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विकास और जातीय राजनीति के दोराहे पर बिहार

बिहार विधानसभा चुनाव की डुगडुगी बज चुकी है और तमाम राजनीतिक दलों ने कमर भी कस ली है. जब हम बिहार की राजनीति पर दृष्टिपात करते हैं तो क्या आम और क्या ख़ास, प्रत्येक आदमी सरकार बनाने और बिगाड़ने की बात सीना ठोक के कहता हुए, चाय और पान की दूकान के साथ बस, ट्रेन, ऑफिस या फूटपाथ हर जगह मिल जाता है. कहा तो यह भी जाता है कि यहाँ का बच्चा बच्चा राजनीति की एबीसीडी समझता है. पिछले दशकों में इस राजनीतिक जागरूकता का फायदा भी हुआ है, खासकर देश में आपातकाल लगाए जाने के समय जिस प्रकार का नेतृत्व बिहार ने पूरे देश को दिया, उसके लिए इस धरती को नमन किया जाना चाहिए. इसके उल्टा यह तर्क भी उतना ही सच है कि कालांतर में राजनीति की इतनी अधिकता होने लगी कि दुसरे सारे काम मसलन उद्योग-धंधे, शासन-प्रशासन इत्यादि ठप्प पड़ते चले गए. स्थिति यहाँ तक बिगड़ी कि यहाँ के लोग थोक के भाव, रोजी रोजगार के लिए बाहर निकलने को मजबूर हो गए. पश्चिम बंगाल, असम, पंजाब, दक्षिण भारत, दिल्ली इत्यादि क्षेत्रों में अपनी जन्मभूमि को छोड़कर निकलना निश्चित रूप से बिहारी लोगों के एक बड़े वर्ग को गहरे तक कचोट गया होगा. पर उनके सामने तत्कालीन 'जंगलराज' में लौट पाना मुमकिन भी कहाँ था. पिछले दिनों स्थिति इतनी ख़राब हो गयी थी कि अपहरण, फिरौती, गुंडई इत्यादि के लिए बिहार वैश्विक स्तर पर कुख्यात हो गया था. जनता के थोड़ा चेतने पर, स्थिति में कुछ सुधार होना शुरू ही हुआ था कि कमबख्त राजनीति ने फिर कुलबुलाना शुरू किया और उसके शिकार बने सुशासन बाबू के नाम से मशहूर नीतीश कुमार. दावे के साथ कहा जा सकता है कि यदि बिहार फिर से सुशासन की पटरी से उतरकर थोथी राजनीति और जंगलराज की ओर फिर बढ़ा तो उसके दोषी सुशासन बाबू ही माने जायेंगे. तमाम उठापटक के बावजूद यह बात भी सिद्ध है कि चुनाव जीतने के बाद भी, लालू और नीतीश का पुराना 'अहम' उन्हें साथ रहने नहीं देगा. यदि उन दोनों ने अपने इगो को किसी तरह समझा भी लिया तो, उनके तमाम प्रत्याशी, जिनको टिकट सिर्फ जीतने की क्षमता के आधार पर ही मिलने की सम्भावना है, सत्ता की बंदरबांट करते नजर आएंगे. अस्तित्व बचाने के लिए यह दोनों साथ जरूर आ गए हैं, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक जानते हैं कि आगे क्या होने वाला है. चूँकि बिहार का प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में नेता है, तो वह भी यह गणित बखूबी समझ ही रहे होंगे. इन दोनों से आगे बढ़ते हैं तो बिहार भाजपा में भी कम कलह नहीं दिखती है. क्या वरिष्ठ, क्या कनिष्ठ सभी कैमरे के सामने खुद को मुख्यमंत्री का दावेदार घोषित करने में ज़रा भी देरी नहीं कर रहे हैं. हालाँकि, भाजपा में नरेंद्र मोदी की इतनी तो चलती ही है कि उनकी एक बात पर सब 'खामोश' हो जायेंगे, पर कोई सर्वमान्य प्रादेशिक नेता न होने की स्थिति में सर फुटव्वल की स्थिति बनी ही रहेगी. सबसे आश्चर्य की बात तब दिखी, जब