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न तुम्हें लेना, न मुझे देना...

मूडीज इन्वेस्टर्स सर्विस ने कहा है कि यदि भारत सरकार आर्थिक सुधारों का एजेंडा लागू करती है और अगले साल महंगाई जैसी समस्याएं नियंत्रण में रहती हैं तो देश की रेटिंग सुधारी जा सकती है. समझना दिलचस्प है कि मूडीज जैसी संस्थाओं के आर्थिक सुधारों का एक बड़ा ईशारा मजदूर और हड़तालबाजी की तरह भी होता है. श्रम सुधारों से सम्बंधित जो दूसरी बात आम जनमानस की समझ में ज्यादा  आती है वह निश्चित रूप से बाल सुधारों से सम्बंधित है. अधिकतर चाय, नाश्ता की दुकान, होटलों में, धनाढ्य घरों में बाल श्रम कानून की आज भी धज्जियां उड़ायी जा रही है, मगर इस सम्बन्ध में शायद ही किसी शार्मिक संगठन ने प्रश्न उठाया हो. खैर, श्रम सुधारों से सम्बंधित अपनी बारह सूत्रीय मांगों को लेकर मजदूर संगठनों ने देशव्यापी आंदोलन कर ही लिया और चूँकि अधिकांश मजदूर संगठनStrike of labour unions in India, Hindi article, modi ministers इसमें शामिल थे तो इसका असर भी पड़ा ही. हालाँकि, भाजपा समर्थित भारतीय मजदूर संघ और नेशनल फ्रंट आफ इंडियन ट्रेड यूनियंस ने हड़ताल में शामिल नहीं होने का फैसला किया, साथ में तृणमूल कांग्रेस ने भी इस बंद का विरोध किया, मगर इसके बावजूद हड़ताल का ख़ासा असर देखा गया और पश्चिम बंगाल समेत वाम मोर्चे के गढ़ केरल में जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा. मजदूर संघों की मांग अपनी जगह जायज नाजायज हो सकती है, मगर इन संगठनों को यह ध्यान देना चाहिए कि आम जनजीवन को प्रभावित किये वगैर भी अपने गुस्से और मांग का व्यवहारिक दस्तावेज सरकारों तक पहुँचाया जा सकता था, मगर हालिया हड़ताल से यही जाहिर हुआ कि मजदूर संगठनों में आपसी वर्चस्व की जंग भी चल रही है. इस हड़ताल के तहत दिल्ली में 85 हजार ऑटोरिक्शा और 15 हजार टैक्सियां नहीं चलीं, जिसके कारण यात्रियों की मजबूरी का फायदा उठाते हुए कई चालकों ने मनमाना किराया भी वसूला. रेल रोकने से यात्री परेशान रहे और बैंकिंग सेवाएं तो खैर बाधित हुईं ही. जानना दिलचस्प होगा कि स्टेट बैंक, आईसीआईसीआई, एचडीएफसी जैसे बैंक इस हड़ताल से बाहर रहे तो रत्नाकर बैंक, कोटक महिंद्रा इत्यादि ने इसका समर्थन किया.
