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आवाजों के घेरे: कवि दुष्यंत कुमार 'Aawajon ke Ghere, Poetry by Dushyant kumar'


दुष्यंत कुमार अपने आप में एक पहचान हैं. उनकी कविताएं, उनके जीवन की परतों की तरह लगती हैं, जो समय के साथ एक-एक करके उतरती जाती हैं. व्यवस्था के खिलाफ बात कहने की पराकाष्ठा का नाम हैं दुष्यंत कुमार. अपने आप से, अपने परिवेश और व्यवस्था से नाराज कवि के रूप में दुष्यंत कुमार की कविताएं हिंदी का एक आवश्यक हिस्सा बन चुकी हैं.
आठवें दशक के मध्य और उत्तरार्ध में अपनी धारदार रचनाओं के लिए बहुचर्चित दुष्यंत जिस आग में होम हुए, उसे उनकी रचनाओं में लम्बे समय तक महसूस किया जाता रहेगा.दुष्यंत कुमार द्वारा लिखित, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'आवाजों के घेरे' को पढ़ने का मौका मिला. इन कविताओं में एक प्रकार की निरर्थकता और ठहराव का जो बोध मौजूद है, वह सार्थक और गतिशील होने की छटपटाहट से भरा हुआ है. 
दुष्यंत की कविताओं में पर्याप्त गेयता है, जिन्हें पढ़ने के दौरान नीरसता का बोध नहीं होता है.
इस 'काव्य-संग्रह' में 51 कविताएं हैं, जो जीवन के अलग-अलग भावों को उकेरती हैं. अपनी पहली कविता, जिसका शीर्षक 'आज' है, में दुष्यंत कुमार ने वर्तमान की प्रतीक्षा, विफलता, परिस्थिति की नीरसता का बोध कराया है, वहीं अपनी अगली कविता 'दृष्टान्त' में कवि अपने हृदय-व्यथा की तुलना अभिमन्यु की 'वीरगति' से करता है, और इस बात का मलाल करता है कि अभिमन्यु तो लड़ कर मारा, जबकि मेरा मन बिना लड़े ही हार गया. देखिये इन अंतिम पंक्तियों में-

ओ इस तम में छिपी हुई कौरव सेनाओं!आओ! हर धोकेह से मुझे लील लो,मेरे जीवन को दृष्टान्त बनाओ;नए महाभारत का व्यूह वरूँ मैं.कुंठित शस्त्र भले हों हाथों मेंलेकिन लड़ता हुआ मरूं मैं

दुष्यंत का दर्द-ए-हाल बयाँ होता रहता है. 'आग जलती रहे' शीर्षक में कवि 'चरैवेति-चरैवेति' सिद्धांत की बात करता है-
'अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे,ज़िन्दगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे.

अगली कविता 'सूखे फूल: उदास चिराग' शायद तत्कालीन निराशावादी परिस्थिति से उपजा हुआ असंतोष है. इसकी एक पंक्ति देखिये-
मैं क्या कहता आखिर उस हक लेनेवाली पीढ़ी सेदेने पड़े विवश होकर वे सूखे फूल, उदास चिराग

एक पल की ख़ुशी का भी अपना महत्त्व है, यह दुष्यंत की अगली कविता 'साँसों की परिधि' नें परिलक्षित होता है. जबकि 'अनुकूल वातावरण' अाने वाली पढ़ी के प्रति जिम्मेवारी का बोध कराती है. देखिये, इसकी चंद लाइनें-
एक नन्हा-सा गीतआओइस शोरोगुल मेंहम-तुम बुनें,और फेंक दें हवा में उसकीताकि सब सुनें,

'कौन-सा पथ...' में कवि का साहस दृष्टिगोचर होता है. देखिये-
कौन-सा पथ कठिन है...?मुझको बताओमैं चलूँगा.

किताब के शीर्षक 'आवाजों के घेरे' में कवि दिखावे पर कड़ा कटाक्ष करते हुए, पाखण्ड को दुरुस्त करने को कहता है-
मित्रों!मुझसे हमदर्दी है तोमेरी बेचैनी का कारण समझो-बूझोआओमेरे संग-संग इन आवाजों से जूझोइनकी ध्वनियों को बदलोइनके अर्थों को बदलोइनको बदलो!

