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थरूर ने कुरेदा गुलामी का ज़ख्म!

कांग्रेस नेता और संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की ओर से महासचिव पद का चुनाव लड़ चुके शशि थरूर आजकल काफी चर्चा में हैं. चर्चा की कई वजहें हैं, जिनमें एक सोनिया गांधी द्वारा उनको साफगोई के लिए डांट पड़ना था तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा उनकी काउंटर तारीफ़ करना भी चर्चा के कारणों में शामिल रहा है. पीएम ने संसद भवन में स्पीकर रिसर्च इनिशटिव प्रोग्राम के दौरान सभी सांसदों को थरूर की मिसाल देते हुए कहा कि हमें नए विचारों को लेकर अपना दिमाग खुला रखना चाहिए. खैर, इन दोनों बातों के अतिरिक्त उनका ज़िक्र जिस बात के लिए सबसे ज्यादा हो रहा है, वह उनके एक वक्तव्य के वीडियो के लिए है. उनका एक वीडियो यूट्यूब पर जबरदस्त ढंग से वायरल हो रहा है, जिसमें उन्होंने ब्रितानी साम्राज्य से भारत को गुलाम करने और उसका शोषण करने के लिए हर्जाने की मांग की है. इस साल मई के अंत में ऑक्सफ़ोर्ड यूनियन में एक वाद-विवाद का आयोजन किया गया. विषय था 'इस सदन का यह मानना है कि ब्रिटेन को अपने पूर्व की कॉलोनियों को हर्जाना देना चाहिए.' बहस में कंज़रवेटिव पार्टी के पूर्व सांसद सर रिचर्ड ओट्टावे, भारतीय सांसद और लेखक शशि थरूर और ब्रितानी इतिहासकार जॉन मैकेंजी ने हिस्सा लिया. वीडियो वायरल होने की तिथि के समय ही, संयोगवश 23 जुलाई को महान क्रन्तिकारी चंद्रशेखर आज़ाद का जन्मदिवस भी है, तो ऐसे में गुलामी काल का ज़ख्म फिर ताजा हो गया है. अंग्रेजों द्वारा गुलाम भारत को मुक्त कराने में न जाने कितने महानायक स्वतंत्रता की बलि-बेदी पर शहीद हो गए. उनकी संख्या सैकड़ों, हज़ारों, लाखों से भी ज्यादा रही है. चंद्रशेखर आज़ाद जैसे अनेक क्रन्तिकारी तो गुलामी में ही पैदा हुए और संघर्ष करते हुए गुलामी में ही अपना बलिदान सहर्ष दे दिया. जहाँ तक बात शशि थरूर की है, तो वह एक मंझे हुए अंतर्राष्ट्रीय स्तर के वक्ता हैं और अपनी प्रतिभा का सदुपयोग उन्होंने इस बहस में भरपूर किया है, जो नजर भी आता है. भारतीय अर्थव्यवस्था, भारतीय उद्योग, भारत का शोषण, ब्रिटिश शासन का हित, शोषण और अपने लाभ के लिए रेल का इस्तेमाल और विश्व युद्ध में भारत का इस्तेमाल आदि विषयों पर उनके सटीक विचार सुनकर मन 1947 से पहले के समय में स्वतः ही पहुँच जाता है और एक तरफ ब्रिटेन के लिए नफरत तो अपने शहीदों के प्रति करुणा का भाव उत्पन्न हो जाता है. इस मुद्दे पर थरूर का वक्तव्य रोने-धोने और इमोशनल होने के बजाय तार्किक ज्यादा है, मसलन 18वीं शताब्दी की शुरुआत में विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी 23 फ़ीसदी थी, जो कि पूरे यूरोप की हिस्सेदारी से अधिक थी. लेकिन जब ब्रितानी भारत छोड़कर गए तो यह घटकर चार फ़ीसदी से भी कम रह गई थी. थरूर आगे तर्क देते हैं कि ब्रिटेन का औद्योगिकरण भारत के उद्योगों को मिटाकर ही संभव हुआ. भारतीय कपड़ा उद्योग कोे तबाह कर दिया गया, तो दूसरी ओर ब्रिटेन में जो उद्योग लगाए गए, उनमें भारत का कच्चा माल इस्तेमाल हुआ और जब माल तैयार हो जाता, उसे भारत और दुनिया के अन्य औपनिवेशिक देशों को निर्यात कर दिया जाता था. अपने वक्तव्य में भारतीय उद्योगों के नाश होने को लेकर थरूर ने बंगाल के बुनकरों का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किया है. थरूर के वक्तव्य का सबसे मार्मिक हिस्सा भारतीयों के शोषण का वह आंकड़ा है, जिसके अनुसार ब्रितानियों ने बहुत ही बेरहमी से भारत का शोषण किया. डेढ़ करोड़ से दो करोड़ 90 लाख भारतीयों की भूख की वजह से मौत हो गई. अकेले बंगाल