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उत्तर प्रदेश चुनाव में सिमटी समूची 'राजनीति'

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चुनावी बेला में अंतिम लड़ाई होने वाली है, तलवारें खिंच चुकी हैं. सभी पार्टियां जी-जान से उत्तर प्रदेश में अंतिम चरण के चुनाव के लिए अपनी ताकत झोंक चुकी हैं. खासकर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अति सक्रियता से यह चुनाव लोकसभा के चुनाव से कम रोमांचक नहीं लग रहा है. ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रधानमंत्री के लिए उत्तर प्रदेश की जंग जीतना उनके अब तक के केंद्रीय कामकाज पर एक जनादेश के रूप में संकेत हो सकता है. इस चुनाव के अंतिम चरण की अहमियत का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि भाजपा के 50 से अधिक मंत्री बनारस में डेरा डाले हुए हैं, तो पत्र-पत्रिकाओं में कई ऐसे कार्टून छप रहे हैं, जिसमें बनारस का कोई निवासी अल सुबह अपने दरवाजे पर दस्तक होते ही कहता है कि वह दूध वाला ही नहीं मोदी जी भी हो सकते हैं, इसलिए दरवाजा जल्दी खोलो!

UP Election 2017, Hindi Article, Modi, Rahul,Akhilesh, Mayawati (Pic: hindustantimes.com)
कहने का तात्पर्य यह है कि इस समय बनारस बेहद हाईटेक चुनाव की गवाही दे रहा है. सवाल सिर्फ बनारस का ही नहीं है. इसकी तह में जाकर देखते हैं तो पाते हैं कि एक तरह से वाराणसी को पूर्वांचल की राजधानी ही कहा जाता है, क्योंकि यूपी की ऑफिशियल राजधानी बेशक लखनऊ हो, किन्तु पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग यात्रा, खरीददारी या फिर किसी अन्य सुविधा के लिए बनारस का ही रूख करते हैं. इसलिए बनारस में जो भी गतिविधियां हो रही हैं, उसकी चर्चा पूर्वांचल में गांव-गांव तक हो रही है, तो पीएम मोदी का क्षेत्र होने की वजह से इसकी चर्चा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया तक में हो रही है. 

भाजपा का तो यहां काफी कुछ दाव पर लगा ही हुआ है, क्योंकि बिहार चुनाव हारने के बाद अमित शाह के लिए यह किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है. हालाँकि, भाजपा अपनी रणनीति से अंतिम चरणों में बढ़त बनाती जरूर दिख रही है, जबकि तमाम ग्राउंड रिपोर्ट में शुरुआती चरणों में मायावती को बढ़त लेते हुए दिखाया गया था. 
इसी क्रम में यदि अखिलेश और राहुल गांधी की बात करें तो दोनों के गठबंधन होते समय कुछ ऐसा लगा था, मानो चुनावी मैदान से यह सभी का सफाया कर देंगे, किंतु धीरे-धीरे यह ख़ुमार उतरता गया. इसके दो बड़े कारण माने जा सकते हैं, एक तो अखिलेश यादव को उम्मीद थी कि खुद मुलायम सिंह यादव सपा के चुनावी समीकरणों को दुरुस्त करने के लिए मैदान में पहलवान की तरह उतरेंगे, तो कांग्रेस भी अपने तुरुप के इक्के यानी प्रियंका गांधी को चुनाव प्रचार के लिए खुले तौर पर उतारेगी. देखा जाए तो सपा और कांग्रेस दोनों की तरफ से यह प्रयास नहीं किए गए और ऐसे में अखिलेश के कंधों पर कहीं ज्यादा भर आ गया. 
कमजोर पक्ष यह भी कि शिवपाल अखिलेश विवाद के बाद पार्टी के कई नेता दूसरी पार्टियों का दामन थाम चुके हैं, तो कई जगहों से भीतरघात की भी खबरें आयी हैं. वैसे भीतरघात हर पार्टी में खुलकर सामने आया है और कांग्रेस की बात करें तो इस पार्टी का प्रदेश में कोई ख़ास जनाधार तो बचा नहीं था, ऊपर से राहुल गांधी कोई खास करिश्मा कर ले जाएंगे, इस बात की उम्मीद शायद ही किसी को हो! वैसे चुनाव में जनता कब क्या कर दे, इसको लेकर अटकलें लगाना आसान नहीं है.

