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भव्य शादियों का 'गलत' चलन

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21वीं सदी में भी अगर भारतवर्ष को 'तीसरी दुनिया का देश' माना जाता है तो इसमें एक बड़ा कारण लोगों की 'फिजूलखर्ची' गिनी जा सकती है. यूं तो यह हमारे यहाँ सदियों से विराजमान है, किन्तु आधुनिक युग में जब प्रत्येक गतिविधि 'अर्थ' पर केंद्रित हो चुकी है, ऐसे में "फिजूलखर्ची" का दंश और भी महसूस होता है!

कहना गलत ना होगा कि भारतीय समाज में बच्चों के पैदा होने के समय से ही संस्कार शुरू हो जाते हैं और वह संस्कार उसके मरने तक चलते हैं. समाज के दबाव में सभी को ही 'इन संस्कारों' को निभाना पड़ता है, वह भी समाज को शामिल करके!

यूं तो 'इन संस्कारों' को निभाने में कोई बुराई नहीं है, संस्कार निभाने ही चाहिए... इसी से सभ्यता-निर्मित होती है, इसी से एक दूसरे को समझने का मौका मिलता है... एक दूसरे के बारे में आदमी जुड़ाव महसूस करता है. असल दिक्कत तब होती है जब इन संस्कारों को निभाने में हम औकात से बाहर दिखावा करते हैं!

भारी-भरकम दिखावा आर्थिक संकट लेकर आता है. यहां तक देखा गया है कि संस्कार निभाने के चक्कर में गरीब और भी गरीब होते जाता है. यहां तक कि अपनी पुश्तैनी जमीन बेच देता है, अपने घर के संसाधन गिरवी रख देता है, महिलाओं की ज्वेलरी बेच देता है और इस चक्कर में यह सिलसिला बद से बदतर होता रहता है!

ऐसी स्थिति में 'समाज को बदलाव' की आवश्यकता महसूस होती है और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में आगे रहने वाले लोगों से 'बदलाव का वाहक' बनने की उम्मीद करना कतई 'अनैतिक' नहीं है. राजनीति, व्यापार, मनोरंजन इत्यादि क्षेत्रों के "नायक" अगर 'फिजूलखर्ची' पर सटीक सन्देश दें तो क्या समाज के उन लोगों पर फर्क नहीं पड़ेगा जो कर्मकांडों और दिखावे के चक्कर में 'फिजूलखर्ची' करते हैं और मुसीबतों को आमंत्रित कर बैठते हैं?

यक्ष-प्रश्न है कि 'क्या वाकई समाज में विभिन्न क्षेत्रों के नायक अपनी जिम्मेदारी समझ रहे हैं?'

हाल-फिलहाल कई बड़ी शादियां हमारे देश में चर्चित हुई हैं. बॉलीवुड हीरो रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण की 'भव्य शादी' को पूरी दुनिया ने देखा. जिस प्रकार से यह शादी इटली में हुई और मुंबई-बंगलुरू जैसी जगहों पर उतने ही 'भव्य' रिसेप्शन हुए, उसने निश्चित रूप से इस जोड़े और उसके परिवारी-जनों को ख़ुशी पहुंचाई होगी, किन्तु क्या इससे वाकई 'ठीक सामाजिक-सन्देश' गया है?