में 1943 में पड़े अकाल में क़रीब 40 लाख लोगों की मौत हुई. तब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने जानबूझकर खाद्यान्न को भूख से मर रहे भारतीयों की जगह संपन्न ब्रितानी सैनिकों के लिए यूरोपीय भंडारों में रखने का आदेश दिया था. थरूर ने ब्रिटिशर्स के भारतीय रेलवे में योगदान को भी उचित ढंग से नकार दिया और कहा कि रेलवे का निर्माण भारतीय लोगों की सेवा के लिए नहीं किया गया था. उसे हर तरफ़ से ब्रितानियों की मदद के लिए ही बनाया गया था. इससे भी बड़ी बात यह थी कि इसके ज़रिए वो भारतीय कच्चे माल को ब्रिटेन भेजने के लिए बंदरगाहों तक पहुंचाते थे. रेलगाड़ियों से लोगों की आवाजाही संयोगवश ही थी और रेल के निर्माण में यातायात के लिए लोगों की ज़रूरतों पर कभी ध्यान नहीं दिया गया. इस बात में कोई शक नहीं है कि ब्रिटिशर्स ने भारत को कभी भी एक वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं समझा और उसका प्रत्येक तरह से शोषण ही किया, परन्तु खुद से भी प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि आज़ादी के बाद हमारे अपने लोगों ने हमारे साथ क्या किया? देखा जाय तो थरूर की बहस का वीडियो एक ऐतिहासिक सन्दर्भ है, जो हमें अपने वर्तमान को आईने में देखने की जरूरत पैदा करता है. एक अपुष्ट आंकड़े के अनुसार, जितना धन अपने 200 साल के शासन काल में ब्रिटिशर्स अपने देश में ले गए, उससे सौ गुणा काला धन, स्विस बैंक में आज़ादी के बाद भारतीयों के जमा हैं. इस विषय पर कई बड़े आंदोलन हुए हैं तो एक बॉलीवुड मूवी 'नॉक आउट' भी बानी है, जो सन्दर्भों को मार्मिक ढंग से छेड़ती है. इस बात में कोई शक नहीं है कि भारतीय इतिहास के पन्नों को पलटने से दर्द ही मिलेगा, लेकिन यदि उससे सीख भी हासिल की जाती है तो गुलामी का ज़ख्म काफी हद तक भर सकता है, अन्यथा.... ज़ख्म बढ़ता ही जायेगा! शशि थरूर के इस वक्तव्य को सुना जाना चाहिए, बल्कि जरूर ही सुना जाना चाहिए, क्योंकि उपरोक्त तथ्यों के अतिरिक्त भी उन्होंने जलियावाला नरसंहार, विश्वयुद्ध में भारतीयों का ब्रिटिशर्स द्वारा इस्तेमाल किये जाने को भी ठीक ढंग से उकेरा है. हालाँकि, इन तमाम तर्कों से परे, ब्रिटिशर्स ने भारत को जो सबसे बड़ा नुक्सान पहुँचाया, वह वर्णित आंकड़ों से कहीं ज्यादा ज़ख्म देने वाला रहा है, जिसका ज़िक्र करने से थरूर ने खुद को जानबूझकर बचा लिया होगा. शशि थरूर शायद, विवादों से बचने के लिए ही अंग्रेजों द्वारा 'धार्मिक विद्वेष' उत्पन्न करने वाली नीतियों की चर्चा से दूर हटे होंगे, जो बाद में भारत विभाजन और आज़ादी के बाद भी भारत-पाकिस्तान के दरमियाँ तमाम युद्धों की जड़ बना है. क्या यह सच नहीं है कि अपने शासन को कायम रखने के लिए अंग्रेजों ने कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी का इस्तेमाल किया और मंदिर के बाहर गोमांस फेंककर तो, मस्जिद के बाहर सूअर का मांस फेंककर धार्मिक विद्वेष को बढ़ाने का कार्य करते रहे. यही नहीं, जिन्ना जैसों को पोषित करने में और कश्मीर समस्या को उलझाने में तत्कालीन ब्रिटिशर्स की भूमिका दर्ज है. हालाँकि, अब इन ऐतिहासिक बातों से सीख ही ली जा सकती है, जो हमारे भविष्य को सुखद बनाने की दिशा में अहम साबित होगी. जहाँ तक शशि थरूर का प्रश्न है, तो इस मुद्दे पर वह निश्चित रूप से धन्यवाद के पात्र हैं. अपने भाषण में वह 'कोहिनूर' हीरे पर भी चुटकी लेने से नहीं चुके और कहा कम से कम ब्रिटेन भारत से ले जाए गए कोहिनूर हीरे को ही लौटा दे और अगले दौ सौ साल तक एक पौंड प्रतिवर्ष की दर से प्रतीकात्मक हर्जाना दे, इसी से भारतीय खुश हो जायेंगे.
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