'ओ मेरे प्यार के अजेय बोध' में मनुष्य के संकुचन का रेखांकन हुआ है. इसकी कुछ लाइनों को देखिये-
ओ मेरे प्यार के अजेय बोध,शायद ऐसा ही हो कि मेरा अहसास मर गया होक्योंकि मैंने कलम उठाकर रख दी है.और अब तुम आओ या हवाआहट नहीं होती,बड़े-बड़े तूफ़ान दुनिया में आते हैंमेरे द्वार पर सनसनाहट नहीं होती... और मुझे लगता हैअब मैं सुखी हूँ-ये चंद बच्चे, बीवीये थोड़ी-सी तनख्वाहमेरी परिधि है जिसमें जीना हैयही तो मैं हूँइससे आगे और कुछ होने से क्या?

कवि खुद के माध्यम से समाज को जागृत करते हुए इसी कविता में आगे कहता है-
... जीवन का ज्ञान है सिर्फ जीना मेरे लिएइससे विराट चेतना की अनुभूति अकारथ हैहल होती हुई मुश्किलेंखामखा और उलझ जाती हैं.और ये साधारण-सा जीना भी नहीं जिया जाता है.मित्र लोग कहते हैंमेरा मन प्राप्य चेतना की कडुवाहट कोपी नहीं सका,उद्धत अभिमान उसे उगल नहीं सका.

परंपरा के खिलाफ दुष्यंत कुमार का बगावती सूर उनकी अगली रचना में खुल कर आया है, जिसका शीर्षक है
'अच्छा-बुरा'. देखिये-यह कि चुपचाप जिए जाएँप्यास पर प्यास जिए जाएँकाम हर एक किये जाएँऔर फिर छिपाएंवह ज़ख्म जो हरा हैयह परंपरा हैकिन्तु इंकार अगर कर देंदर्द को बेबसी को स्वर देंहाय से रिक्त शून्य भर देंखोलकर धर देंवह ज़ख्म जो हरा हैतो बहुत बुरा है

मनुष्य के विवेक को चुनौती देते हुए कवि अगली कविता 'विवेकहीन' में कहता है-
कब तक सहता रहताअन्यायी वायु के प्रहारों को मौन यों हीगरज उठा सागर-विवेक-हीन जल है, मनुष्य नहीं.

'भविष्य की वंदना' में पुरुषार्थ की बातें प्रमुखता से उठाई गयी हैं-
खंडित पुरुषार्थगांडीव की दुहाई देता हुआ, निष्क्रिय हैकर्म नहीं-केवल अहंकार को जगाता है!

सीता-हरण से वर्तमान में स्त्री-विमर्श और जटायु से वीरता को जोड़ते हुए कवि इसी कविता की अगली पंक्तियों में कहता है-
अव्वल तो जटायु नहीं आजऔर हो भी तो कब तक लड़ पायेगा?...राम युद्ध ठानेंगे सामने मशीनों के ?वानरों की सेना से!जो कि स्वयं भूखी है आज!अपने नगर के घरों मेंमुंडेरों पर बैठकररोटी ले भागने की फिक्र में रहती है

दुष्यंत जैसा कवि ही आज के कथित 'मनुष्यों' की तुलना उन बंदरों से कर सकता है जिनका खुद का ईमान नहीं है और वह नारी को खसोटने में लगे रहते हैं, वह भला क्या रक्षा करेंगे. उनका पुरुषार्थ तो है ही नहीं.

भटके हुए लोगों को प्रेरणा दी है दुष्यंत ने 'राह खोजेंगे...' शीर्षक की कविता में, इसकी अंतिम पंक्तियाँ हैं-

आह!वातावरण में बेहद घुटन हैसब अँधेरे में सिमट जाओऔर सट जाओऔर जितने आ सको उतने निकल आओहम यहाँ से राह खोजेंगे.

'सूना घर' में कवि का हृदय एकांत की पीड़ा महसूस करता है, वहीं 'गांधीजी के जन्मदिन पर' याद करते हुए दुष्यंत कुमार उनको शिद्दत से याद करते हुए उनकी कमी को रेखांकित करते हुए कहते हैं-
तुम मुझको दोषी ठहराओमैंने तुम्हारे सुनसान का गाला घोंटा हैपर मैं गाऊँगाचाहे इस प्रार्थना सभा मेंतुम सब मुझ पर गोलियां चलाओमैं मर जाऊंगालेकिन मैं कल फिर जनम लूँगाकल फिर आऊंगा.

