- बड़ा सवाल, क्या चीन के प्रभाव में फंस जाएगा अफगानिस्तान?
- भारत, ईरान और रूस की रणनीति क्या होगी?
- पाकिस्तान की क्यों बढ़ रही है 'छटपटाहट'?
विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका के लिए भी किसी एक देश में शांति ला पाना, व्यवस्था बना पाना कितना मुश्किल है, यह हम सब अफगानिस्तान में बखूबी देख रहे हैं.दुनिया के किसी भी कोने पर बम गिरा देना तो बहुत आसान है, लेकिन व्यवस्था बनाने के लिए, सरकार के गठन को सफल बनाने के लिए 20 साल का लंबा संघर्ष भी कम पड़ सकता है, और इसे निश्चित रूप से अमेरिका की सफलता तो नहीं ही कहा जा सकता.सन 2001 से शुरू हुआ तालिबान और इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष, 20 साल बाद 2021 में भी जारी है, और अब जबकि अमेरिका सहित नाटो देशों की फौज अफगानिस्तान से लौट रही है, तो वहां गृह युद्ध का खतरा पैदा हो गया है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन आज बेशर्मी से कहते हैं कि अफगानिस्तान, अमेरिका की जिम्मेदारी नहीं है, तो ऐसे में उन्हें यह क्वेश्चन अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश जूनियर से ज़रूर पूछना चाहिए, जिन्होंने ताबड़तोड़ अफगानिस्तान में हमले का आदेश दिया था.
यह मामला नाइन इलेवन (9 - 11) का था, जब अमेरिका के पेंटागन और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर अलकायदा ने हमला किया था. तब हवाई जहाज को हाईजैक करके और सीधे अमेरिका को चुनौती देने वाले अल-कायदा ने यह नहीं सोचा होगा कि अंततः उसका अध्याय समाप्त कर दिया जायेगा.
बहरहाल वह अध्याय समाप्त हो चुका है, और अफगानिस्तान में ग्राउंड पर अमेरिकी सेना ने अच्छा खासा संघर्ष भी किया. साथ ही खरबों डालर खर्च करने के साथ-साथ अपने सैनिकों की कुर्बानी भी दी, किंतु हमें यह सोचना होगा कि आखिर क्यों 20 साल बाद भी वहां व्यवस्था दुरुस्त नहीं हो पाई. आज तमाम देशों के साथ वहां भारत के हित भी अधर में लटके हुए हैं, और अपने निवेश के साथ अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए भारत हाथ-पांव मार रहा है. कभी वह तालिबान से बैक चैनल बात कर रहा है, तो कभी ईरान और रूस के साथ, अफगानिस्तान की समस्या पर पींगे बढ़ा रहा है.
वैश्विक राजनीति की इन उठा-पठकों को हम छोड़ भी दें, तो तालिबान के बढ़ते प्रभाव से स्वयं कभी उसका आका रहा पाकिस्तान भी हिल गया है. उसके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रोज यह बयान दे रहे हैं कि अफगानिस्तान में तालिबान के बढ़ते प्रभाव से पाकिस्तान बहुत चिंतित है - पाकिस्तान बहुत चिंतित है, पाकिस्तान की सुरक्षा को खतरा पैदा हो गया है, शरणार्थियों की बाढ़ को पाकिस्तान नहीं संभाल सकता है...खैर, सच्चाई भी यही है कि तालिबान ने जिस तरह से देश में एक तिहाई अफ़ग़ानिस्तान पर कब्जा कर लिया है, उससे अफगानिस्तान में नए सिविल वार की आशंका पैदा हो गई है. न केवल भारत, बल्कि खुद पाकिस्तान इससे बेहद चिंतित है. साथ ही ईरान भी इससे खासा चिंतित है.भारत की चिंता की अपनी वजहे हैं. अफगानिस्तान में उसका अपना इन्वेस्टमेंट तो है ही, साथ ही तालिबान के बढ़ते प्रभाव से कश्मीर में भी शांति प्रक्रिया में खलल आ सकती है. ऐसे में भारत का सक्रिय रहना जरूरी भी है, और उसकी मजबूरी भी.
हालाँकि, इस बात पर भी भारतीय थिंक टैंक को अवश्य ही विचार करना चाहिए कि अफ़ग़ानिस्तान में लगातार, भारी इन्वेस्टमेंट करते समय, इन तथ्यों का ध्यान रखा गया था, या पूरी तरह इन्हें अनदेखा कर दिया गया था.
सच बात तो यह है कि अमेरिका के इस क्षेत्र से निकलने के बाद, पूरे अफ़ग़ानिस्तान की राजनीति कहीं ना कहीं चीन के पाले में जाती दिख रही है. अभी चीन शांत पड़ा है, किंतु ज्यों ज्यों तालिबान की समस्या बढ़ेगी,त्यों त्यों चीन की भूमिका अहम होती जाएगी.चीन भी कमोबेश यही चाह रहा है कि यह समस्या अभी बढे, इसीलिए वह खामोशी के साथ सब देख रहा है. हम सभी जानते ही हैं कि पाकिस्तान में चीन ने सीपेक (CPEC - China Pakistan Economic Corridor) जैसे तमाम प्रोजेक्ट्स में जबरदस्त इन्वेस्टमेंट किया है. साथ ही पाकिस्तान पर उसका प्रभाव तालिबान पर उसके प्रभाव बनाने में निश्चित रूप से मदद करेगा.ऐसे में चीन ना केवल तालिबान, बल्कि अफगानिस्तान सरकार से भी तोलमोल की स्थिति में होगा.