इस बंद पर पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि ट्रेड यूनियनों ने नासमझी में हड़ताल का फैसला लिया था, जबकि मजदूर संगठनों की पांच मांगों पर सरकार ने विचार का भरोसा दिया है. यही बात भारतीय मजदूर संघ भी कह रहा है कि अन्य मजदूर संगठनों को जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए और सरकार को समस्याओं को सुलझाने के लिए पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि बदलते समय में श्रम सुधारों के लिए सरकार पर भारी दबाव है. अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं का मकड़जाल कुछ इस तरह फैला हुआ है कि चाहकर भी भारत सरकार एकतरफा फैसला नहीं ले सकती है और उसे अंतर्राष्ट्रीय श्रम सुधारों की परिधि में ही फैसला लेना होगा. इसके साथ यह बात भी छुपी हुई नहीं है कि भारत में निवेश करने की संभावनाएं खोजने वाले और कारखानों के मालिक मोदी सरकार से कुछ ज्यादा ही उम्मीद लगाए बैठे हैं तो श्रमिक संगठन इसी लिए सशंकित भी हैं. हालाँकि, लाल किले से मोदी ने कहा था कि मज़दूरों को पीएफ़ खाते के लिए एक पहचान नंबर दिया है और 44 श्रम क़ानूनों को चार आचार संहिताओं में समेटा है. मगर, मजदूर आंदोलन जिसमें सीटू, इंटक, एटक, हिन्द मज़दूर सभा, एआईयुटीयुसी, टीयुसीसी, सेवा, एलपीऍफ़, एआईसीसीटीयु, युटीयुसी शामिल हैं, उनकी मांगे और ज्यादा की उम्मीद रखती हैं. इसमें श्रम कानूनों में श्रमिक व कर्मचारी विरोधी बदलाव वापस लेना, सरकारी उपक्रमों का विनिवेश और निजीकरण बंद करना, न्यूनतम मजदूरी 15,000 प्रति माह करना, कामगार रखने के लिए ठेका प्रणाली खत्म करना, श्रमिक विरोधी कानून लागू नहीं करना, अगले वर्ष जनवरी से 7वां Strike of labour unions in India, Hindi article, labourवेतन आयोग लागू करना, महंगाई पर रोक लगाना और सड़क परिवहन एवं सुरक्षा विधेयक को अपने मूल रूप में रखने की मांग शामिल है. जाहिर है, इन मांगों में कई अजेंडे सीधे तौर पर राजनीतिक दिखते हैं. हालाँकि, मोदी सरकार पर यह आरोप आम तौर पर लगाए जा रहे हैं कि उसकी सरकार पूंजीपतियों की सरकार है और गरीब-मजदूरों के हितों के साथ खिलवाड़ कर रही है, मगर यहाँ यह समझना भी आवश्यक है कि भारत की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था लगातार चरमराती जा रही है तब औद्योगीकरण ही एकमात्र विकल्प बचता है, जिसे मोदी सरकार पूरे दमखम के साथ आजमाना भी चाह रही है. ऐसी स्थिति में श्रम सुधार के साथ-साथ मजदूर हितों का तालमेल ही आखिरी विकल्प है, जिससे संघर्ष की न्यूनता और उत्पादकता में बढ़ोतरी दर्ज की जा सकती है. हालाँकि, इस आंदोलन की दिशा और सरकार की बेफिक्री देखकर इसकी सम्भावना कम ही नजर आ रही है कि मजदूर संगठनों और केंद्र सरकार के बीच निकट भविष्य में तालमेल बढ़ाने की कोशिश होगी और ऐसी स्थिति में और ज्यादा हड़ताल होने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जाStrike of labour unions in India, Hindi article, stock market सकता है, जिससे आम जनमानस की परेशानियां ही बढ़ेंगी और फायदा किसी को भी नहीं होगा. सच कहा जाय तो इस हड़ताल से न तुम्हें लेना, न मुझे देना की उक्ति ही चरितार्थ होती दिखी है. कम्युनिस्टों के देसी और विदेशी किले ढह चुके हैं, हालाँकि कहने को चीन आज भी कम्युनिस्ट देश है, मगर वहां की सरकार मजदूरों के प्रति किसी पूंजीवादी देश से से भी ज्यादा सख्त है. हालाँकि, यह बात भी उतनी ही सच है कि मजदूरों के प्रति अन्याय दीर्घकालिक संघर्ष को ही जन्म देगा. ऐसे में उनको स्किल करने में मोदी सरकार का 'स्किल इंडिया' प्रोग्राम किस प्रकार सहायक हो सकता है यह देखने वाली बात होगी, साथ ही साथ मजदूर संगठनों की व्यवहारिक मांग पर सरकार का रवैया कितना लचीला रहता है, आने वाले समय में इस पर भी दृष्टि बनी रहेगी.
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