Are the riots linked to India's fate forever? |
पिछले दिनों में दिल्ली जिस स्थिति से गुजरी है, उससे प्रत्येक नागरिक का मन विषाद से भर गया है. दर्जनों लोग मारे गए हैं और सैकड़ों लोग जख्मी हुए हैं लेकिन यह बात इतनी सरल नहीं है जितनी नजर आ रही है.
दिल्ली में 1984 के बाद संभवतः यह पहला मौका है, जब दंगे का दंश इस बड़े पैमाने पर दिल्लीवासियों को झेलना पड़ा है.
दंगे का ज्वार कम होते ही हमेशा की तरह एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गए हैं. बीजेपी के नेता और केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर दिल्ली हिंसा के लिए सोनिया गांधी को जिम्मेदार बताते हुए कह रहे हैं कि उनका बयान राजीव गांधी के 'जब बड़ा पेड़ गिरता है, तो जमीन हिलती है', वाले बयान से प्रेरित है. गौरतलब है कि सोनिया गांधी ने सीएए के खिलाफ आर-पार की लड़ाई होने की बात कही थी. उधर सोनिया गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के पास पहले ही मेमोरेंडम पहुंच गया है, जिसमें राष्ट्रपति से सरकार को राजधर्म याद दिलाने की बात कही गई है.
इधर स्थानीय स्तर पर भाजपा के कपिल मिश्रा और आम आदमी पार्टी के ताहिर हुसैन जैसे लोग आरोप-प्रत्यारोप में लिप्त हैं.
पर क्या यह कहानी सिर्फ इतनी ही है या इसका प्रभाव इससे कहीं आगे है?
भारत के महानतम राष्ट्रपतियों में से एक डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम ने 2020 को लेकर एक विजन प्रस्तुत किया था. यह विजन देश के विकास का और उसकी प्रगति का था. दुर्भाग्य से डॉक्टर कलाम हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनको क्या पता कि भारत 2020 हो या 2040 हो, या फिर 2050 ही क्यों न हो, दंगे-फसाद के साए तले रहने को अभिशप्त हो चुका है.
एक तरफ भारत सुपर पावर होने की बात करता है, विकास की बात करता है, चीन और अमेरिका जैसे देशों से कंधे से कंधा मिलाने की बात करता है, वहीं दूसरी तरफ अपनी दंगाई मानसिकता को वह छोड़ने को तैयार नहीं है.
अंग्रेजी राज के दौरान भी इस तरह के दंगे हुआ करते थे और तब कहा जाता था कि अंग्रेजों ने 'फूट डालो, राज करो' की नीति हमारे बीच में आजमाई है. पर आजादी के बाद जब हमारे हाथ में शासन व्यवस्था आ गई तब भी हम वहीं के वहीं हैं.
समझना मुश्किल नहीं है कि बेशक हम चांद पर चले गए हों, लेकिन हमारा दिमाग अभी संकुचित ही है. हम उसी जाति-धर्म की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं, जिसने सदियों से हमें गुलाम बना रखा है और हमें गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी में रहने को मजबूर किया है.
विश्लेषक हालिया दंगों पर कई बातें कहेंगे, कई सारे आंकड़े बताए और छापे जाएंगे, लेकिन इसके कारणों को जानने के बावजूद भी इसके निवारण पर नीति-निर्माता चर्चा नहीं करेंगे, बल्कि राजनीतिक गोटियां सेंकते रहेंगे. आखिर यही तो इस देश का असली दुर्भाग्य है?
वह चाहे नीति निर्माता हो या ग्राउंड पर कार्य करने वाला कार्यकर्ता, हर कोई लोकतंत्र के पावन पर्व, यानी चुनाव को अपनी संकुचित दृष्टि से कलंकित कर चुका है. ऐन, केन, प्रकारेण चुनाव जीतने की लालसा ने उसे अंधकार में धकेल दिया है और सत्ता की भूख ने भारत को दंगाई मानसिकता का बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. हां! दंगे के बाद लोग इस पर लीपापोती जरूर करने में लग जाते हैं और उस लीपापोती का परिणाम इतना ही होता है कि कुछ दिन के लिए चीजें जरूर शांत होती हैं, किंतु कुछ दिन बाद फिर उभर जाती हैं.
अब न केवल दिल्ली में, बल्कि समूचे भारत में देख लीजिए, जहां-जहां दंगे उभरे हैं, उनके कारण और निवारण पर चर्चा नहीं हुई है और यही समस्या का मूल है.
लीपापोती में हम असल कारणों को भूल जाते हैं और सिर्फ बलि का बकरा बना कर मामले को रफा-दफा करते हैं. अब जब कारण मौजूद रहते हैं तो हिंसा पुनः-पुनः होती है. दुआ करनी चाहिए कि ऊपरवाला ईश्वर हमारे प्यारे भारत को दंगाई मानसिकता से मुक्त करे और तीसरी दुनिया के देश बने रहने से बचाए, अन्यथा दंगा-फसाद की मानसिकता किसी भी देश को कब गृह युद्ध में है धकेल देती है, इसका अंदाजा बड़े से बड़े नेतृत्वकर्ता को भी नहीं लगता है.
उम्मीद पर दुनिया कायम है और आप भी उम्मीद कर सकते हैं कि हमारी आने वाली पीढियां भारत को दंगे-फसाद से मुक्त हुआ देख पायेंगे.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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