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हिन्दू नववर्ष की महिमा एवं वर्तमान चुनौतियाँ

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त्यौहारों की धरती भारत में "हिन्दू नववर्ष" का खास महत्त्व है. चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को वर्ष प्रतिपदा या युगादि भी कहा जाता है. इस दिन हिन्दु नववर्ष का आरम्भ होता है. कहते हैं शालिवाहन नामक एक कुम्हार-पुत्र ने मिट्टी के सैनिकों की सेना से शत्रुओं का पराभव किया था. इस विजय के प्रतीक रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ इसी दिन से होता है. आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में ‘उगादि‘ और महाराष्ट्र में यह पर्व 'ग़ुड़ी पड़वा' के रूप में मनाया जाता है. किवदंतियों के अनुसार इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि का निर्माण किया था, तो इसी दिन से नया संवत्सर (नवसंवत्सर) भी शुरू होता है. शुक्ल प्रतिपदा का दिन चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस माना जाता है. जीवन का मुख्य आधार 'वनस्पतियों को सोमरस' चंद्रमा ही प्रदान करता है और इसे ही औषधियों और वनस्पतियों का राजा कहा गया है. संभवतः इसीलिए इस दिन को वर्षारंभ माना जाता है.

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देश भर में प्रचलित परम्पराओं की बात करें तो आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में घरों को आम के पेड़ की पत्तियों के बंदनवार से सजाया जाता है. इसी तरह ‘उगादि‘ के दिन ही पंचांग भी तैयार होता है. दिलचस्प है कि महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने इसी दिन से सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना करते हुए ‘पंचांग ‘ की रचना की थी. कई लोगों की मान्यता है कि इसी दिन भगवान राम ने बालि के अत्याचारी शासन से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलाई थी. राजा बालि के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने तब घर-घर में उत्सव मनाकर ध्वज (ग़ुड़ियां) फहराए थे. उसी की याद में आज भी घर के आंगन में ग़ुड़ी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र प्रदेश में प्रचलित है. दक्षिण के राज्यों की बात करें तो इस अवसर पर आंध्र प्रदेश में घरों में ‘पच्चड़ी/ प्रसादम‘ बांटा जाता है. कहा जाता है कि इसका निराहार सेवन करने से मानव निरोगी बना रहता है. यूँ तो आजकल आम बाजार में मौसम से पहले ही आ जाता है, किन्तु आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में इसी दिन से 'आम' खाया जाता है. पारंपरिक रूप से नौ दिन तक मनाया जाने वाला यह त्यौहार दुर्गापूजा के साथ-साथ, रामनवमी को राम और सीता के विवाह के साथ सम्पन्न होता है. 

ऐतिहासिक रूप से इसकी पृष्ठभूमि में अनेक कथाएं सुनने को मिलती हैं, किन्तु यह एक अजीब बिडम्बना है कि आज के आधुनिक समय में हमारी स्वस्थ भारतीय परम्पराओं को एक तरह से तिलांजलि ही दे दी गयी है. पाश्चात्य सभ्यता के 'न्यू ईयर' को हैपी बनाया जाने लगा है, किन्तु वैज्ञानिक रूप से तथ्यपरक होने के बावजूद हिन्दू नववर्ष को लोग महत्वहीन करने की कोशिशों में जुटे रहते हैं. 31 दिसंबर की आधी रात को नव वर्ष के नाम पर नाचने गाने वाले आम-ओ-ख़ास को देखकर आखिर क्या तर्क दिया जा सकता है! 

भारतीय सांस्कृतिक जीवन का विक्रमी संवत से गहरा नाता है, इसलिए  इस दिन लोग पूजापाठ करते हैं और तीर्थ स्थानों पर जाते हैं. धार्मिक लोग तो पवित्र नदियों में स्नान करते ही हैं, साथ में मांस-मदिरा का सेवन करने वाले लोग भी इस दिन तामसी पदार्थों से दूर रहते हैं. पर विदेशी संस्कृति के प्रतीक 1 जनवरी को मनाये जाने वाले नव वर्ष के आगमन से घंटों पूर्व ही मांस मदिरा का प्रयोग, अश्लील कार्यक्रमों से नयनाभिराम तथा अन्य बहुत कुछ ऐसा प्रारंभ हो जाता है जिससे अपने देश की संस्कृति का दूर-दूर तक रिश्ता नहीं रहा है. एक तरफ विक्रमी सम्वत के स्मरण मात्र से ही विक्रमादित्य और उनके विजय अभियान की याद ताजा होती है, तो भारतीयों का मस्तक गर्व से ऊंचा होता है,  जबकि ईसवी सन के साथ ही गुलामी द्वारा दिए गए अनेक जख्म हरे होने लगते हैं. पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को जब किसी ने पहली जनवरी को नव वर्ष की बधाई दी तो उन्होंने उत्तर दिया था- किस बात की बधाई? मेरे देश और देश के सम्मान का तो इस नव वर्ष से कोई संबंध नहीं! काश कि हम सब भी यह समझते!

