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हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव परिणामों ने जहां विपक्ष को उर्जा दी है वहीं कुछ विपक्षी पार्टियां ऐसी भी हैं, जिनके माथे पर इससे शिकन भी आई है. हिंदी हार्टलैंड के 3 राज्य मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव परिणामों में कांग्रेस के सरकार गठन के बाद यूपी की विपक्षी-राजनीति कुछ इसी कारण से उलझ सी गई है.
भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के जनरल इलेक्शन में एक तरह से विपक्ष का क्लीनस्वीप ही कर दिया था और यह क्लीन स्वीप उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव 2017 तक चला. 2017 की हार के बाद उत्तर प्रदेश की दो मजबूत जनाधार रखने वाली पार्टियां सपा और बसपा नींद से जागीं और लोकसभा के दो उपचुनाव गोरखपुर और फूलपुर में आपस में गठबंधन करके लड़ीं. सीएम योगी का क्षेत्र होने के बावजूद चुनाव में समाजवादी पार्टी के कैंडिडेट की जीत हुई और इसने एक तरह से विपक्ष को 2019 का मंत्र दे दिया.
समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव बसपा के साथ गठबंधन राजनीति का रट्टा मारने लगे और मायावती के साथ वह किसी भी हद तक जा कर गठबंधन करने के प्रति कोशिशों को अंजाम देने में लग गए. यहां तक कि अपने पिता मुलायम सिंह यादव के तमाम प्रयासों के बावजूद अखिलेश अपने चाचा शिवपाल यादव को अपनी पार्टी में कुछ खास तवज्जो नहीं दे सके.
जाहिर है उत्तर प्रदेश में राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे अखिलेश, मायावती के साथ गठबंधन में किसी प्रकार की कोताही नहीं बरतना चाहते हैं. 3 राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद तमिलनाडु में डीएमके के स्टालिन ने जब राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर समर्थन दिया, तब अखिलेश ने इससे असहमति जतला दी. जाहिर तौर पर वह मायावती की 'पीएम' पद की महत्वाकांक्षा को भी बखूबी समझते हैं और कोई ठोस आधार न भी हो तो इस 'उम्मीद' को ज़िंदा रखने में हर्ज़ ही क्या है?
बात कांग्रेस की अगर करें तो उत्तर प्रदेश में यह दोनों बड़ी पार्टियां 2019 में माइलेज देने को तैयार नहीं थीं, क्योंकि उन्हें पता था कि कांग्रेस के पास तुलनात्मक रूप से कुछ खास नहीं है. राष्ट्रीय परिदृश्य को देखते हुए हद से हद अमेठी और रायबरेली की दो सीटें कांग्रेस को दी जा सकती थीं, लेकिन अब हालात बदल गए हैं. राहुल गांधी की न केवल छवि बदली है बल्कि 3 राज्यों में बढे उसके जनाधार ने उसके पुराने कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने काम किया है.
संभवतः यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में गठबंधन की उलझन सुलझने की बजाय उलझती जा रही है. लोकसभा चुनाव बहुत दूर नहीं है लेकिन भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले में विपक्ष जिस तरह की उलझन दिखला रहा है वह अपने आप में विपक्ष की मानसिकता दर्शाने को पर्याप्त है. यह भी खबर आ रही है कि तेलंगाना में एकतरफा जीत दर्ज करने के बाद केसीआर राष्ट्रीय राजनीति में गैर-कांग्रेसी तीसरे मोर्चे की सम्भावना देखने में लगे हैं और वह यूपी में अखिलेश-मायावती से मिलने की सम्भावना तलाश रहे हैं.
हालाँकि, कांग्रेस को लेकर अगर वास्तव में सपा-बसपा का यही रवैया है तो यह इन दोनों पार्टियों का ओवर-कॉन्फिडेंस वाला रवैया माना जाना चाहिए.
ज़ाहिर तौर पर राहुल गांधी अब एक बड़े राष्ट्रीय नेता के तौर पर उभरने में सफल रहे हैं खासकर 3 राज्यों में जीत के बाद और इसका लाभ मनोवैज्ञानिक रुप से उत्तर प्रदेश में अवश्य मिल सकता है. यह सही है कि कांग्रेस का बहुत ज्यादा जातिवादी आधार उत्तर प्रदेश में नहीं है, किंतु राहुल गांधी एक चेहरे के तौर पर हर जगह जाने-पहचाने जाते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है. चूंकि उनकी पुरानी छवि 'पप्पू' की रही है इसलिए उनका हालिया कॉन्फिडेंस लोगों को लुभा सकता है कि चाहे जो हो, राहुल खुद में और खुद की पार्टी में सुधार करने में सफल रहे हैं. जितने भी कांग्रेस कार्यकर्ता हैं, उनमें उत्साह भरने में अब वह सफल हो सकते हैं. इसके अलावा सपा-बसपा को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 2009 के आम चुनाव में कांग्रेस ने सबको चौंकाते हुए अकेले 21 सीटें अपने नाम की थीं.
