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हाल फिलहाल हम कई खबरें सुन रहे हैं जिसके अनुसार सरकार केंद्रीय बैंक आरबीआई (RBI) से उसका रिजर्व पैसा मांग रही है. यह रकम कई लाख करोड़ों में है, जिसे देने से रिजर्व बैंक आनाकानी कर रही है तो सरकार से उसके टकराव की खबरें भी गाहे-बगाहे सामने आ रही है.
आइये इसे एक "वास्तविक कहानी" के माध्यम से समझते हैं!
एक 'काल्पनिक नाम' राकेश लेते हैं जो दिल्ली के किसी एक एरिया में घर खरीदना चाहता है. मन में यह विचार आने के बाद वह संबंधित क्षेत्र के एक डीलर के पास जाता है और उसे अपना 'बजट' बताता है. डीलर उस क्षेत्र में बने हुए कई 'बिल्डर फ्लोर' राकेश को दिखाता है. कुछ समय बाद राकेश और उसकी पत्नी रंजना एक फ्लोर को लेने पर हामी भर देते हैं. राकेश और रंजना की मीटिंग प्रॉपर्टी डीलर द्वारा बिल्डर से कराई जाती है और एक निश्चित अमाउंट में सौदा तय हो जाता है. दोनों तुरंत ही 'टोकेन' दे देते हैं और लोन अप्लाई करने की बात कहते हैं.
कुछ दिनों बाद तय रकम का 10% बयाना भी हो जाता है और बिल्डर एक निश्चित दिन देकर स्टाम्प पेपर पर एग्रीमेंट साइन कर देता हैं.
चूंकि प्रॉपर्टी डीलर के पास अक्सर इसी तरह के केस आते हैं, क्योंकि अक्सर नौकरी पेशा व्यक्ति के पास घर लेने के लिए 'एकमुश्त रकम' नहीं होती है. जाहिर तौर पर उन्हें लोन कराना ही पड़ता है. डीलर के पास लोन कराने वाली कई कंपनियों के एजेंट का नंबर होता है और वह राकेश और रंजना से उन 'लोन-एजेंट्स' की बात कराता है.
एनबीएफसी यानी नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनीज में कई प्राइवेट कंपनियों को राकेश फोन करता है तो उसे पता चलता है की कुछ कंपनियां मार्केट में फिलहाल लोन दे ही नहीं रही हैं. दूसरी प्राइवेट कंपनी से जब राकेश बात करता है तो उसे पता चलता है कि उस लोन देने वाली कंपनी का रेट आफ इंटरेस्ट 9% से बढ़कर सीधे 11% हो चुका है. ऐसे में राकेश जब अपनी ईएमआई (EMI) कैलकुलेट करता है तो उसके लिए लोन अमाउंट पर इस दो पर्सेंट का अंतर कई हजार पड़ता दिखता है. अपनी सेलरी देखते हुए राकेश इतनी इएमआई देने में असमर्थ होता है, इसलिए वह प्राइवेट कंपनियों से लोन लेने पर हाथ खड़ा कर देता है.
इसके बाद प्रॉपर्टी डीलर राकेश की बात एक अर्ध सरकारी बैंक से कराता है और उसके एजेंट की सीधी डिमांड होती है कि वह एक निश्चित पर्सेंट कुल लोन अमाउंट का लेगा, तब वह लोन कराएगा. चूंकि राकेश के पास और कोई विकल्प नहीं होता है इसलिए वह अर्ध-सरकारी बैंक से लोन कराने पर सहमत हो जाता है.
कई दिन की भागदौड़ के बाद राकेश अर्ध-सरकारी बैंक के एजेंट को सारे ज़रूरी कागज़ात दे देता है. साथ ही प्रॉपर्टी की वैल्यूएशन, अड्रेस - जॉब की वेरिफिकेशन, नक्शा इत्यादि तैयार हो जाता है. कुछ दिनों में लोन-सैंक्शन भी हो जाता है किंतु लोन के डिसबर्समेंट में देरी पर देरी होने लगती है.
