प्रयोगशाला तैयार किया जिसे बोर्ड ऑफ़ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (BSIR) नाम दिया गया. वहाँ 2 साल निदेशक रहने के बाद 1942 में कौंसिल ऑफ़ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च की नींव रखी. उसके बाद उन्होंने कई प्रयोगशालाओं की स्थापना की. उनकी खोज ने कच्चे तेल की खुदाई की कार्यपद्धति को उन्नत बनाया. फिजिकल कमेस्ट्री, मैग्नेटो केमिस्ट्री और एप्लाइड केमिस्ट्री में उनकी खोज सम्माननीय मानी जाती है. इतना ही नहीं, डॉ. भटनागर भारत सरकार के शिक्षा विभाग के सलाहकार भी रहे थे. यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (University Grants Commission) का पहला सभापति भी डॉक्टर भटनागर को नियुक्त किया गया था. 
डॉक्टर भटनागर के सराहनीय योगदान के लिए उन्हें भारत से लेकर ब्रिटेन तक सम्मान मिला, किन्तु सबसे महत्वपूर्ण उनका प्रेरक जीवन रहा. वैसे तो 1943 में यूनाइटेड किंगडम के मशहूर रॉयल सोसायटी के सदस्य चुने जाने से लेकर 1954 में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से उन्हें नवाजा गया था, पर युवाओं को प्रेरित करने से लेकर लेखकीय प्रतिभा के लिए उन्हें याद किया जाना बेहद ख़ास है. 
1955 में शान्ति स्वरूप भटनागर के निधन के बाद उनके नाम से पुरस्कार देने की घोषणा की गयी, जो आप ही उनकी खासियत को बयान करता है. कहते हैं ऊँची ईमारत में नींव के पत्थरों को कोई नहीं देखता, किन्तु डॉ. भटनागर जैसी सख़्शियतें नींव में होने के बावजूद अपनी चमक न केवल इस युग में बल्कि आने वाले युग में भी बिखेरती रहेंगी, इस बात में दो राय नहीं...  

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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