सपा-बसपा जैसी पार्टियां अगर वाकई उत्तर प्रदेश में 2019 का किला फतह करना चाहती हैं तो इन्हें ओवरकॉन्फिडेंस का रास्ता अख्तियार करने से अवश्य ही बचना चाहिए. कांग्रेस तो फिर भी बड़ी पार्टी है, यहाँ तो छोटी-छोटी पार्टियों की बड़ी अहमियत है और यह बात भाजपा से सीखी जा सकती है. बिहार में उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी के एनडीए से बाहर निकल जाने के पश्चात जिस प्रकार लोजपा को बीजेपी ने रोका है, वह काबिल-ए-तारीफ़ है. जाहिर तौर पर तीन विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार ने मोदी-शाह नेतृत्व को सोचने पर मजबूर कर दिया है और वह एक-एक वोट की गणित पर सोच-समझ कर निर्णय ले रहे हैं, इस बात में दो राय नहीं!
पर उत्तर प्रदेश में 'ओवर कॉन्फिडेंस' के रथ पर सवार अखिलेश और मायावती भी इस बात से कुछ सीखेंगे क्या?
बड़ा सवाल है और इस बड़े सवाल पर आपकी क्या राय है, यह कमेंट-बॉक्स में अवश्य बताएं. साथ ही अगर यह लेख अच्छा लगा हो तो अपने दोस्तों के साथ शेयर करें.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव परिणामों ने जहां विपक्ष को उर्जा दी है वहीं कुछ विपक्षी पार्टियां ऐसी भी हैं, जिनके माथे पर इससे शिकन भी आई है. हिंदी हार्टलैंड के 3 राज्य मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव परिणामों में कांग्रेस के सरकार गठन के बाद यूपी की विपक्षी-राजनीति कुछ इसी कारण से उलझ सी गई है.
भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के जनरल इलेक्शन में एक तरह से विपक्ष का क्लीनस्वीप ही कर दिया था और यह क्लीन स्वीप उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव 2017 तक चला. 2017 की हार के बाद उत्तर प्रदेश की दो मजबूत जनाधार रखने वाली पार्टियां सपा और बसपा नींद से जागीं और लोकसभा के दो उपचुनाव गोरखपुर और फूलपुर में आपस में गठबंधन करके लड़ीं. सीएम योगी का क्षेत्र होने के बावजूद चुनाव में समाजवादी पार्टी के कैंडिडेट की जीत हुई और इसने एक तरह से विपक्ष को 2019 का मंत्र दे दिया.
समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव बसपा के साथ गठबंधन राजनीति का रट्टा मारने लगे और मायावती के साथ वह किसी भी हद तक जा कर गठबंधन करने के प्रति कोशिशों को अंजाम देने में लग गए. यहां तक कि अपने पिता मुलायम सिंह यादव के तमाम प्रयासों के बावजूद अखिलेश अपने चाचा शिवपाल यादव को अपनी पार्टी में कुछ खास तवज्जो नहीं दे सके.
ऐसा क्यों हुआ यह एक अलग कहानी है लेकिन इसका रेफरेंस अवश्य ही समझ लेना चाहिए. यूपी की राजनीति पर नजर रखने वालों को गेस्ट हाउस कांड 1995 का गेस्ट हाउस कांड अवश्य होगा जिसमें मायावती के ऊपर हमला हुआ था और उनकी जान जाते-जाते बची थी. उस गेस्ट हाउस काण्ड के मुख्य सूत्रधार शिवपाल यादव ही माने गए!
मायावती उस गेस्ट-हाउस काण्ड को ताउम्र भूल नहीं सकीं.
जाहिर है उत्तर प्रदेश में राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे अखिलेश, मायावती के साथ गठबंधन में किसी प्रकार की कोताही नहीं बरतना चाहते हैं. 3 राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद तमिलनाडु में डीएमके के स्टालिन ने जब राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर समर्थन दिया, तब अखिलेश ने इससे असहमति जतला दी. जाहिर तौर पर वह मायावती की 'पीएम' पद की महत्वाकांक्षा को भी बखूबी समझते हैं और कोई ठोस आधार न भी हो तो इस 'उम्मीद' को ज़िंदा रखने में हर्ज़ ही क्या है?
