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सनकी ट्रंप और लोकतंत्र

Manic Depressive Trump and Democracy, Hindi Article

अमेरिका के इतिहास में इससे पहले इतनी 'सनक' नहीं देखी गई!
डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति चुनाव में बुरी तरह से हार गए हैं, और इस हार ने उन्हें इस कदर तोड़ दिया है कि लोकतंत्र से उनका भरोसा ही उठ गया प्रतीत होता है.

तमाम संस्थाओं को धत्ता बताते हुए वह राष्ट्रपति पद की अपनी मर्यादा को तार-तार तो कई बार कर चुके हैं, किन्तु अपने समर्थकों द्वारा कैपिटल हिल जो अमेरिकी लोकतंत्र का प्रतीक माना जाता है, उस पर धावा बोलने को उन्होंने जिस प्रकार उकसावे वाला बयान दिया, उसने तमाम सीमाओं को तोड़ दिया है. कहने को तो यह एक अतिवादी विरोध प्रदर्शन कहा जा सकता है, लेकिन वास्तव में यह किसी आतंकवादी घटना से कम नहीं है!

हिंसा की आग, वास्तव में आतंकवाद ही होती है. यूं भी अमेरिकी चुनाव प्रक्रिया कोई 1 दिन में पूरी होने वाली चुनाव प्रक्रिया तो है नहीं, बल्कि यह महीनों तक चलती है और ऐसे में डोनाल्ड ट्रंप और उनके समर्थकों को संदेह का लाभ भी नहीं दिया जा सकता कि उनकी भावनाएं अचानक ही भड़क गई हैं.


किसी की भी भावनाएं कुछ पल के लिए ही भड़क सकती हैं, कोई कुछ पलों के लिए संवेदनशील भी हो सकता है, किंतु जब यही संवेदनशीलता उसकी सनक बन जाए, तो वह डोनाल्ड ट्रंप और उसका समर्थक हो जाता है. वैसे यह केवल अमेरिका की ही बात नहीं है, बल्कि लोकतंत्र का समर्थन करने वाले तमाम देशों के लिए यह एक चेतावनी जैसा है.

चूंकि अमेरिका संपूर्ण विश्व में लोकतंत्र को लेकर अगुआई करता रहा है और इसे विश्व का सबसे पुराना लोकतंत्र भी इसीलिए कहा जाता है. लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए अमेरिकी इतिहास तमाम ऐसे बलिदानों का सबूत देता है, जिसे डोनाल्ड ट्रंप और उनके समर्थकों ने जूते की नोक पर रखा है.हालांकि डोनाल्ड ट्रंप ने अपने समर्थकों से घर जाने के लिए तो जरूर कहा, किंतु उसमें भी उन्होंने चुनाव नतीजे स्वीकार ना करके एक तरह से उन्हें भड़काया ही!
आखिर जब देश का राष्ट्रपति ही उस देश के कानून को ना माने, तो फिर ऐसे में कुछ भी कहना सुनना और समझना नामुमकिन ही हो जाता है.

यह भी अपने आप में विचित्र बात है कि ट्विटर, यूट्यूब और फेसबुक ने डोनाल्ड ट्रम्प के एकाउंट्स को और वीडियो / पोस्ट्स को अलग-अलग लेवल पर बैन कर दिया है. आखिर एक पद पर बैठे अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए इससे शर्मनाक बात क्या हो सकती है?

इतिहास उठाकर देखें तो ऐसे खलनायक कम नहीं हुए हैं, जो अपनी सनक के साथ सत्ता के शीर्ष पर पहुंच गए और सत्ता को लोगों की भावनाओं को कुचलने का प्रमुख हथियार बना दिया. सत्ता - राजधर्म जिसे लोगों का संरक्षण करना चाहिए, वह वास्तव में उनकी भावनाएं कुचलने का हथियार जब बन जाता है तो ऐसा सिर्फ और सिर्फ शासकों और उसके समर्थकों की सनक के कारण ही होता है.

अमेरिकी लोकतंत्र की जड़ें हालांकि बहुत मजबूत हैं और इसका उदाहरण भी ऊपर की ही लाइन में है, जब अमेरिका के तमाम लोग, ट्विटर इत्यादि कम्पनियां और खुद ट्रम्प की रिपब्लिकन पार्टी के उपराष्ट्रपति माइक पेंस सहित तमाम सीनेटर अपने राष्ट्रपति के ही खिलाफ खड़े हो गए!

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पर इन सबसे इतर आने वाले दिनों में एक बड़ा प्रश्न तो अवश्य ही खड़ा होगा और वह यह है कि इस घटनाक्रम का असर केवल अमेरिका पर ही हो, ऐसा नहीं होगा, बल्कि विश्व के तमाम देशों में चुनाव हारने वाले नेता इस तरह की प्रैक्टिस अमल में लाना चाहेंगे!

जो नेता चुनाव हार जाएगा, वह अपने समर्थकों से हंगामा करना चाहेगा और लोकतांत्रिक मूल्यों को डराना-धमकाना भी चाहेगा!

निश्चित रूप से लोकतान्त्रिक संस्थाओं को इस मामले में अतिरिक्त सजगता बरतनी चाहिए और ऐसी स्थिति ना ही आए, इसको लेकर एहतियाती उपाय भी उन्हें करना चाहिए.अमेरिकी मामले में तमाम लोगों की बुद्धि अवश्य ही चकरा गई होगी, क्योंकि कानून के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति ही जब इस तरह के कृत्य के लिए अपने समर्थकों को उकसाए, तो फिर आम जन की बात ही क्या की जाए!

क्योंकि अमेरिका में तमाम संस्थाएं बेहद मजबूत हैं, लेकिन क्या यही चीज हम नए-नए उभर रहे लोकतांत्रिक देशों के बारे में भी कह सकते हैं?

शायद इसीलिए लोकतांत्रिक मूल्यों की शिक्षा एजुकेशन क्षेत्र में प्रत्येक स्तर पर दी जानी चाहिए और साथ ही संस्थाओं में जड़ता की बजाय सुधार की गुंजाइश भी रखनी चाहिए.

अमेरिका में हुए इस कृत्य के लिए दंड विधान की मजबूती अवश्य ही दिखनी चाहिए, ताकि आने वाले समय के लिए इसे एक नजीर के रूप में देखा जाए!डोनाल्ड ट्रंप और उनके समर्थकों पर राजद्रोह का कड़ा मुकदमा किया ही जाना चाहिए और लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या के लिए डायरेक्ट और इनडायरेक्ट रूप से उन्हें दोषी ठहराने की प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए.


वास्तव में विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र पर लगे इस घाव की भरपाई तो नहीं की जा सकती, किंतु आने वाले दिनों में ऐसी स्थिति पर लिया गया एक्शन, अवश्य ही एक रास्ता दिखलाएगा!

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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