इसी तरह बॉलीवुड से हॉलीवुड जा चुकीं प्रियंका चोपड़ा और हॉलीवुड एक्टर निक जोनस की शादी समाज में चर्चा का विषय बनी और तमाम मीडिया समूहों ने इसे अपनी सुर्खियां बनाया. न केवल नेशनल बल्कि इंटरनेशनल मीडिया ने इसे अपनी सुर्ख़ियों में स्थान दिया. पर क्या अपने बड़े नाम की तरह प्रियंका चोपड़ा, जिस पृष्ठभूमि से उठी हैं उसकी 'याद' उन्हें है? वह तो 'विश्व-सुंदरी' भी रही हैं और उन्हें यूनाइटेड नेशन के तमाम सामाजिक कार्यों में 'गुडविल एम्बेसडर' बनने का मौका भी मिला है, तो क्या वह उसे भी भुला चुकी हैं?
वैसे प्रियंका चोपड़ा को अपनी शादी में न केवल 'फिजूलखर्ची' के लिए लताड़ लगाई जानी चाहिए, बल्कि उनकी आलोचना जानवरों पर अत्याचार करने के लिए 'पेटा' ने भी की है. यही नहीं, प्रियंका दिवाली पर पटाखा न जलाने के लिए 'सिप्ला' की ओर से टेलीविजन पर अपील करती दिखी थीं, जबकि उनकी शादी में ट्रक भर के पटाखे छोड़े गए!
कहते हैं बड़ी ताकत के साथ बड़ी जिम्मेदारी भी आती है, किन्तु इन स्टार्स के पास धन और ग्लैमर क्या लेकर आया है... यह विचारणीय प्रश्न है!
Squandering in Indian Marriage, Hindi Article (Pic: ndtv)
अभी मैं एक वेबसाइट पर देख रहा था कि मुकेश अंबानी की बेटी ईशा अंबानी की प्री-वेडिंग हो रही है जिसमें देश दुनिया से 1800 से अधिक मेहमान शरीक हो सकते हैं. उदयपुर के डबोक एयरपोर्ट पर कई चार्टर्ड विमान पहुंचे. इस ग्रैंड अवसर पर पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और हिलेरी क्लिंटन तक आ रहे हैं.
मुकेश अम्बानी की बेटी से पहले उनके बेटे की सगाई ने भी खूब चर्चा बटोरी थी. जाहिर है भारत के सबसे महंगे घर 'एंटीलिया' में रहने वाले मुकेश अम्बानी जैसे इंडस्ट्रियलिस्ट को कुछ सौ करोड़ खर्च करके शादी करने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, किन्तु वह शायद ही समझ पाएं कि वह 'फिजूलखर्ची' का कल्चर मजबूत करने में अपना योगदान दे रहे हैं, वह करोड़ों करोड़ भारतीयों पर नकारात्मक असर ही डालेगा!

दुःख होता है कि समाज के बड़े लोग, यहाँ तक कि कई बार हमारे राष्ट्र अध्यक्ष, प्रधानमंत्री इत्यादि इन 'फिजूलखर्च-समारोहों' में शामिल होते हैं. इसके पीछे उनके अपने तर्क हो सकते हैं, किन्तु क्या वह अपने देश के 'गरीबी के आंकड़ों' को भूल चुके होते हैं?

समय आ गया है कि इन शादियों पर करोड़ों अरबों रुपए खर्च करने की बजाय प्रभावशाली व्यक्ति 'समाज के हित' का संकल्प लें. यूं तो आदर्श ढंग से हर कोई 'सादगी' की बात करता है, तो वह क्यों सादगी की बजाय दिखावा करने में 'मशगूल' हो रहा है?

अल-सुबह व्हाट्सएप पर एक जोक पढ़ रहा था, जिसमें संता बंता से पूछता है कि यार आजकल बड़े लोग शादियां करते हैं 'एक' लेकिन उसका 3 - 4 रिसेप्शन क्यों करते हैं?
बंता जवाब देता है कि 'जिस पैंट के फटने का डर हो उस पर तीन-चार सिलाई चलाने में क्या बुराई है?

यह 'जोक' कइयों को सस्ता लग सकता है, किन्तु यह कहने में 'गुरेज' नहीं होना चाहिए कि 'दिखावे से रिश्ते' नहीं चलते हैं!
जाहिर है दिखावा करने से ज्यादा अगर देश का 'प्रभावशाली वर्ग' रिश्ते निभाने में सक्रियता दिखाए तो समाज में एक सही संदेश जाएगा और 'फिजूलखर्ची के महिमामंडन' से भी बचा जा सकेगा.

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- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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