कोरोना संकट से जहाँ एक तरफ तमाम जगहों पर मेडिकल इमरजेंसी की स्थिति बनी हुई है, वहीं दूसरी तरफ लोग अस्थायी ही सही, अपनी लाइफस्टाइल बदलने पर भी मजबूर हुए हैं.
सच तो यह है कि भाग रही दुनिया को
कोरोना
ने वैसे ही रोक दिया है, जैसे किसी तेज रफ्तार गाड़ी को डिस्क ब्रेक रोक देता है.
अब लोग उन तमाम चीजों के साथ जी रहे हैं, जिसके साथ जीने के लिए उनके पास ज़रा सा भी समय नहीं था. वह चाहे उनकी फैमिली हो, उनके बच्चे हों या उनका अपना संयुक्त परिवार ही क्यों ना!
ऐसा नहीं है कि कोरोना-लाइफस्टाइल से लोगों ने चीजों को अपनाया ही है, बल्कि उन कई चीजों से दूर भी हुए हैं, जिनके बिना रहने की कल्पना उनके लिए मुमकिन ही नहीं थी.
अब वह रेस्टोरेंट में खाना खाए बिना रहने लगे हैं तो अब वीकेंड पर कहीं बाहर टूर करना उनके लिए बंद-सा हो गया है. अब उन्हें छोटे से घर में सफोकेशन नहीं होती है.
ऐसे ही जो लोग नॉनवेज में भारी मात्रा में प्रोटीन होने की दुहाई देते थे, अब वह जैसे तैसे सब्जियों से काम चला रहे हैं.
आपने गौर किया होगा कि जो लोग घर में नौकर-चाकरों के बिना एक कदम तक नहीं हिलाते थे, अब वह घर का हर छोटा-बड़ा काम करने को मजबूर हैं और सोशल मीडिया पर इसकी पोस्ट डाल कर प्राउड भी फील कर रहे हैं.
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कहते हैं हर संकट हमें कुछ ना कुछ सिखा जाता है!
आज नहीं कल
कोरोना
का संकट बीत ही जाएगा, लेकिन बड़ा सवाल यह रहेगा कि हमने इस संकट से सीखा क्या?
उससे भी बड़ा सवाल यह है कि कोरोना सीख के कुछ पॉइंट्स को भी अपनी लाइफ स्टाइल में अपनाया क्या?
सब कुछ - सब कुछ तो बेबश-सा दिख रहा है रोजमर्रा की जिंदगी में!!
...और अधिक... और अधिक... की भागमभाग मचाने वाले महत्वाकांक्षी लोग भी शांत बैठने को मजबूर हो गए हैं, जो कभी अपनी महत्वाकांक्षा के आगे किसी को कुछ समझते ही नहीं थे!
बड़े-बड़े धर्मगुरु, पादरी, मौलवी, पुजारी, ग्रंथी, एस्ट्रोलॉजर जो सीधे भगवान से कनेक्शन का दावा करते थे उनके सामने सभी रास्ते बंद हो गए हैं. कईयों की हालत तो इतनी विक्षिप्त हो गयी है कि वह अराजकता पर उतारू हो रहे हैं.
धर्मगुरु ही क्यों, तमाम बड़ी-बड़ी कॉर्पोरेट कम्पनीज जो अपने कर्मचारियों को ऑफिस-टाइम के 1 मिनट पहले तक नहीं छोड़ती थीं, बल्कि अधिक से अधिक समय तक ऑफिस में ही बैठाए रखना चाहती थीं, वह आज वर्क फ्रॉम होम कल्चर को बढ़ावा देने की बात कर रही हैं. सार्वजानिक परिवहन को हीन समझने वाले लोग, जो शौक के लिए निजी-वाहनों से निकलते थे, उसके बिना उनकी लाइफस्टाइल कम्पलीट ही नहीं हो पाती थी, वह लोग घर में दुबके हुए हैं. वीकेंड के नाम पर हजारों किलोमीटर का सफ़र तय करके प्रकृति को प्रदूषित करने वाले लोगों के पास अब भला क्या जवाब है?
कोई लाख कहे, लेकिन इस संकट के समय मनुष्य एडजस्ट करना सीख रहा है. चूंकि यह संकट लंबा है, इसीलिए लोग इसके साथ सहज भी हो रहे हैं.
व्यष्टि से समष्टि तक लोग एडजस्ट कर रहे हैं, जो पहले वह भूल-से गए थे!
किंतु बड़ा प्रश्न वही है कि कोरोना संकट के बाद क्या यह एडजस्टमेंट जारी रहेगी?
या फिर हम अपने मद में एडजस्टमेंट के रूल को कुचलना शुरू कर देंगे, जो हम अब तक करते आ रहे थे?
आखिर इस संकट ने हमें यही तो सिखाया है... सबके लिए जगह बनाना... सबके लिए सोचना... सबकी बातें करना!
बोले तो यह संसार सबका है, ऐसी धारणा धारण करना.
फ़िलवक्त दुनिया भर के तमाम वैज्ञानिक शोध में लगे हुए हैं और कई जगहों पर तो कोरोना की वैक्सीन का परीक्षण भी शुरू हो गया है. आस्ट्रेलिया, चीन, अमेरिका जैसे देशों में इसके वैक्सीन बनने और सफलतापूर्वक जारी रहने का क्रम आगे बढ़ने लगा है. निश्चित रूप से हम इस पर विजय पा लेंगे, लेकिन क्या एडजस्ट ना करने वाले अपने नेचर पर भी हम विजय पाने की कोशिश करेंगे?
पंछियों को अपना मानने और उनके लिए जगह बनाने की बात तो छोड़ ही देते हैं, लेकिन क्या हम इंसानों को अपना मानने की सोच विकसित करेंगे?
अभी बेशक तमाम भूखे-गरीब मजदूरों को देखकर सोशल मीडिया पर हम पोस्ट कर रहे हैं, उनके लिए दान भी कर रहे हैं, अभी बेशक सड़क पर पैदल चल रहे दिहाड़ी मजदूरों को लेकर हम में सहानुभूति पैदा हो रही है, लेकिन ज़रा सोचिये...
वह आज भी भूखे-मजबूर-बेबश क्यों हैं?
आज हजारों-करोड़ों का दान करने वाले धन-कुबेरों का धन क्या उन भूखे-मजबूर-बेबश मनुष्यों का खून चूस कर इकठ्ठा नहीं किया गया है, जिनके साथ इस वक्त हमें सहानुभूति पैदा हो रही है?
आज पैदा होने वाली हमारी सहानुभूति झूठ नहीं है, यह सत्य है जो हमारे वर्तमान दुःख के अहसास से जुड़ी हुई है, लेकिन...
कोरोना संकट के बाद भी क्या हमारी भागदौड़ वाली लाइफस्टाइल हमें वर्तमान सहानुभूति के अहसास को जिंदा रखने देगी?
बड़ा सवाल है और इस सवाल का उत्तर हमें संजो कर रखना चाहिए, क्योंकि कोरोना-संकट का अगर कुछ हासिल होगा तो यही होगा!!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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