तोड़ दे हर 'चाह'
नफरत वो बीमारी है
इंसानियत से हो प्यार
यही एक 'राह' न्यारी है
बंट गया यह देश फिर
लेकिन अक़्ल ना आयी
रहना तुमको साथ फिर
क्यों 'शक़्ल' ना भायी
'आधुनिक' हम हो रहे
या हो रहे हम 'जंगली'
रेत में उड़ जाती 'बुद्धि'
सद्भाव हो गए 'दलदली'
हद हो गयी अब बस करो
नयी पीढ़ी को तो बख़्श दो
ज़हरीलापन बेवजह क्यों
धर्मान्धता को तज भी दो
- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'.
Hindi Poem on Religious Environment, Hindu, Muslim |
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