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अनुपम खेर द्वारा अभिनीत फिल्म द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर काफी चर्चा बटोर रही है. एक लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की किताब पर यह फिल्म निर्मित हुई है.
2014 में जब नरेंद्र मोदी की भारी जीत हुई थी तभी से कमोबेश इस फिल्म के ट्रेलर में दिखाई गई बातें जनता में मे प्रचलित हो चुकी थीं और यही एक बड़ा कारण था कि 200 सीटों से फिसल कर कांग्रेस 44 सीटों पर अटक गई. पूर्व प्रधानमंत्री रहे डॉ मनमोहन सिंह को "मौन मोहन" अथवा साइलेंट पीएम की संज्ञा आखिर यूं ही तो नहीं दी गयी थी.
जाहिर है अब 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले इस फिल्म के माध्यम से भी पॉलीटिकल कंट्रोवर्सी क्रिएट करने की कोशिश हुई, लेकिन इस बात को कांग्रेस पार्टी समय से पूर्व ही समझ गयी.
अब जबकि ट्रेलर के बाद यह फिल्म रिलीज हो चुकी है तो बताया जा रहा है कि इस फिल्म में मनोरंजन की मात्रा ज्यादा है, बजाय इनफार्मेशन के. जाहिर है कि इस फिल्म के ट्रेलर को लेकर सोशल मीडिया पर खूब बवाल ही नहीं चला, बल्कि यह कांग्रेस वर्सेज भाजपा की डिबेट में बदल गया... उसका कोई मतलब नहीं बचा है. बवाल मचाने का मतलब इसलिए भी नहीं बनता है क्योंकि इस फिल्म की अधिकांश बातें संजय बारू की किताब से पहले ही पब्लिक में आ चुकी थी और यह वही बातें हैं जिनकी वजह से कांग्रेस पार्टी की बुरी हार पिछले आम चुनाव में हुई.
एक और बात उठायी गयी कि इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक प्रो-बीजेपी हैं, तो एक फिल्म के बनने भर से कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी को ज्यादा बेचैन क्यों होना चाहिए भला! अगर मान भी लिया जाए की एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर को बनाने वाले निर्माता-निर्देशक प्रो बीजेपी हैं तो भी इसमें अलग क्या है?
आप ध्यान से देखें तो वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछली साल सरदार वल्लभ भाई पटेल की विश्व में सबसे ऊंची मूर्ति बनाने का रिकॉर्ड कायम किया तो द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर के ट्रेलर को बीजेपी के ऑफिशियल ट्विटर हैंडल से रिट्वीट किया गया. जरा गौर कीजिए सरदार पटेल और डॉ मनमोहन सिंह जैसे नेताओं को इस ढंग से प्रदर्शित करना आसान हो गया है मानो उनके साथ गांधी परिवार ने नाइंसाफी की हो!
यह एक ऐसी लाइन है जिस पर पांव रखते ही कांग्रेस और कांग्रेसी परेशान हो जाते हैं. विपक्ष इस बात को बखूबी समझ गया है और ना केवल सरदार पटेल और डॉक्टर मनमोहन सिंह बल्कि नरसिम्हा राव से लेकर सीताराम केसरी और प्रणब मुखर्जी तक के मुद्दे वह गाहे बगाहे उठाता रहता है कि किस प्रकार योग्य होने के बावजूद यह लोग गांधी परिवार की छाया से बाहर नहीं निकल सके.
देखा जाए तो यह एक हद तक सच भी हो सकता है, पर चूँकि डेमोक्रेसी में जनता ही सांसदों को संसद भेजती है, तो किसी को इस बात पर कुछ खास आपत्ति भला क्यों होनी चाहिए! दिक्कत तो तब होती है जब इतिहास लिखा जाता है और उस इतिहास के आईने में लोग कुछ पन्नों को छुपा लेना चाहते हैं. आखिर किसी के छिपाने से उन पन्नों की अहमियत कम थोड़ी होगी भला! परिवारवाद से जुड़ा यह मुद्दा इसलिए भी कांग्रेस को टीस देता रहता है.
यह समस्या सिर्फ कांग्रेस में ही नहीं है, बल्कि भाजपा सहित तमाम ऐसी क्षेत्रीय पार्टियां भी परिवारवाद के रोग से ग्रसित होती जा रही हैं. भाजपा में ऐसे कई बड़े नेता आपको मिल जाएंगे जिनकी अगली पीढ़ी राजनीति में पांव जमाने में सफल हुई है और उसे अपनी पुरानी पीढ़ी का जाहिर तौर पर बड़ा लाभ मिला है. ऐसे में सच कहा जाए तो वर्तमान में पूरी पॉलिटिक्स ही 'एक्सीडेंटल' हो चुकी है. कोई भी राज्य उठाकर देख लीजिए वहां आपको ऐसे निर्णय मिलेंगे चौंकाएंगे भी और निराश भी करेंगे.
