चीन के लाख प्रयासों के बावजूद नेपाल में ओली सरकार को इस्तीफा देना ही पड़ा है!
जाहिर तौर पर जिस प्रकार से चीन की चर्चित, नेपाल में तैनात राजदूत, हो यांकी ने तमाम नेपाली राजनेताओं से मिलकर ओली सरकार को बचाने की कोशिश करती रही हैं, वह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है.
एक संप्रभु देश होने के बावजूद नेपाल में चीनी हस्तक्षेप ने सारी सीमाएं तोड़ दी हैं, खासकर के पी ओली की सरकार में!
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- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
Web Title: Nepal, China and India, Democracy is a key factor, Hindi Article, Writer Mithilesh Kumar Singh
यह एक तथ्य है कि नेपाल और भारत में रोटी बेटी का रिश्ता आज से नहीं, बल्कि सदियों से चला आ रहा है. साथ ही दोनों देश के बीच में न केवल खुली सीमा है, बल्कि व्यापार से लेकर सांस्कृतिक आदान-प्रदान दोनों के हितों से गहरे तक जुड़ा हुआ है. बताते हैं कि पहले सब कुछ ठीक था और चीनी महत्वकांक्षा की नजर पड़ने से पहले नेपाल भारत के सर्वाधिक करीबी राष्ट्रों में से एक था. पर चीनी महत्वाकांक्षा का जाल कुछ यूं फैला कि नेपाल भी चाहे-अनचाहे उसमें फंसता चला गया.
तमाम एक्सपर्ट इस बात को लेकर छोटे देशों को सावधान करते रहे हैं कि वह चीनी निवेश और चीन द्वारा लिए जाने वाले क़र्ज़ से बच कर रहें!
श्रीलंका में हमने देखा कि किस प्रकार से हंबनटोटा पोर्ट को 99 सालों के लिए चीन को लीज तक पर देना पड़ा. एक तरह से यह चीनी वर्चस्व को श्रीलंका सरकार द्वारा स्वीकार करने जैसा था. यह घटनाक्रम सिर्फ श्रीलंका में ही क्यों, मालदीव में खुले रूप में हमने देखा. हमने देखा कि किस प्रकार एक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से सरकार बदलने के बाद चीनी सुर भी बदल गए. दिए गए कर्जों को तुरंत मांगकर चीन ने मालदीव और अतिरिक्त प्रेशर बनाया.
जाहिर तौर पर जो निवेश चीन ने पिछले दशक भर से नेपाल में लगा रखी है, वह कहीं न कहीं तो अपना परिणाम दिखलायेगा ही!
ऊर्जा सहित ट्रांसपोर्ट इत्यादि क्षेत्रों में भारी निवेश करके वह नेपाल की राजनीति पर अपना दीर्घकालीन प्रभाव छोड़ना चाहता है, परंतु उसे शायद नेपाल की राजनीति की और वहां की संस्कृति की इतनी समझ नहीं है, जितनी एक परिपक्व देश को होनी चाहिए.
सबसे बड़ी बात तो यह है कि खुद कम्युनिस्ट पार्टी को एक रखना संभव नहीं है!
चीन को छोड़कर यह व्यवस्था हर जगह असफल ही साबित हुई है. चीन अपने यहां का उदाहरण जरूर देना चाहेगा, किंतु चीन में जहां तानाशाही व्यवस्था के समकक्ष प्रशासन चलता है, वहीं नेपाल राजतंत्र से मुक्त हुआ एक पूर्ण लोकतांत्रिक देश है. जाहिर तौर पर ऐसी स्थिति में कम्युनिस्ट पार्टी में एकता, वह ज़रा दूर की कौड़ी है. उस पार्टी में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के साथ-साथ सैद्धांतिक असफलता भी है, जो चीन के सपनों को कभी पूरा नहीं होने देंगे.
