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एक बार पुनः साबित हुई पार्टी से इतर 'चुनाव प्रबंधकों' की भूमिका

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2019 एक तरफ चर्चित रहा नरेंद्र मोदी की भारी जीत को लेकर, वहीं दूसरी तरफ चर्चित रहा कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों की दुर्गति को लेकर. पर इन दोनों बड़ी खबरों के अतिरिक्त एक और खबर आयी, जिस पर उत्तर भारत के लोगों ने संभवत बहुत ध्यान नहीं दिया, लेकिन यह खबर है बेहद महत्वपूर्ण.

जी हाँ! यह खबर आई आंध्र प्रदेश से जिसे अब सीमांध्र भी कहा जा रहा है. इस प्रदेश से पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी के बेटे जगनमोहन रेड्डी ने एक तरह से लैंडस्लाइड कर दिखाया.

दिलचस्प बात यह है कि मात्र कुछ ही दिनों पहले आंध्र प्रदेश के ही चर्चित नेता और अब पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू भारत में तमाम विपक्षी नेताओं से मिल रहे थे और तीसरे मोर्चे की सरकार केंद्र में गठित करने की कवायद कर रहे थे, पर जनता ने उन्हें बुरी तरह नकार दिया.

पर इस खबर से जुड़ी एक और खबर बेहद महत्वपूर्ण है और वह खबर है कोर चुनाव-प्रबंधक प्रशांत किशोर से जुड़ी हुई. जी हां! वही प्रशांत किशोर जो 2014 से ही तमाम बड़े चुनावों को प्रबंधित करने के लिए खासे चर्चित रहे हैं. अब जनता दल यूनाइटेड के उपाध्यक्ष की भूमिका में आ चुके प्रशांत किशोर पहले जगनमोहन का चुनाव प्रबंधन देखने के लिए राजी नहीं थे, किंतु जगनमोहन की नजर उन पर गड़ चुकी थी. जगनमोहन रेड्डी किसी भी हाल में चुनाव-परिणामों को अपने पक्ष में मोड़ना चाहते थे और उन्होंने कई मीटिंग्स के बाद प्रशांत किशोर को अपने चुनाव का प्रबंधन संभालने के लिए राजी कर ही लिया.

The Election Managers beyond Party (Pic: news18)

जगनमोहन आखिर इस चुनाव को जीवन-मरण का प्रश्न क्यों बना चुके थे और कहा तो यहाँ तक जाता है कि उन्होंने गाँधी परिवार की कांग्रेस को आंध्रा से मिटाने की ठान ली थी. बहरहाल उनके संघर्ष की भी कहानी फिर कभी, लेकिन पार्टी से इतर चुनाव प्रबंधक, वह भी 'श्रेष्ठ' को जोड़ने में वह सफल रहे.

नतीजा सबके सामने है!

इससे पहले भी नरेंद्र मोदी को पहली बार 2014 में प्रधानमंत्री बनवाने में प्रशांत किशोर की भूमिका की खासी चर्चा हो ही चुकी थी तो बाद में नरेंद्र मोदी के खिलाफ उन्होंने जिस प्रकार 2015 के बिहार विधानसभा इलेक्शन में लालू यादव और नीतीश कुमार का गठबंधन बनवाया और भाजपा को राज्य के चुनाव में बड़ी मात दी, उसने प्रशांत किशोर के नाम का डंका बजवा दिया. हालांकि, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का साथ देने की उनकी रणनीति बहुत ज्यादा फलीभूत नहीं हुई, किंतु इसके पीछे माना यह जाता है कि उनकी सलाह को कांग्रेस पार्टी ने एक तरह से अनसुना कर दिया था. खासकर, उनकी इस सलाह को कि प्रियंका गांधी को 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में लांच किया जाए.

बहरहाल सोशल मीडिया के जमाने में प्रशांत किशोर की सफलता ने एक बार पुनः इस बात को साबित किया है कि चुनाव में पार्टी से इतर प्रबंधकों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है आखिर इसके क्या कारण है आइए देखते हैं...