हां कांग्रेस को इस बात के प्रति आत्ममंथन अवश्य करना चाहिए कि अखिर क्यों कोई भी बड़े कांग्रेसी नेता का नाम लेकर गांधी परिवार पर हमला करने में सहज महसूस करने लगता है. आखिर क्यों गांधी परिवार ही कांग्रेस का पर्यायवाची बन बैठा है. लोकतंत्र में अगर इस प्रश्न का उत्तर कांग्रेस पार्टी ढूंढ लेती है तो इस बात में कोई शक नहीं कि उसकी प्रासंगिकता आगे भी कई दशकों तक बनी रह सकती है, बेशक कोई फिल्म 'एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' बने या विवेक ओबेरॉय अभिनीत 'पीएम मोदी' ही क्यों न बने!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
अनुपम खेर द्वारा अभिनीत फिल्म द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर काफी चर्चा बटोर रही है. एक लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की किताब पर यह फिल्म निर्मित हुई है.
2014 में जब नरेंद्र मोदी की भारी जीत हुई थी तभी से कमोबेश इस फिल्म के ट्रेलर में दिखाई गई बातें जनता में मे प्रचलित हो चुकी थीं और यही एक बड़ा कारण था कि 200 सीटों से फिसल कर कांग्रेस 44 सीटों पर अटक गई. पूर्व प्रधानमंत्री रहे डॉ मनमोहन सिंह को "मौन मोहन" अथवा साइलेंट पीएम की संज्ञा आखिर यूं ही तो नहीं दी गयी थी.
जाहिर है अब 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले इस फिल्म के माध्यम से भी पॉलीटिकल कंट्रोवर्सी क्रिएट करने की कोशिश हुई, लेकिन इस बात को कांग्रेस पार्टी समय से पूर्व ही समझ गयी.
ट्रेलर रिलीज के बाद कांग्रेस के कई कार्यकर्ताओं ने अलग-अलग जगहों पर बवाल किया तो आधिकारिक रूप से कांग्रेस पार्टी ने इस फिल्म का विरोध करने पर कोई स्टैंड नहीं लेने का फैसला किया.उसका यह फैसला समझदारी भरा माना जाना चाहिए, क्योंकि जितना इस फिल्म का विरोध किया जाता, उतनी ही फिल्म को पब्लिसिटी मिलती और जैसा कि ट्रेलर देखने से ही समझ में आ रहा है कि इस फिल्म में गांधी परिवार को निशाने पर लिया गया है तो ऐसे में फिल्म को जितनी भी पब्लिसिटी मिलती वह कांग्रेस और कांग्रेसियों के लिए नुकसानदायक ही होती.
अब जबकि ट्रेलर के बाद यह फिल्म रिलीज हो चुकी है तो बताया जा रहा है कि इस फिल्म में मनोरंजन की मात्रा ज्यादा है, बजाय इनफार्मेशन के. जाहिर है कि इस फिल्म के ट्रेलर को लेकर सोशल मीडिया पर खूब बवाल ही नहीं चला, बल्कि यह कांग्रेस वर्सेज भाजपा की डिबेट में बदल गया... उसका कोई मतलब नहीं बचा है. बवाल मचाने का मतलब इसलिए भी नहीं बनता है क्योंकि इस फिल्म की अधिकांश बातें संजय बारू की किताब से पहले ही पब्लिक में आ चुकी थी और यह वही बातें हैं जिनकी वजह से कांग्रेस पार्टी की बुरी हार पिछले आम चुनाव में हुई.
एक और बात उठायी गयी कि इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक प्रो-बीजेपी हैं, तो एक फिल्म के बनने भर से कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी को ज्यादा बेचैन क्यों होना चाहिए भला! अगर मान भी लिया जाए की एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर को बनाने वाले निर्माता-निर्देशक प्रो बीजेपी हैं तो भी इसमें अलग क्या है?
हर कोई कोई किसी न किसी राजनीतिक विचारधारा से जुड़ा होता है और उसकी वह बात कला के चाहे जिस माध्यम से जुड़ा हो उस पर अपना प्रभाव छोड़ती ही है. वस्तुतः देखा जाए तो काग्रेस पार्टी की एक फिल्म को लेकर बेचैनी नहीं, बल्कि बेचैनी उस भाव से उभरी जिसके तहत गांधी परिवार से हटकर कांग्रेस के किसी अन्य नेतृत्व के ऊपर विपक्ष फोकस करता है.
आप ध्यान से देखें तो वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछली साल सरदार वल्लभ भाई पटेल की विश्व में सबसे ऊंची मूर्ति बनाने का रिकॉर्ड कायम किया तो द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर के ट्रेलर को बीजेपी के ऑफिशियल ट्विटर हैंडल से रिट्वीट किया गया. जरा गौर कीजिए सरदार पटेल और डॉ मनमोहन सिंह जैसे नेताओं को इस ढंग से प्रदर्शित करना आसान हो गया है मानो उनके साथ गांधी परिवार ने नाइंसाफी की हो!
