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थकी-हारी हुई पार्टियों को 'विपक्ष की चिंता' से क्यों परहेज करना चाहिए?

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2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनमानस ने एक सुर में अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर पूरा भरोसा जताया है, पर दूसरी तरफ मजबूत लोकतंत्र के लिए एक अशुभ संकेत यह सामने आया कि 2014 की ही तरह इस बार भी लोकसभा में कोई नेता प्रतिपक्ष नहीं होगा।

यह संकेत अशुभ तो जरूर है किंतु यहाँ अंग्रेजी की एक बड़ी मशहूर कहावत का उद्धरण देना उपयुक्त रहेगा। इसमें कहा गया है कि "इट इज बेटर टू बी अलोन, दैन अ बैड कंपनी"। इसका मतलब है कि बुरी संगति से अच्छा है कि आप अकेले रह लें। 

बुरी संगति और बुरे व्यक्ति से यहां तत्पर्य किसी की व्यक्तिगत अच्छाई बुराई से नहीं है, बल्कि राजनेताओं द्वारा जनता को, देश को और देश के हित को समझने और ना समझने से है। आखिर जनता ऐसे नेताओं को विपक्ष बना कर ही क्या करती, जिनको यह तक पता नहीं है कि भारतीय वायुसेना के पास विमानों की कमी है और इसीलिए राफेल विमान जल्द से जल्द देश में लाए जाने चाहिए।

चलो मान लिया कि तमाम रक्षा सौदों में गड़बड़ियां होती रही हैं। वह चाहे बोफोर्स रहा हो, या अगस्ता वेस्टलैंड जैसे घोटाले ही क्यों न रहे हों, किंतु बिना किसी ठोस सुबूत के और सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के बाद भी आप इस पर शोर मचा कर क्या लक्ष्य हासिल करना चाहते थे?
क्या आप यह सौदा रद्द करके भारतीय वायुसेना को कमजोर करना चाहते थे?
अगर आपको इसे चुनावी मुद्दा ही बनाना था तो इन विमानों की डिलीवरी तो होने देते! अगर इतनी बेसिक समझ आपके भीतर नहीं हैं तो देश की जनता आपको विपक्ष की कुर्सी पर भी क्यों बिठाये?

Sonia and Rahul Gandhi

बुरे व्यक्ति से तात्पर्य यह भी है कि देश में आतंकी हमलों का मुंहतोड़ जवाब देने की कोशिश कर रही सरकार और सेना से सबूत मांगने वाले राजनेताओं को भला देश अपना हितैषी किस प्रकार माने?
बुरी संगति से तात्पर्य यह भी है कि तकरीबन दो दशकों से भारत की सबसे पुरानी पार्टी एक युवराज को ट्रेनिंग देने का संस्थान बन के रह गई है। हर कोई यह जानता है कि राहुल गांधी के अंदर क्या सकारात्मक है क्या नकारात्मक है, क्या गुण है - क्या दोष है यह बार-बार दिखा है, किंतु लोकतंत्र की तथाकथित हितैषी बन रही कांग्रेस को यह दिख ही नहीं रहा है। क्या वास्तव में ऐसे नेता लोकतंत्र की रक्षा करने में समर्थ हो सकेंगे?

अगर कांग्रेस पार्टी की बात छोड़ भी दी जाए तो उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार, पश्चिम बंगाल से लेकर आंध्र प्रदेश तक के तमाम क्षेत्रीय नेता कहां तक एक आम सहमति बनाते और एक नेतृत्व में चलने की कोशिश करते, बजाय इसके वह प्रधानमंत्री पद की लालसा लिए एक ध्वज के नीचे तक नहीं आ सके। क्या वास्तव में देश को ऐसे ही कमजोर और उलझे हुए विपक्ष की जरूरत थी?

