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भारतीय लोकतंत्र के महत्वपूर्ण हिस्से चुनाव माने जाते हैं.
हाल-फिलहाल लोकसभा से ठीक पहले सेमीफाइनल राउंड माने जा रहे पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आ चुके हैं.
हमेशा की तरह कोई जीता है तो कोई हारा है!
यह बातें अपनी जगह ठीक हैं, किंतु क्या वाकई इन चुनाव-परिणामों से 'जनता की हालत' में कुछ बदलाव आ जायेगा?
अगर हम सच में ऐसा सोचते हैं तो हम बहुत ही 'भोले' हैं!
चुनाव और उसके परिणामों की खूब चर्चाएं हुई हैं, मंथन हुए हैं, संपादकीय लिखे गए हैं, तमाम एनालिटिकल रिपोर्ट्स आई हैं... जिसके आधार पर आगे के राजनीतिक रूझानों की बातें कही-सुनी जा रही हैं.
बड़ा सवाल उठता है कि आजादी के इतने साल बाद भी जनता केवल 'बटन दबाने की मशीन' बन कर क्यों रह गई है? उसकी इंपॉर्टेंस पहले मोहर मारने तक की ही थी और आज भी मशीन का बटन दबाने तक ही है.
सच कहा जाए तो 'बदलाव लाने के कारकों' पर हमारी नजर ही नहीं रह पाती, जनता नज़र रख ही नहीं पाती, इसलिए नए जन-प्रतिनिधियों और सरकार के चुनाव के बाद भी जनता 'बदलाव लाने के लिए आवश्यक दबाव बनाने में विफल रह जाती है.
कहने को बेशक कहा जाता है कि जनता मालिक है और जन-प्रतिनिधि उसके सेवक, किन्तु यह बातें "भाषणों" में ही रह जाती हैं. कोई अपने भाषणों में 'प्रधान-सेवक' बन कर खुश रह लेता है तो कोई अपने भाषणों में 'मोहल्ला-सेवक' अथवा 'सेवक'...
ज़रा गौर कीजिये, ध्यान दीजिये कि कल चुनाव तक जो जन-प्रतिनिधि या जन-प्रतिनिधियों के प्रतिनिधि आपके दरवाजे तक आये थे, वह पांच साल तक दर्शन के लिए भी संभवतः उपलब्ध नहीं रह सकेंगे. और तो और कई ज़रुरत पड़ने पर आपके फोन नहीं उठाएंगे और आप ठगे से सोचते रह जायेंगे कि क्या वाकई यह वही लोग हैं, जो चुनाव के वक्त आपके दरवाजे पर घुटने टेकने आये थे?
इस क्रम में आइए जानने की कोशिश करते हैं कि जनता के नजरिए से चुनाव में क्या बदलता है और क्या नहीं बदलता है और इसके कारण-निवारण क्या हो सकते हैं:
वोट की कीमत
सबसे बड़ी वजह यही है.
जनता को अपने वोट की कीमत नहीं पता है इस वजह से वह हमेशा 'लॉलीपॉप' लेकर खुश हो जाती है.
जी हाँ! कभी चुनाव से पहले मिलता है उसे 'लॉलीपॉप' तो कभी चुनाव के बाद...
अब देखिये न अभी-अभी मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार ने शपथ ली है और किसानों की कर्जमाफ़ी वाली फाइल पर दस्तखत कर दिया है. न... न... न... मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि 'किसानों की कर्जमाफ़ी' नहीं की जानी चाहिए, किन्तु क्या वाकई इससे स्थिति में स्थाई बदलाव आ सकेगा?
तो यह लॉलीपॉप नहीं हुआ तो क्या हुआ?
बिना यह सोचे, जांच किये कि पात्र कौन है, कुपात्र कौन है और कौन किसानों के नाम पर कर्जमाफ़ी की रकम को डकार जायेगा.
और जनता... ??
जनता खुश, अपने 'वोट' के बदले लॉलीपॉप पाकर.
काश कि जनता, सामाजिक कार्यकर्त्ता इस बारे में... दूरगामी और स्थाई समाधानों के बारे में जनता को जागरूक कर पाते तो जनता अपने 'वोट' की कीमत समझ पाती और तब संभवतः स्थिति में बदलाव भी आ सकता था.
भागीदारी
दूसरा बड़ा कारण है जनता की स्थिति न सुधरने की!
प्रशासन पब्लिक के प्रति जिम्मेदार इसलिए नहीं होता है, क्योंकि किसी भी योजना में पब्लिक की भागीदारी 'नगण्य' ही है. शहरों में सड़कें टूटी हुई हैं... सालों-साल नहीं बनती, कोई पूछने वाला नहीं!