टेक्नोलॉजी के एक्सपर्ट

पार्टी से बाहर प्रशांत किशोर जैसे चुनावी प्रबंधक टेक्नॉलॉजी के महारथी होते हैं. सोशल मीडिया से लेकर वेबसाइट और सर्च इंजन से लेकर वीडियो तक में युवा क्या देखना चाहते हैं और किन चीजों पर ज्यादा असर हो सकता है, इसके बदलते ट्रेंड्स को समझने में भी वह महारथी होते हैं. यह एक ऐसी चीज है जो लोगों को प्रभावित करने में कसर नहीं छोड़ती.
हालांकि कहने को तमाम पार्टियां भी अपना सोशल नेटवर्क चलाती हैं, उन्होंने अपने आईटी-सेल्स भी रखे हुए हैं, लेकिन उनके रटे-रटाये फॉर्मेट्स हैं और वह लोग किसी चीज के विशेषज्ञ भी नहीं हैं, न ही इनोवेटिव हैं. वह लोग एक पैटर्न पर काम करते हैं और वह पैटर्न एक तरह से सरकारी स्थिति में पहुंच जाता है. पर बात होती है जब किसी खास चुनाव के लिए हायर किए जाने वाले प्रबंधकों की मैनेजमेंट टीम की, तब यह चीज टेक्नोलॉजी के संदर्भ में और ज्यादा खास हो जाती है. निश्चित तौर पर प्रशांत किशोर जैसे लोग राजनीतिक समझ और तकनीक के बेहतर मिक्स होते हैं और यही उनकी सफलता का रहस्य भी है.


राजनीति से अन बायस होना

ऐसा नहीं है कि किसी पोलिटिकल पार्टी के भीतर तेज दिमाग वाले व्यक्तियों की कमी होती है, किंतु पार्टी से जुड़े लोगों के तमाम हित एक-दूसरे से टकराते हैं. इसका उदाहरण हम राहुल गांधी के उस हालिया वक्तव्य से ले सकते हैं जिसमें उन्होंने 2019 जनरल इलेक्शन में कांग्रेस पार्टी की हार के लिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जैसे मजे हुए नेताओं को दोषी ठहराते हुए कहा कि उन पर पार्टी की बजाय पुत्र-प्रेम ज्यादा हावी हो गया था. खबरें आईं कि इन दोनों नेताओं ने अपने बेटों को लोकसभा में टिकट दिलाने के लिए दबाव डाला था.

जाहिर तौर पर यह राजनेता प्रशांत किशोर जैसे किसी चुनावी प्रबंधक से ज्यादा अनुभवी हो सकते हैं किंतु प्रशांत किशोर जैसे व्यक्ति की तरह उनके अनबायस होने की सम्भावना बेहद कम होती हैं. ऐसे में समूची पार्टी के बारे में सोच सकने वाले राजनेता बिरले ही होते है और ऐसी स्थिति में पार्टी से इतर तकनीक के महारथी चुनावी-प्रबंधक आवश्यक से दिखने लगते है.

प्रोफेशनल वर्क

जब कोई ऐसा व्यक्ति कोई पॉलिटिकल प्रोजेक्ट उठाता है तो वह सीधे-सीधे पैसे से जुड़ा होता है. काम पूरा होते ही सर्विस प्रोवाइडर को किसी तरह का दूसरा लालच नहीं होता है यही स्थिति आप किसी नेता के सन्दर्भ में देख लीजिये, उसकी इच्छा बाद में मंत्रिपद पाने की हो सकती है, अपने समर्थकों को मंत्रिपद दिलाने की हो सकती हैं.
पर प्रोफेशनल कार्य करने वालो का एक ही एजेंडा होता हैं और वैसे भी कुछ पेमेंट बेशक पहले हो जाए लेकिन कुछ पेमेंट चुनाव में सफलता मिलने के बाद ही होती है, तो यह पूरी तरह से प्रोफेशनल वर्क हो जाता है.

इसी के आधार पर किसी चुनाव-प्रबंधक को आगे भी कार्य मिलने की संभावना होती है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति जी-जान से जुट जाता है. अक्सर ऐसा देखा गया है कि चुनावी प्रबंधन से जुड़े व्यक्तियों को फ्री हैंड भी दिया जाता है और यह सीधे पार्टी सुप्रीमो के निर्देश और सहमति पर कार्य करते हैं. जाहिर तौर पर ऐसे में उन्हें किसी गुटबाजी का शिकार नहीं होना पड़ता है, कोई छुटभैया उसे डिस्टर्ब कर पाने की स्थिति में नहीं होता हैं और ऐसे में उनकी सफलता के चांसेस बढ़ जाते हैं.

तो देखा आपने, बदलते समय में टेक्नोलॉजी और चुनावी प्रबंधन की भूमिका कितनी बदल चुकी है और प्रशांत किशोर ने इसे एक बार पुनः बेहद मजबूती से साबित किया है.

आपका क्या विचार है कमेंट बॉक्स में अवश्य बताएं.


- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

Web Title: The Election Managers beyond Party




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