बहुत कुरेदने पर लोन एजेंट बताता है कि बैंक के पास कैश नहीं है, इसीलिए डिसबर्समेंट रुक जा रही है. फिर यह भी खबर आती है कि तमाम एनबीएफसी (NBFC) सरकार से गुजारिश कर रहे हैं ताकि एक्स्ट्रा कैश मिले और वह जरूरतमंदों को लोन दे सकें. राकेश और रंजना को पता चलता है कि लोन मिलने में इसलिए भी दिक्कत आ रही है क्योंकि उन कंपनियों के पास लिक्विडिटी है ही नहीं!
यही नहीं तमाम लोन कंपनियां जो अपना लोन कारोबार रोके हुए हैं, उसके पीछे भी यही कारण है. जाहिर है कि रियल एस्टेट के अधिकांश काम लोन पर ही डिपेंडेंट होते हैं और नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनी के लोन के सहारे ही रियल स्टेट आगे बढ़ता है. समझना मुश्किल नहीं है कि आखिर क्यों सरकार रिजर्व बैंक से 'कैश' की गुजारिश कर रही है.
पर इसका दूसरा साइड और भी संगीन है और इसे समझने के लिए ज्यादा बुद्धि लगाने की आवश्यकता भी नहीं है, बल्कि पूर्व में भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार रहे अरविन्द सुब्रमण्यम के हालिया बयान को कोट करना ही पर्याप्त रहेगा. बजट घाटे या फिर रूटीन खर्च के लिए 'रिजर्व कैश' का इस्तेमाल करने की सोच को अरविन्द ने 'लूट की सोच' बतलाया है. हालाँकि, इस रिजर्व कैश का उपयोग बैंकों को रीकैपिटलाइज करने की वकालत उन्होंने ज़रूर की है.
आप लगा सकते हैं क्या?
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- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
हाल फिलहाल हम कई खबरें सुन रहे हैं जिसके अनुसार सरकार केंद्रीय बैंक आरबीआई (RBI) से उसका रिजर्व पैसा मांग रही है. यह रकम कई लाख करोड़ों में है, जिसे देने से रिजर्व बैंक आनाकानी कर रही है तो सरकार से उसके टकराव की खबरें भी गाहे-बगाहे सामने आ रही है.
आम जनमानस के लिए समझना मुश्किल है कि यह पैसा आखिर है क्या और सच कहा जाए तो इस पैसे की जरूरत सरकार को क्यों पड़ रही है, इसे आम दृष्टि से समझना प्रत्येक नागरिक को ज़रूरी है.
Pic: YT |
आइये इसे एक "वास्तविक कहानी" के माध्यम से समझते हैं!
एक 'काल्पनिक नाम' राकेश लेते हैं जो दिल्ली के किसी एक एरिया में घर खरीदना चाहता है. मन में यह विचार आने के बाद वह संबंधित क्षेत्र के एक डीलर के पास जाता है और उसे अपना 'बजट' बताता है. डीलर उस क्षेत्र में बने हुए कई 'बिल्डर फ्लोर' राकेश को दिखाता है. कुछ समय बाद राकेश और उसकी पत्नी रंजना एक फ्लोर को लेने पर हामी भर देते हैं. राकेश और रंजना की मीटिंग प्रॉपर्टी डीलर द्वारा बिल्डर से कराई जाती है और एक निश्चित अमाउंट में सौदा तय हो जाता है. दोनों तुरंत ही 'टोकेन' दे देते हैं और लोन अप्लाई करने की बात कहते हैं.
कुछ दिनों बाद तय रकम का 10% बयाना भी हो जाता है और बिल्डर एक निश्चित दिन देकर स्टाम्प पेपर पर एग्रीमेंट साइन कर देता हैं.
चूंकि प्रॉपर्टी डीलर के पास अक्सर इसी तरह के केस आते हैं, क्योंकि अक्सर नौकरी पेशा व्यक्ति के पास घर लेने के लिए 'एकमुश्त रकम' नहीं होती है. जाहिर तौर पर उन्हें लोन कराना ही पड़ता है. डीलर के पास लोन कराने वाली कई कंपनियों के एजेंट का नंबर होता है और वह राकेश और रंजना से उन 'लोन-एजेंट्स' की बात कराता है.