डिजिटल-इंडिया के दौर में भी इस बारे में कहीं कोई सूचना नहीं उपलब्ध होती है कि आखिर वह सड़क कब तक बनेगी, टूटी क्यों और उसे बनाने वाला ठेकेदार कौन है?
ऐसे में जनता प्रभावी रूप से कुछ नहीं कर सकती.
दूसरी तरफ निगरानी की प्रक्रिया के लिए जो एकाध जिम्मेदार अफसर हैं, उनका मुंह बंद करना 'ठेकेदारों' को बखूबी आता है और ऐसा ही होता है.
काश कि पब्लिक को इन सभी बातों का एक्सेस होता, भागीदारी होती... तो सभवतः ऐसा न होता.
कभी-कभार आंदोलन ज़रूर होते हैं, किन्तु वह राजनीतिक हितों की बलि चढ़ जाते हैं. पार्टियां आंदोलनों को हाईजैक कर लेती हैं और अंततः आंदोलनों का उद्देश्य भी समाप्त हो जाता है. यहां तक कि आरटीआई कानून आने के पश्चात भी पब्लिक की निगरानी करने की क्षमता कुछ खास नहीं बढ़ सकी है. हाँ, शुरुआत में ज़रूर लगा था कि इस कानून से कुछ बदलाव आ सकेगा... पर अब तो कई आरटीआई एक्टिविस्ट जान से हाथ तक धो बैठे हैं, क्योंकि उन्होंने कुछ ऐसी जानकारियां मांगी, जिनसे रसूखदारों को तकलीफ पहुँच रही थी.
और भी कई कारण हो सकते हैं और आपके दिमाग में भी अगर पब्लिक को हमेशा 'बाबाजी का ठुल्लू' मिलने का कारण कुदबुदा रहा है तो कमेंट-बॉक्स में ज़रूर बताएं.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
भारतीय लोकतंत्र के महत्वपूर्ण हिस्से चुनाव माने जाते हैं.
हाल-फिलहाल लोकसभा से ठीक पहले सेमीफाइनल राउंड माने जा रहे पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आ चुके हैं.
हमेशा की तरह कोई जीता है तो कोई हारा है!
यह बातें अपनी जगह ठीक हैं, किंतु क्या वाकई इन चुनाव-परिणामों से 'जनता की हालत' में कुछ बदलाव आ जायेगा?
अगर हम सच में ऐसा सोचते हैं तो हम बहुत ही 'भोले' हैं!
चुनाव और उसके परिणामों की खूब चर्चाएं हुई हैं, मंथन हुए हैं, संपादकीय लिखे गए हैं, तमाम एनालिटिकल रिपोर्ट्स आई हैं... जिसके आधार पर आगे के राजनीतिक रूझानों की बातें कही-सुनी जा रही हैं.
पर यह प्रश्न विचारणीय है कि हर एक चुनाव के बाद जनता की हालत कमोबेश पुरानी जैसी ही क्यों रहती है?
आखिर, रत्ती भर भी 'खुशहाली' आनी चाहिए न... वह लोगों के जीवन-स्तर में क्यों नहीं आ पाती है?
बड़ा सवाल उठता है कि आजादी के इतने साल बाद भी जनता केवल 'बटन दबाने की मशीन' बन कर क्यों रह गई है? उसकी इंपॉर्टेंस पहले मोहर मारने तक की ही थी और आज भी मशीन का बटन दबाने तक ही है.
Pic: scmp.com |
सच कहा जाए तो 'बदलाव लाने के कारकों' पर हमारी नजर ही नहीं रह पाती, जनता नज़र रख ही नहीं पाती, इसलिए नए जन-प्रतिनिधियों और सरकार के चुनाव के बाद भी जनता 'बदलाव लाने के लिए आवश्यक दबाव बनाने में विफल रह जाती है.
कहने को बेशक कहा जाता है कि जनता मालिक है और जन-प्रतिनिधि उसके सेवक, किन्तु यह बातें "भाषणों" में ही रह जाती हैं. कोई अपने भाषणों में 'प्रधान-सेवक' बन कर खुश रह लेता है तो कोई अपने भाषणों में 'मोहल्ला-सेवक' अथवा 'सेवक'...
ज़रा गौर कीजिये, ध्यान दीजिये कि कल चुनाव तक जो जन-प्रतिनिधि या जन-प्रतिनिधियों के प्रतिनिधि आपके दरवाजे तक आये थे, वह पांच साल तक दर्शन के लिए भी संभवतः उपलब्ध नहीं रह सकेंगे. और तो और कई ज़रुरत पड़ने पर आपके फोन नहीं उठाएंगे और आप ठगे से सोचते रह जायेंगे कि क्या वाकई यह वही लोग हैं, जो चुनाव के वक्त आपके दरवाजे पर घुटने टेकने आये थे?