केंद्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा की छोटी पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री का दावेदार बताया. हालाँकि, यह दावा भाजपा नेताओं की सहमति से ही किया गया लगता है, जिससे अमित शाह और मोदी एनडीए में शामिल दलों को दबाव में लाने की रणनीति बना रहे होंगे. इसका असर भी तुरंत ही सामने आया, जब अपेक्षाकृत बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने सपाट शब्दों में कहा कि उन सबके नेता नरेंद्र मोदी हैं और वह घोड़े, गधे, बकरी .. जिसे भी कहेंगे, उसे वह मुख्यमंत्री स्वीकार कर लेंगे. हाल ही में बड़े कद के नेता बने मांझी के पास खोने के लिए कुछ खास नहीं है, इसलिए भाजपा उन्हें जिस हाल में रखेगी, उन्हें वह स्वीकार होगा. हालाँकि, मांझी पर लालू की राजद ने कई बार डोरे डालने का प्रयास किया, किन्तु मांझी नीतीश कुमार की फितरत समझते हैं और वह यह जानते हैं कि एक बार बगावत कर लेने के बाद अब नीतीश के साथ उनका रहना संभव नहीं है. यहाँ तक कि इन नेताओं के बीच 'आम - लीची' तक का विवाद भी हो चूका है. इन हालातों में कागजों पर भाजपा बीस जरूर नजर आ रही है, किन्तु चुनाव मैदान में लड़े जाते हैं और वहां के समीकरण चुनाव के एक दिन पहले तक बनते बिगड़ते रहते है. यदि यादव, मुस्लिम और नीतीश का वोट बैंक एकजुट हो गया तो भाजपा-गठबंधन को नाकों चने चबाने को मजबूर होना पड़ सकता है, पर यदि यादव वोट बैंक में टूट हुई तो भाजपा का काम कुछ आसान जरूर हो जायेगा. राजद से हाल ही में अलग हुए बाहुबली नेता पप्पू यादव का भी कुछेक सीटों पर प्रभाव है, पर दो ध्रुवीय लड़ाई में छोटे नेता अक्सर गौण हो जाते हैं. बिहार के इस चुनाव में जो सबसे दुर्भाग्यशाली बात नजर आ रही है, वह वहां के जातीय राजनीति के चरम पर पहुँचने को लेकर है. इस चुनाव में जाति-विभाजन की जबरदस्त कोशिश प्रत्येक पार्टी के नेताओं द्वारा की जा रही है, ऐसे में सुशासन के दावों और वादों का कमजोर होना निश्चित है. जनता ने यदि समझदारी से एकमुश्त वोटिंग करने की हसरत नहीं दिखाई और जातीय राजनीति में बंटकर वोटिंग हुई तो बिहार का नुकसान होना तय है. हालाँकि, तथाकथित जंगलराज की याद अभी बिहार की जनता के जेहन से धुंधली नहीं हुई होगी और न ही वह दर्द, जो पलायन को मजबूर बिहारी भुगतता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि बिहार में राजनीतिक उथल पुथल से हटकर स्थिर और विकासवादी सरकार आएगी, जो इगो के बजाय विकासवादी राजनीति करेगी और बिहार सुशासन के पथ पर मात्र चलने के बजाय सरपट दौड़ लगाएगा. इसी में बिहार, बिहारी और देश का हित निहित है. इस बात की जिम्मेदारी राजनीतिक नेता उठाने से तो रहे, क्योंकि उनके सामने एक ही लक्ष्य बचा रह गया है 'येन केन प्रकारेण' चुनाव जीतना. ऐसे में जनता को स्वयं ही जातिगत राजनीति और समीकरणों से हटकर सपाट वोटिंग करनी होगी, अन्यथा राजनीतिक अस्थिरता के भंवर में बिहार फंसा ही रह जायेगा.


Hindi article on bihar assembly election by mithilesh2020

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