एनबीएफसी यानी नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनीज में कई प्राइवेट कंपनियों को राकेश फोन करता है तो उसे पता चलता है की कुछ कंपनियां मार्केट में फिलहाल लोन दे ही नहीं रही हैं. दूसरी प्राइवेट कंपनी से जब राकेश बात करता है तो उसे पता चलता है कि उस लोन देने वाली कंपनी का रेट आफ इंटरेस्ट 9% से बढ़कर सीधे 11% हो चुका है. ऐसे में राकेश जब अपनी ईएमआई (EMI) कैलकुलेट करता है तो उसके लिए लोन अमाउंट पर इस दो पर्सेंट का अंतर कई हजार पड़ता दिखता है. अपनी सेलरी देखते हुए राकेश इतनी इएमआई देने में असमर्थ होता है, इसलिए वह प्राइवेट कंपनियों से लोन लेने पर हाथ खड़ा कर देता है.
इसके बाद प्रॉपर्टी डीलर राकेश की बात एक अर्ध सरकारी बैंक से कराता है और उसके एजेंट की सीधी डिमांड होती है कि वह एक निश्चित पर्सेंट कुल लोन अमाउंट का लेगा, तब वह लोन कराएगा. चूंकि राकेश के पास और कोई विकल्प नहीं होता है इसलिए वह अर्ध-सरकारी बैंक से लोन कराने पर सहमत हो जाता है.
कई दिन की भागदौड़ के बाद राकेश अर्ध-सरकारी बैंक के एजेंट को सारे ज़रूरी कागज़ात दे देता है. साथ ही प्रॉपर्टी की वैल्यूएशन, अड्रेस - जॉब की वेरिफिकेशन, नक्शा इत्यादि तैयार हो जाता है. कुछ दिनों में लोन-सैंक्शन भी हो जाता है किंतु लोन के डिसबर्समेंट में देरी पर देरी होने लगती है.
दिन, हफ्ते ही नहीं महीनों की देरी होने लगती है और राकेश के साथ रंजना का ब्लड प्रेशर यह सब सुनकर बढ़ने लगता है. आखिर उनके हाथ से बयाना की एक बड़ी रकम जा चुकी होती है और बिल्डर का दिया निश्चित टाइम भी बीत चुका होता है.
बहुत कुरेदने पर लोन एजेंट बताता है कि बैंक के पास कैश नहीं है, इसीलिए डिसबर्समेंट रुक जा रही है. फिर यह भी खबर आती है कि तमाम एनबीएफसी (NBFC) सरकार से गुजारिश कर रहे हैं ताकि एक्स्ट्रा कैश मिले और वह जरूरतमंदों को लोन दे सकें. राकेश और रंजना को पता चलता है कि लोन मिलने में इसलिए भी दिक्कत आ रही है क्योंकि उन कंपनियों के पास लिक्विडिटी है ही नहीं!
यही नहीं तमाम लोन कंपनियां जो अपना लोन कारोबार रोके हुए हैं, उसके पीछे भी यही कारण है. जाहिर है कि रियल एस्टेट के अधिकांश काम लोन पर ही डिपेंडेंट होते हैं और नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनी के लोन के सहारे ही रियल स्टेट आगे बढ़ता है. समझना मुश्किल नहीं है कि आखिर क्यों सरकार रिजर्व बैंक से 'कैश' की गुजारिश कर रही है.
Pic: dailyhunt |
पर इसका दूसरा साइड और भी संगीन है और इसे समझने के लिए ज्यादा बुद्धि लगाने की आवश्यकता भी नहीं है, बल्कि पूर्व में भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार रहे अरविन्द सुब्रमण्यम के हालिया बयान को कोट करना ही पर्याप्त रहेगा. बजट घाटे या फिर रूटीन खर्च के लिए 'रिजर्व कैश' का इस्तेमाल करने की सोच को अरविन्द ने 'लूट की सोच' बतलाया है. हालाँकि, इस रिजर्व कैश का उपयोग बैंकों को रीकैपिटलाइज करने की वकालत उन्होंने ज़रूर की है.
इतनी कैश की दिक्कत क्यों आयी, इसका जवाब भी अरविन्द से जाना जाए तो उन्होंने 'नोटबंदी और जीएसटी' को जिम्मेदार बताया है. जाहिर है, कारण चाहे जो भी हों, किन्तु राकेश और रंजना जैसे लाखों लोग डायरेक्ट समस्या से दो-चार हो रहे हैं, तो इनडायरेक्ट यह समस्या कितना बड़ा असर डालेगी, इसकी निश्चितता का अंदाजा शायद ही कोई लगा सके!
आप लगा सकते हैं क्या?
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- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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