बात कांग्रेस की अगर करें तो उत्तर प्रदेश में यह दोनों बड़ी पार्टियां 2019 में माइलेज देने को तैयार नहीं थीं, क्योंकि उन्हें पता था कि कांग्रेस के पास तुलनात्मक रूप से कुछ खास नहीं है. राष्ट्रीय परिदृश्य को देखते हुए हद से हद अमेठी और रायबरेली की दो सीटें कांग्रेस को दी जा सकती थीं, लेकिन अब हालात बदल गए हैं. राहुल गांधी की न केवल छवि बदली है बल्कि 3 राज्यों में बढे उसके जनाधार ने उसके पुराने कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने काम किया है.
Over Confidence Politics in Uttar Pradesh, Akhilesh and Mayawati (Pic: HT) |
संभवतः यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में गठबंधन की उलझन सुलझने की बजाय उलझती जा रही है. लोकसभा चुनाव बहुत दूर नहीं है लेकिन भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले में विपक्ष जिस तरह की उलझन दिखला रहा है वह अपने आप में विपक्ष की मानसिकता दर्शाने को पर्याप्त है. यह भी खबर आ रही है कि तेलंगाना में एकतरफा जीत दर्ज करने के बाद केसीआर राष्ट्रीय राजनीति में गैर-कांग्रेसी तीसरे मोर्चे की सम्भावना देखने में लगे हैं और वह यूपी में अखिलेश-मायावती से मिलने की सम्भावना तलाश रहे हैं.
उधर बसपा सुप्रीमो मायावती अपने पत्ते खोलना नहीं चाहती हैं. हालाँकि अपने वोटर्स को वह बखूबी जानती कि जिसे कह देंगी उनका समूचा वोट ट्रांसफर हो जाएगा किंतु यही बात दावे के साथ समाजवादी पार्टी के बारे में भी पूरी तरह से नहीं कहा जा सकता है, बल्कि सपा के वोटर्स कैंडीडेट्स पर भी जरूर नजर रखेंगे. कांग्रेस पार्टी के वोटर्स के संदर्भ में तो यह बात बिल्कुल नहीं कही जा सकती है कि उसके जो भी वोट हैं वह सपा-बसपा के कैंडिडेट्स को गारंटी के साथ ट्रांसफर होंगे ही, अगर तीनों में गठबंधन होता है तो!
हालाँकि, कांग्रेस को लेकर अगर वास्तव में सपा-बसपा का यही रवैया है तो यह इन दोनों पार्टियों का ओवर-कॉन्फिडेंस वाला रवैया माना जाना चाहिए.
ज़ाहिर तौर पर राहुल गांधी अब एक बड़े राष्ट्रीय नेता के तौर पर उभरने में सफल रहे हैं खासकर 3 राज्यों में जीत के बाद और इसका लाभ मनोवैज्ञानिक रुप से उत्तर प्रदेश में अवश्य मिल सकता है. यह सही है कि कांग्रेस का बहुत ज्यादा जातिवादी आधार उत्तर प्रदेश में नहीं है, किंतु राहुल गांधी एक चेहरे के तौर पर हर जगह जाने-पहचाने जाते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है. चूंकि उनकी पुरानी छवि 'पप्पू' की रही है इसलिए उनका हालिया कॉन्फिडेंस लोगों को लुभा सकता है कि चाहे जो हो, राहुल खुद में और खुद की पार्टी में सुधार करने में सफल रहे हैं. जितने भी कांग्रेस कार्यकर्ता हैं, उनमें उत्साह भरने में अब वह सफल हो सकते हैं. इसके अलावा सपा-बसपा को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 2009 के आम चुनाव में कांग्रेस ने सबको चौंकाते हुए अकेले 21 सीटें अपने नाम की थीं.
सपा-बसपा जैसी पार्टियां अगर वाकई उत्तर प्रदेश में 2019 का किला फतह करना चाहती हैं तो इन्हें ओवरकॉन्फिडेंस का रास्ता अख्तियार करने से अवश्य ही बचना चाहिए. कांग्रेस तो फिर भी बड़ी पार्टी है, यहाँ तो छोटी-छोटी पार्टियों की बड़ी अहमियत है और यह बात भाजपा से सीखी जा सकती है. बिहार में उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी के एनडीए से बाहर निकल जाने के पश्चात जिस प्रकार लोजपा को बीजेपी ने रोका है, वह काबिल-ए-तारीफ़ है. जाहिर तौर पर तीन विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार ने मोदी-शाह नेतृत्व को सोचने पर मजबूर कर दिया है और वह एक-एक वोट की गणित पर सोच-समझ कर निर्णय ले रहे हैं, इस बात में दो राय नहीं!
पर उत्तर प्रदेश में 'ओवर कॉन्फिडेंस' के रथ पर सवार अखिलेश और मायावती भी इस बात से कुछ सीखेंगे क्या?
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- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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