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किंतु चीन की पॉलिसी सीधे-सीधे अपने फायदे नुकसान पर आधारित रही है, और अफगानिस्तान में शांति और लोकतंत्र लाने के लिए वह कार्य करेगा, ऐसा न मानने के कई कारण हैं. एक तो स्वयं उसका खुद का लोकतंत्र पर भरोसा नहीं है, और एक तरह से वहां तानाशाही व्यवस्था ही फल फूल रही है, बेशक इसके लिए लाख कुतर्क ही क्यों न दिए जाएँ!दूसरी बात, क़र्ज़ के जाल में फंसाने की उसकी रणनीति, किसी देश की स्वतंत्र सोच के साथ स्वतंत्र विदेश नीति को भी खासी प्रभावित करती है, और ऐसा हम न केवल पाकिस्तान, बल्कि श्रीलंका, बांग्लादेश जैसे देशों के मामले में देख चुके हैं. बांग्लादेश के बारे में तो चीन के राजदूत, प्रोटोकॉल उल्लंघन करते हुए ओपन बयानबाजी करते नज़र आये.वहीं श्रीलंका के बारे में तो कहा जा रहा है कि अब वह चीन के पूरे प्रभाव में काम करता है. नेपाल जैसे देश की आतंरिक राजनीति में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने कैसे हस्तक्षेप किया, यह सब मीडिया की सुर्खियाँ बनी रहीं.इन बातों को स्वयं चीन भी समझ रहा है, इसीलिए वह इंतजार करने की पालिसी पर चल रहा है.
बहरहाल, अफगानिस्तान में तुर्की भी एक बड़ा प्लेयर है, और अफ़ग़ानिस्तान में हवाई अड्डों पर उस की फौज तैनात भी है. तुर्की सीधे तौर पर चीन का प्रभाव अफगानिस्तान में बढ़ते देख कर खुश नहीं होगा, और मध्य पूर्व से लेकर नाटो जैसे कई कारण हैं इसके पीछे, लेकिन उसके पास विकल्प भी क्या होगा!कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान का वह चाहे जितना साथ दे और बयानबाजी करे, किंतु अगर पाकिस्तान को चीन और तुर्की में चुनना पड़े तो पाकिस्तान हजार बार चीन को ही चुनेगा!
इस वैश्विक पॉलिटिक्स में ईरान और रूस की क्या भूमिका होगी, यह भी देखने वाली बात होगी. ईरान के नए राष्ट्रपति के साथ भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर मिल चुके हैं, और वहां निश्चित रूप से तालिबान पर दोनों में तालमेल की कोशिश हुई होगी. वैसे भी 900 किलोमीटर से अधिक की सीमा ईरान और अफगानिस्तान की मिलती है. ऐसे में अगर वहां गृह युद्ध का खतरा उत्पन्न होता है, तो ईरान भी निष्पक्ष नहीं रह सकेगा.रूस बहुत पहले से अफगानिस्तान का बड़ा प्लेयर रहा है, और अमेरिका के आने से पहले रूस का इस देश में ख़ासा दखल रहा है.
हालांकि रूस ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं, किंतु तालिबान प्रतिनिधियों के साथ रूस की वार्ता लगातार जारी है.
सच्चाई तो यह है कि अभी कोई भी देश अफगानिस्तान में शांति की बातें करने में हिचक रहा है, और इसका कारण तालिबान का तेज गति से उभरना बताया जा रहा है. जैसे-जैसे उसका प्रभाव बढ़ेगा, वैसे-वैसे बड़े देश अपने पत्ते खोलेंगे.किंतु पत्ते खुलने तक कहीं देर ना हो जाए, और दशकों से अशांति से जूझ रहा यह देश कहीं ऐसा ना हो कि पुनः गृह युद्ध की भेंट चढ़ जाए!
आप क्या सोचते हैं, कमेन्ट बॉक्स में अपने विचार अवश्य बताएं.
(मिथिलेश लेखन से पहले IT Consultant हैं. तकनीक के साथ-साथ परिवार - समाज के मुद्दों पर शोध , विचारों के क्रियान्वयन में लगे रहते हैं)
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1 टिप्पणियाँ
मिथिलेश जी के विचार एकांगी है। अभी इतनी जल्दी नहीं कहा जा सकता कि चीन इस क्षेत्र में बड़ा खिलाड़ी बनेगा।
जवाब देंहटाएंचीन खुद ओ रो ओ बी से जुड़े अपने आर्थिक हितों और चीन में मुस्लिम समुदाय में जो असन्तोष है उसको लेकर तालिबानी अफगानिस्तान से भयभीत है।
भारत की चिंता अपने आर्थिक इन्वेस्टमेंट को लेकर नहीं है। चिंता का कारण तालिबान और पाकिस्तान के संभावित गठजोड से उत्पन्न परिस्थितियों से भी नहीं है।
भारत की चिंता का कारण अफगानिस्तान में भारत के उन लाखों व्यवसायिक प्रतिष्ठानो में कार्यरत कर्मचारियों और श्रमिकों की लेकर है जो भारतीय और अफगानी ही नहीं, सोवियत यूनियन के पुराने साथी देशों के नागरिक भी हैं जो भारतीय परियोजनाओं में कार्यरत हैं।
भारत की की ये परियोजनाएं आर्थिक से अधिक भविष्य में इस क्षेत्र की सांस्कृतिक रिश्तों को मजबूती प्रदान करने वाले हैं।
यह ज्ञात होना चाहिये कि सिल्क रुट ही नहीं, बुद्ध और उसके बहुत पहले से (.काबुलीवाला, रविन्द्र नाथ टैगोर) उस क्षेत्र से हमारे मजबूत सांस्कृतिक रिश्ते रहे हैं।
संस्कृतियाँ एकांगी नहीं होतीं - इसमें अर्थव्यवस्था, सामरिक, रणनीतिक और अनेक प्रकार के अंतर्संबंध जुड़े होते हैं।