अपनी एक और कविता 'स्वप्न-खंड' में कवि की एक निराशावादी लाइन देखिये-
कौन मार्ग-दर्शक ऐसागलत पथ सुझा गया ?छोटा-सा एक स्वप्नदुनिया दिखा गया!!

'आत्म कथा' नामक कविता में स्वयं का आंकलन करने को प्रेरित करती हुई कविता कहती है-
युग-युगान्तरों का तिमिरघनीभूतसामूहिकसामने खड़ा पाया.

इसी कविता की एक और लाइन है-
अधर सी दिए हैं इनकेबड़े-बड़े तालों नेजिन्हें मर्यादा की चाबियाँ घुमाती हैं.

'सरस्वती-वंदना' में अपना समर्पण उड़ेलते हुए कवि ने कहा है-
ओ माँ !मैं पहले था थोड़ा अविनीतधृष्टउद्धतदुस्साहस-युत, क्रोधी,पर माँइस दुनिया नेअनुभव नेपीड़ा नेमुझमें भी ज्ञान-बेलि बो दी.

'परंपरा-वियुक्त' में दुष्यंत कहते हैं-
मेले में भटके होते तोकोई घर पहुँच जाताये घर में भटके हैं:

इसी तरह हालातों पर कटाक्ष उनकी 'ज़िन्दगी कहाँ?' में भी जारी रहता है, देखिये-
ज़िन्दगी दिखाई देती हैकब्रों में या दरगाहों मेंमंदिर में या शमशानों मेंमिटटी से दबी हुईमिटटी में मिली हुईपूजा के बेलों पर कँपतीया घुटनों के बल झुकी हुई.

दूर से नज़ारे देखने वालों पर, उथले साहित्यकारों पर दुष्यंत का कड़ा प्रहार दिखता है 'प्रश्न-दृष्टियाँ' में-
...किन्तु जो सैनिक पराहतभूमि पर लुंठित पड़े हैंतुम्हारा साहित्य उन तक नहीं जातायह तटस्थ दया तुम्हारीऔर संवेदना उनको बींधती है.

इसी कविता में अंतिम लाइन है-
इस समर को दूर से देखने वालों,ये उदास-उदास आँखें मांगती हैंदया मत दोइन्हें उत्तर दो.

'एक मित्र के नाम' दुष्यंत की सुन्दर और गेयता से परिपूर्ण रचना है, जिसमें वह कहते हैं-
अर्थ मैं समझता हूँइन बुझी निगाहों काजी रहा ठहाकों परपुंज हूँ व्यथाओं का

दुष्यंत की कविता पढ़ते समय आपको यह आसानी से आभाष हो जायेगा कि उनका शब्द-व्यूह ठीक उसी प्रकार बना है, जैसे कोई किला और आप उन रचनाओं में खो से जाते हैं, एकाग्रता भंग नहीं होती है और आप एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच ही जाते हैं. 'साथियों से' शीर्षक से उनकी रचित कविता की अंतिम पंक्तियाँ देखिये-
साथियों, सघन वन के सन्नाटे मेंमेरी आवाजें कभी नहीं हारीं,ये लगा मौन जितना गहरा होगाआवाज पड़ेगी उतनी ही भारीसाथियों, फर्ज मैं अपना निभा चलासाथियों, तुम्हारी आयी है बारी.

इस पूरी किताब 'आवाजों के घेरे' को आप एक बार में ही पढ़ जायेंगे और भावार्थ आपके अंतर में उतरते चले जायेंगे. किताब पढ़ने के बाद आपको यह भी आभाष होगा कि आप अपने सामने बैठे किसी व्यक्ति से बातें कर रहे हैं और यह किताब कई साल पहले लिखी होने के बावजूद कई सन्दर्भों में आज भी उतनी ही प्रासंगिक है.

Aawajon ke Ghere, Poetry by Dushyant kumar, Book Review by Mithilesh
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- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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