यदि समीकरणों की बात करें तो, कहा जा रहा है कि इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने सपा के कोर वोटर्स, यानी 'मुस्लिमों' को तोड़ने में काफी हद तक सफलता हासिल की है. इसे अतिशयोक्ति नहीं माना जाना चाहिए, आखिर 100 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतार कर मायावती ने बेहद मजबूत संदेश दिया है. 
अब उन मुस्लिम उम्मीदवारों को कोई धनाढ्य मुसलमान कहे या फिर जनाधार विहीन मुसलमान कहे, इससे कुछ खास फर्क पड़ने वाला नहीं है, क्योंकि उन सीटों पर मायावती का दलित वोट पूरी तरह से उन मुस्लिम उम्मीदवारों को ट्रांसफर हो जाएगा. वही मुस्लिम सीटों पर यह उम्मीदवार काफी पहले घोषित हो गए थे और ऐसे में उन्होंने जमीनी तौर पर अपने लिए समर्थन अवश्य ही जुटाया होगा. 
ऊपर से इमाम बुखारी और देवबंद के कुछ मुस्लिम धर्मगुरुओं ने मायावती को सपोर्ट देकर पत्ते खोल दिए हैं.  लब्बो-लुआब यह कि इस चुनाव में तीनों मुख्य पार्टियों के अपने मजबूत पक्ष हैं, तो कमजोर पक्ष भी हैं. 

भाजपा के कमजोर पक्ष की बात की जाए तो अमित शाह द्वारा तमाम दलबदलुओं को अपनी पार्टी में शामिल करने से यह व्यवस्था शुरुआत में काफी हद तक चरमरा गई थी तो विरोध खुल कर साथ पर आ गया था, वहीं पूर्वांचल में आदित्यनाथ योगी और चर्चित नेता वरुण गांधी की आंतरिक नाराजगी ने पार्टी की किरकिरी कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी. पर मानना पड़ेगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह से अमित शाह के डिसीजन के साथ खड़े हुए और उन्होंने दिन रात एक कर अमित शाह के डिसीजन को सही साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, उसने भाजपा को अंतिम समय में काफी मजबूती प्रदान की है. समाजवादी पार्टी के कमजोर पक्ष की बात करें तो अखिलेश की रणनीतियां का ग्राफ नीचे की तरफ ही गया है. हालाँकि, अपने ऊपर और यूपी के विकास कार्यों को लेकर उठे हर सवालात का जवाब इस युवा नेता ने वगैर धैर्य खोये दिया है. मायावती की पार्टी में वह अकेली 'स्टार' हैं, इसलिए उनकी मजबूती और कमजोरी वह खुद ही हैं. अगर उनका 'मुस्लिम कार्ड' चल गया तो वह छुपा रुस्तम साबित हो सकती हैं, क्योंकि शुरू से उन्होंने मुस्लिम और दलित वोटर्स की इंजीनियरिंग पर बड़ी बारीकी से कार्य करना शुरू किया था. 

यह तो रहा राजनीतिक समीकरण, किन्तु उत्तर प्रदेश चुनाव में प्रचार के दौरान तमाम राजनीतिक मर्यादाएं तो टूटी ही, एक दूसरे पर गाली गलौज से लेकर श्मशान, कब्रिस्तान, बिजली कटौती इत्यादि मुद्दों पर जिस तरह से आरोप-प्रत्यारोप किए गए, उसने चुनाव की गरिमा तो घटाई ही है. ले देकर गधों की राजनीति ने इसमें एक नया ही ट्विस्ट डाल दिया. 
जाहिर तौर पर राजनेताओं को समाजिक गरिमा के प्रति सचेत रहना होगा और यही एक बड़ी वजह है जिससे आने वाले दिनों में लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी, अन्यथा सरकारें तो बनती हैं और बिगड़ती भी हैं, किंतु रह जाता है तो उनका काम करने का अंदाज और राजनेताओं के साथ पार्टियों का जमीनी आधार. 
इसके साथ यह बात भी कई बात सच हो जाती है, जिसमें चुनाव परिणाम आने पर पता चलता है कि जनता तमाम आंकलनों और समीकरणों को ध्वस्त करते हुए अपना फैसला सुना देती है. लोकतंत्र की असल ख़ूबसूरती भी तो यही है और जनता इस ख़ूबसूरती को हर बार बचाती हुई आयी है और इस बार भी वही होगा, इस तथ्य में दो राय नहीं!

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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