दूसरी तरफ नेपाली जनता की समझ भी, संभवतः चीन को पकड़ में नहीं आ रही. नेपाल के लोग स्वभाविक रूप से भारत से जुड़े हुए हैं. हालांकि मधेशी आंदोलन के समय भारत की नाकेबंदी से नेपाली लोग जरूर कुछ नाराज हुए थे, परंतु यह नाराजगी लंबे समय तक नहीं रही. अभी जिस प्रकार से चीनी हस्तक्षेप और ओली सरकार भारत के साथ रिश्तों को कमजोर करने पर लगे हुए हैं, उसने प्रबल आशंका बनाई है कि कम्युनिस्ट पार्टी संभवतः दोबारा सत्ता में ही ना आए.
अगर वह सत्ता में आती भी है, तो चीन के खासमखास के पी ओली शायद ही सत्ता के शीर्ष पर विराजमान हो सकेंगे.
बेशक, यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, जिसे समझना ना तो चीन के बस की बात है, ना ही चीनी राजदूत के बस की बात!
चीन बस पैसे के बल पर अपना खेल जारी रख सकता है, किंतु पैसे पर कोई भी खेल लम्बे समय तक नहीं खेला जा सकता. यूं भी चीन कोई दान तो कर नहीं रहा, आज नहीं तो कल अपने पैसे वसूलेगा ही और तब श्रीलंका, मालदीव जैसी हालत नेपाल की भी होगी, इसमें दो राय नहीं!
ऐसी स्थिति में भारत की बात की जाए तो उसे अतिरिक्त सजगता बरतनी होगी. वह नेपाली लोगों के हित में लगातार काम करता रहे, यह एक बेहतर और दीर्घकालीन रणनीति साबित हो सकती है. इससे नेपाली लोगों के दिल के तार और भी मजबूती से भारतीयों से जुड़ेंगे. अभी हाल ही में विदेश सचिव और भारतीय थल सेना अध्यक्ष श्रीमान नरवडे नेपाल की यात्रा पर गए थे और इसने निश्चित रूप से कई विपरीत दिशा में टाइट हो चुके पेंचों को ढीला किया होगा.
निवेश के मामले में भी भारत को दिल और खज़ाना दोनों ही खोलना पड़ेगा, क्योंकि बदलती दुनिया में अर्थ एक बड़ा प्रभावकारी फैक्टर बन चुका है.
नेपाल और दूसरे करीबी देशों में उसे चीन की आर्थिक शक्ति से मुकाबला करना ही होगा!
हालांकि इसे अंधी दौड़ से बनाने से बचा जाना चाहिए और दीर्घकालीन निवेश की योजना पर कार्य करना चाहिए. पर यह बात सत्य है कि भारत को नेपाल के साथ रिश्ते मजबूत करने के लिए अति उतावलापन दिखलाने की जरूरत नहीं है.
चीन जरूर अति उतावलापन दिखला रहा है, लेकिन लॉन्ग टर्म में इसका दुष्परिणाम ही उसे भुगतना पड़ेगा.
परंतु भारत को इस समूचे घटनाक्रम को एक अध्याय के तौर पर लेना पड़ेगा, ताकि भारत विरोधी भावनाओं को नेपाल में हवा देने से पहले कोई पार्टी या पार्टी का नेता कम से कम 4 बार सोचे!
साथ ही भारत को नेपाल में लोकतंत्र की मजबूती के लिए अपने मजबूत प्रयास जारी रखना चाहिए, क्योंकि चीन की अगर कुछ कमजोरी है तो वह है डेमोक्रेसी, और भारत की अगर कोई मजबूती है तो वह भी डेमोक्रेसी ही है. अगर अपने इस पत्ते को भारत मजबूती से आगे रखता है, तो बहुत कम उम्मीद है कि किसी भी विदेशी मोर्चे पर चीन भारत को पीछे कर सकेगा.
आप क्या कहते हैं भारत नेपाल रिश्तों के बारे में?
और इन रिश्तों पर वर्तमान घटनाक्रम की क्या भूमिका होने वाली है, कमेंट-बॉक्स में जरूर बताएं.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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