इस क्रम में आइए जानने की कोशिश करते हैं कि जनता के नजरिए से चुनाव में क्या बदलता है और क्या नहीं बदलता है और इसके कारण-निवारण क्या हो सकते हैं:
वोट की कीमत
सबसे बड़ी वजह यही है.
जनता को अपने वोट की कीमत नहीं पता है इस वजह से वह हमेशा 'लॉलीपॉप' लेकर खुश हो जाती है.
जी हाँ! कभी चुनाव से पहले मिलता है उसे 'लॉलीपॉप' तो कभी चुनाव के बाद...
अब देखिये न अभी-अभी मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार ने शपथ ली है और किसानों की कर्जमाफ़ी वाली फाइल पर दस्तखत कर दिया है. न... न... न... मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि 'किसानों की कर्जमाफ़ी' नहीं की जानी चाहिए, किन्तु क्या वाकई इससे स्थिति में स्थाई बदलाव आ सकेगा?
तो यह लॉलीपॉप नहीं हुआ तो क्या हुआ?
काश कि किसानों के लिए कोई श्वेत-पत्र आता, विभिन्न कमिटियों की सिफारिशों पर गौर होता, काम होता... लेकिन नहीं, शपथ लेते ही दस्तखत कर देना आसान जो होता है, इसलिए ऐसा कर दिया गया, बिना किसी अध्ययन के, दूरगामी प्रभाव को सोचे!
बिना यह सोचे, जांच किये कि पात्र कौन है, कुपात्र कौन है और कौन किसानों के नाम पर कर्जमाफ़ी की रकम को डकार जायेगा.
और जनता... ??
जनता खुश, अपने 'वोट' के बदले लॉलीपॉप पाकर.
काश कि जनता, सामाजिक कार्यकर्त्ता इस बारे में... दूरगामी और स्थाई समाधानों के बारे में जनता को जागरूक कर पाते तो जनता अपने 'वोट' की कीमत समझ पाती और तब संभवतः स्थिति में बदलाव भी आ सकता था.
भागीदारी
दूसरा बड़ा कारण है जनता की स्थिति न सुधरने की!
प्रशासन पब्लिक के प्रति जिम्मेदार इसलिए नहीं होता है, क्योंकि किसी भी योजना में पब्लिक की भागीदारी 'नगण्य' ही है. शहरों में सड़कें टूटी हुई हैं... सालों-साल नहीं बनती, कोई पूछने वाला नहीं!
डिजिटल-इंडिया के दौर में भी इस बारे में कहीं कोई सूचना नहीं उपलब्ध होती है कि आखिर वह सड़क कब तक बनेगी, टूटी क्यों और उसे बनाने वाला ठेकेदार कौन है?
ऐसे में जनता प्रभावी रूप से कुछ नहीं कर सकती.
दूसरी तरफ निगरानी की प्रक्रिया के लिए जो एकाध जिम्मेदार अफसर हैं, उनका मुंह बंद करना 'ठेकेदारों' को बखूबी आता है और ऐसा ही होता है.
काश कि पब्लिक को इन सभी बातों का एक्सेस होता, भागीदारी होती... तो सभवतः ऐसा न होता.
पब्लिक भी प्रश्न पूछने से कतराती है, जवाब मांगने से कतराती है, पब्लिक ऐसे ग्रुप बनाने में विफल रही है जो सरकार से समूह में जवाब मांग सकें!
कभी-कभार आंदोलन ज़रूर होते हैं, किन्तु वह राजनीतिक हितों की बलि चढ़ जाते हैं. पार्टियां आंदोलनों को हाईजैक कर लेती हैं और अंततः आंदोलनों का उद्देश्य भी समाप्त हो जाता है. यहां तक कि आरटीआई कानून आने के पश्चात भी पब्लिक की निगरानी करने की क्षमता कुछ खास नहीं बढ़ सकी है. हाँ, शुरुआत में ज़रूर लगा था कि इस कानून से कुछ बदलाव आ सकेगा... पर अब तो कई आरटीआई एक्टिविस्ट जान से हाथ तक धो बैठे हैं, क्योंकि उन्होंने कुछ ऐसी जानकारियां मांगी, जिनसे रसूखदारों को तकलीफ पहुँच रही थी.
और भी कई कारण हो सकते हैं और आपके दिमाग में भी अगर पब्लिक को हमेशा 'बाबाजी का ठुल्लू' मिलने का कारण कुदबुदा रहा है तो कमेंट-बॉक्स में ज़रूर बताएं.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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