हां यह बात स्वीकार करने योग्य अवश्य है कि देश में एक विपक्ष होना चाहिए और वह रहेगा भी!
हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य के भीतर ही सात्विक, राजसिक और तामसिक गुण भरे रहते हैं। अलग-अलग वक्त पर तमाम मनीषियों ने भिन्न भूमिकाओं का निर्वहन किया हैं। भारतवर्ष की सनातन संस्कृति में ऐसे तमाम उदाहरण हुए हैं कि गलत होने पर भक्त प्रहलाद जैसे व्यक्तियों ने अपने पिता तक का विरोध किया है। कर्तव्य मार्ग पर चल कर प्रथम पूज्य गणेश देव ने अपने पिता तक से युद्ध किया है और अपना शीश तक कटाया हैं। देशों दिशाओं के विजयी रावण की सभा में भी विभीषण के रूप में विपक्ष खड़ा हुआ हैं तो महाभारत काल में दुर्योधन की सभा में विदुर और खुद दुर्योधन का सगा भाई विकर्ण उसका विरोध करने को उठ खड़ा हुआ था।

Ravan and Vibhishna

इसलिए कमजोर, दिशाहीन, हारे हुए और स्वार्थ में उलझे हुए राजनेता लोकतंत्र और उसमें विपक्ष की भूमिका पर अब बात नहीं ही करें तो ज्यादा बेहतर रहेगा।
आंकड़ों की भी बात करें तो भारतीय जनता पार्टी के पास लोकसभा में 303 सीटें ही तो है बाकी 239 सीटें दूसरे दलों के पास हैं। राज्यसभा में अभी इस पार्टी के पास बहुमत हैं नहीं और भारतीय जनता पार्टी कोई एक परिवार की पार्टी तो है नहीं कि उसके सभी सदस्य किसी परिवार की सेवा करने की सौगंध खाए बैठे हैं। उन्हें सही गलत का ज्ञान है, उनके पीछे संगठन है और इन सबसे बढ़कर उनके पीछे जनता है और जनता के प्रति उन सभी की जवाबदेही भी है।

इसीलिए डर की राजनीति खत्म होनी चाहिए और यही बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कही है। जिस प्रकार से अल्पसंख्यकों को डरा धमका कर कई दशकों तक उनका शोषण किया गया, ठीक उसी प्रकार हारी हुई राजनीतिक बिरादरी देश में विपक्ष की गैर मौजूदगी के नाम पर डर पैदा करने की कोशिश नहीं ही करे तो ज्यादा बेहतर।

इस बीच तमिलनाडु में डीएमके प्रमुख स्टालिन ने अपनी भारी जीत के पश्चात् मजबूती से कहा है कि "ये देश सिर्फ हिंदी भाषी राज्यों का नहीं है। लोकसभा चुनाव में सभी राज्यों को बराबरी से देखना चाहिए, किसी को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।" स्टालिन ने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को भी खुला पत्र लिखा है, जिसमें उन्होंने कहा है कि उनकी पार्टी अन्य राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर भाजपा को टक्कर देगी। निश्चित रूप से उनका रवैया एक हद तक विपक्ष की श्रेणी में रखा जा सकता है और खुद भारतीय जनता पार्टी अपने शुरूआती दिनों से ही शक्तियों के विकेन्द्रीकरण की बात करती रही हैं, यह बात संभवतः स्टालिन को पता नहीं होगी।

बहरहाल, नयी सरकार पर आशंका, कुशंका का बोझ डालने की बजाय हारे हुए दलों और नेताओं को जनता से जुड़ने की कवायद करनी चाहिए, क्योंकि अब उनके पास विपक्ष का रोल निभाने का नैतिक बल भी नहीं बचा हैं, इसलिए उन्हें 'विपक्ष की छद्म चिंता' से तत्काल मुक्ति पा लेना चाहिए।

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

Web Title:  The Opposition of India in 2019, Hindi Article, Rahul Gandhi as a leader of Opposition, Election Result 2019, Indian Culture and Role of Opposition




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