यह एक ऐसी लाइन है जिस पर पांव रखते ही कांग्रेस और कांग्रेसी परेशान हो जाते हैं. विपक्ष इस बात को बखूबी समझ गया है और ना केवल सरदार पटेल और डॉक्टर मनमोहन सिंह बल्कि नरसिम्हा राव से लेकर सीताराम केसरी और प्रणब मुखर्जी तक के मुद्दे वह गाहे बगाहे उठाता रहता है कि किस प्रकार योग्य होने के बावजूद यह लोग गांधी परिवार की छाया से बाहर नहीं निकल सके.
देखा जाए तो यह एक हद तक सच भी हो सकता है, पर चूँकि डेमोक्रेसी में जनता ही सांसदों को संसद भेजती है, तो किसी को इस बात पर कुछ खास आपत्ति भला क्यों होनी चाहिए! दिक्कत तो तब होती है जब इतिहास लिखा जाता है और उस इतिहास के आईने में लोग कुछ पन्नों को छुपा लेना चाहते हैं. आखिर किसी के छिपाने से उन पन्नों की अहमियत कम थोड़ी होगी भला! परिवारवाद से जुड़ा यह मुद्दा इसलिए भी कांग्रेस को टीस देता रहता है.
यह समस्या सिर्फ कांग्रेस में ही नहीं है, बल्कि भाजपा सहित तमाम ऐसी क्षेत्रीय पार्टियां भी परिवारवाद के रोग से ग्रसित होती जा रही हैं. भाजपा में ऐसे कई बड़े नेता आपको मिल जाएंगे जिनकी अगली पीढ़ी राजनीति में पांव जमाने में सफल हुई है और उसे अपनी पुरानी पीढ़ी का जाहिर तौर पर बड़ा लाभ मिला है. ऐसे में सच कहा जाए तो वर्तमान में पूरी पॉलिटिक्स ही 'एक्सीडेंटल' हो चुकी है. कोई भी राज्य उठाकर देख लीजिए वहां आपको ऐसे निर्णय मिलेंगे चौंकाएंगे भी और निराश भी करेंगे.
अगर एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर की तर्ज पर फिल्म बनने का सिलसिला शुरू हो जाए तो शायद ही ऐसी कोई पार्टी बचेगी जो पाक साफ नजर आए. हमाम में सभी नंगे हैं पर इस बीच सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जनता अपने निर्णय लेने में बखूबी सक्षम है और यह उसने बार-बार साबित भी किया है.अगर गांधी परिवार कई दशकों तक देश पर राज करने में सफल हुआ है तो इसके पीछे एक बड़ा कारण यह है कि दूसरे तमाम राजनेता और राजनीतिक पार्टियां खुद को 'सक्षम' बताने में विफल रही हैं. वह चाहे जनता पार्टी की मोरारजी देसाई की सरकार हो या फिर उसके बाद गठबंधन के जो कई दौर चले उसका उदाहरण ही क्यों न ले लें. यहां तक कि अटल बिहारी बाजपेई जैसे विशाल व्यक्तित्व की सरकार भी एक ही कार्यकाल पूरा कर सकी और 'भारत उदय' करते करते हार गई. ऐसे में जनता अपना फैसला लेने को विवश होती है. जनता ने 2014 में भी बुद्धिमानी के साथ फैसला लिया था और अगर कोई राजनीतिक विश्लेषक यह मानता है कि जनता ने लहर में बहकर फैसला लिया था, तो इसे उसकी नादानी ही कही जाएगी. 2019 के आम चुनाव से ठीक पहले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी जनता ने अपना रुख दिखलाया है इसलिए किसी एक फिल्म से किसी राजनीतिक पार्टी को प्रभावित होने की बजाय उसे अपनी नीतियों और दीर्घकालिक उद्देश्यों पर ज्यादा फोकस करना चाहिए. इसके अतिरिक्त हर पार्टी के पास अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से दूसरी पार्टियों की कमियों और खूबियों को उजागर कर सकने वाले लोग हैं.
हां कांग्रेस को इस बात के प्रति आत्ममंथन अवश्य करना चाहिए कि अखिर क्यों कोई भी बड़े कांग्रेसी नेता का नाम लेकर गांधी परिवार पर हमला करने में सहज महसूस करने लगता है. आखिर क्यों गांधी परिवार ही कांग्रेस का पर्यायवाची बन बैठा है. लोकतंत्र में अगर इस प्रश्न का उत्तर कांग्रेस पार्टी ढूंढ लेती है तो इस बात में कोई शक नहीं कि उसकी प्रासंगिकता आगे भी कई दशकों तक बनी रह सकती है, बेशक कोई फिल्म 'एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' बने या विवेक ओबेरॉय अभिनीत 'पीएम मोदी' ही क्यों न बने!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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