भारतीय त्यौहारों के सन्दर्भ में बात कही जाय तो न सिर्फ हिन्दू नव वर्ष, बल्कि प्रत्येक भारतीय त्यौहार हमारी सभ्यता से गहरे जुड़े हुए हैं और हमारे भूत, यानि हमारे बुजुर्ग, वर्तमान यानि युवा पीढ़ी और भविष्य यानि बच्चों के बीच में गहरा सामंजस्य स्थापित करते हैं. भारतीय त्यौहारों में एक संतुलन तो पाश्चात्य त्यौहारों में असंतुलन, एकाकीपन और यदि थोड़ा आगे बढ़कर कहा जाय तो शराब, शबाब इत्यादि के प्रयोगों से भारतीय शास्त्रों में वर्णित 'राक्षसी-प्रवृत्ति' तक का दर्शन होता है. इसके अतिरिक्त हमारे हिन्दुस्थान में सभी वित्तीय संस्थानों का नव वर्ष भी 1 अप्रैल से प्रारम्भ होता है, किन्तु कुचक्र रचने वालों की दुर्बुद्धि देखिये कि इस 1 अप्रैल को उन्होंने 'मूर्ख दिवस' का नाम दिया हुआ है. सच कहा जाए तो इस तरह के षड्यंत्रों और कुचक्रों से भारतीय सभ्यता को बदनाम करने में किसी प्रकार की कोर-कसर नहीं छोड़ी गयी है. भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि का सम्बन्ध भी चैत्र (अप्रैल) महीने से ही जुड़ा हुआ है. चैत्र में फसलों की कटाई होने के बाद किसानों के पास धन आता है और जब उनके पास धन आएगा तो निश्चित रूप से खुशहाली उनके कदम चूमेगी. बड़े दुःख के साथ यह कहना पड़ रहा है कि देश भर के किसान आत्महत्या कर रहे हैं और देश में बनी नयी सरकार भी उनके लिए कुछ ख़ास नहीं कर पा रही है. ऐसी स्थिति में देश के किसान भला किस प्रकार हिन्दू नव वर्ष में खुशहाली का द्वार खोल पाएंगे, यह एक चिंतनीय विषय है. सच बात तो यह है कि किसानों के हित के ऊपर ध्यान देना लगभग बंद ही कर दिया गया है. हाँ, कभी कभार उनके ऊपर कर्ज माफ़ी को लेकर दया दृष्टि जरूर दिखलाई जाती है, किन्तु उनकी व्यथा कथा दूर करने के दीर्घकालिक उपाय कदापि नहीं किये जाते है.

हिन्दू नववर्ष को अगर प्रकृति के लिहाज से देखें, तो चैत्र शुक्ल पक्ष आरंभ होने के पूर्व ही प्रकृति नववर्ष आगमन का संदेश देने लगती है. प्रकृति की पुकार, दस्तक, गंध, दर्शन आदि को देखने, सुनने, समझने का प्रयास करें, तो हमें लगेगा कि प्रकृति पुकार-पुकार कर कह रही है कि नवीन बदलाव आ रहा है, नववर्ष दस्तक दे रहा है. वृक्ष अपने जीर्ण वस्त्रों (पुराने पत्तों) को त्याग रहे हैं, तो वायु (तेज हवाओं) के द्वारा सफाई अभियान भी चल रहा है. फिर वृक्ष पुष्पित होते हैं, आम बौराते हैं, सरसों नृत्य करता है और यह सब मिलाकर वायु में सुगंध और मादकता की मस्ती घुल सी जाती है. इस प्रकार के समृद्ध नववर्ष को छोड़कर यदि हम किसी और तरफ भागते हैं तो इसे हमारी अज्ञानता के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता है. जरूरत है इस अज्ञानता से हर एक को प्रकाश की ओर बढने की. शायद तभी हिन्दू नववर्ष की सार्थकता पुनः स्थापित होगी और इस सार्थकता के साथ समृद्धि, खुशहाली और विकास अपने पूर्ण रूप में प्रकाशमान होंगे.

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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