नौ-सूत्रीय अजेंडे के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ने अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना डिजिटल-इंडिया को लांच कर दिया है. इस प्रोग्राम में मुख्य रूप से ब्रॉडबैंड हाइवेज, यूनिवर्सल एक्सेस तो
फोन्स, पब्लिक इंटरनेट एक्सेस प्रोग्राम, ई-गवर्नेंस, ई-क्रांति, सभी के लिए सूचना, इलेक्ट्रॉनिक्स मैन्युफैक्चरिंग, आईटी फॉर जॉब्स और अर्ली हार्वेस्ट प्रोग्राम की चर्चा की गयी है. हालाँकि, तमाम शोर-शराबे के बावजूद इस 'डिजिटल इण्डिया' प्रोग्राम से आईटी यूथ कितना प्रभावित होगा, यह कहना मुश्किल है. एक बड़े प्रोग्राम में, तमाम सीनियर मंत्रियों और ब्यूरोक्रेट्स के साथ शीर्ष उद्योगपतियों की उपस्थिति में नरेंद्र मोदी ने इस प्रोग्राम को धूम - धड़ाके से लांच किया और यह उनके प्रबंधन का ही कमाल है कि देश के अनेक उद्योगपतियों ने भी इस प्रोग्राम में बड़े निवेश की घोषणा भी तत्काल कर दी. रिलायंस इंडस्ट्रीज डिजिटल इंडिया में 2,50,000 करोड़ का निवेश करेगी, तो आदित्य बिड़ला ग्रुप अगले पांच साल में 7 बिलियन डॉलर का निवेश करेंगे. टाटा सहित दुसरे ग्रुपों ने भी डिजिटल इंडिया में अपने योगदान को रेखांकित करते हुए प्रधानमंत्री की जमकर तारीफ़ की. इस कड़ी में प्रधानमंत्री की इस बात के लिए तारीफ़ करनी होगी कि वह पुराने सामानों को बेहतरीन पैकिंग के साथ जोश-खरोश के साथ पेश करते हैं, जो सहयोगियों में नए उत्साह उत्पन्न करने में काफी हद
तक सहायक होता है, लेकिन एक साल तैयारी करने के बाद इस प्रोग्राम में और भी बहुत कुछ शामिल किया जा सकता था. डिजिटल इंडिया प्रोग्राम के कई भाग, मसलन देश को ब्रॉडबैंड से जोड़ना, मोबाइल फोन्स पर इंटरनेट की उपलब्धता, सभी के लिए सूचना इत्यादि पहले ही चल रहे हैं. यदि कुछ नए सिरे से जोड़ने की कोशिश की गयी है तो वह है गाँवों को भी ब्रॉडबैंड इंटरनेट से जोड़ने की घोषणा, जिसे 'ब्रॉडबैंड हाइवेज' नाम के जुमले से सम्बोधित किया गया है. हालाँकि, यह लक्ष्य कैसे पूरा होगा, इसकी चर्चा नहीं की गयी है. ऐसे में जिन गांवों में रोजगार नहीं हैं, कृषि छोड़कर लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, बिजली पानी जैसी बुनियादी सुविधाएँ नहीं हैं, ऐसे में यह लक्ष्य हवा - हवाई ज्यादा दिखता है. इसके अतिरिक्त घर-घर इंटरनेट पहुँचाने में सबसे बड़ी बाधा नेशनल ऑप्टिक फ़ाइबर नेटवर्क का प्रोग्राम है, जो निर्धारित समय से तीन-चार साल पीछे चल रहा है. सरकार को ये समझना होगा कि जब आप गांव-गांव तार बिछाने जाएंगे तो आप उन लोगों को ये काम नहीं सौंप सकते जो पिछले 50 साल से कुछ और बिछा रहे हैं. आपको वो लोग लगाने होंगे जो ऑप्टिक फ़ाइबर नेटवर्क के महत्त्व को समझते हैं और प्रतिबद्धता से अपने काम को पूरा करने की जिम्मेवारी उठाने का माद्दा रखते हैं.
वैसे, शहरों में ई- गवर्नेंस को मजबूत करने के लिए मोदी सरकार ने कुछ कदम जरूर उठाये हैं और पब्लिक से इंटरेक्शन करने हेतु कुछ बेहतरीन वेबसाइट का निर्माण भी कराया है, जिनमें मायजीओवी.इन और डिजिटललॉकर जैसी सुविधाएं उल्लेखनीय हैं. इसमें मायजीओवी जहाँ यूथ को सरकारी प्रोग्राम्स के बारे में जानकारी देने और सुझाव लेने का बेहतरीन प्लेटफॉर्म बनता जा रहा है, वहीं डिजिटल लॉकर भी आने वाले समय में बेहद उपयोगी साबित हो सकता है. हालाँकि, इस तरह के प्राइवेट प्रोग्राम्स जैसे ड्रॉपबॉक्स, गूगल ड्राइव इत्यादि उपलब्ध हैं, किन्तु सरकारी वेबसाइट 'डिजिटल लॉकर' अपनी विश्वसनीयता के साथ-साथ आधार-कार्ड से लिंक की वजह से और दुसरे सरकारी विभागों से होने वाले सिंक्रोनाइजेशन के लिहाज से सर्वोत्तम विकल्प साबित हो सकती है. नयी बन रही वेबसाइट के लिए मोदी सरकार की इसलिए भी तारीफ़ करनी होगी कि वह पुरानी, थकी हुई सरकारी वेबसाइटों की तुलना में हज़ार गुना बेहतर और इंटरैक्टिव है, जो किसी निजी कंपनी से मुकाबला करती नजर आती है. सूचना के स्तर पर खुद प्रधानमंत्री का ऑफिस बेहद
इंटरैक्टिव हो गया है और जनता से सीधे जुड़ने की कोशिश करता नजर आता है. इस प्रोग्राम की अगली कड़ी 'इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादन' का लक्ष्य भी कुछ कम कठिन नहीं है. देश में अधिकतर विदेशी कंपनियों ने इस क्षेत्र में लगभग कब्ज़ा कर रक्खा है, चाहे मोबाइल हो, कम्प्यूटर हो या चिप-निर्माण ही क्यों न हो, भारत का स्थान इसमें कहीं नहीं दिखता है. कुछेक कंपनियां अपने देश में भी सक्रीय जरूर हैं, लेकिन वह असेम्ब्लिंग का काम ही ज्यादा करती हैं, बजाय कुछ ओरिजिनल पेश करने के अथवा विदेश में बनने वाले प्रोडक्ट्स की मार्केटिंग और सर्विस भर करके संतुष्ट हो लेती हैं. इस प्रोग्राम की अगली कड़ी 'आईटी फॉर जॉब्स' का महत्त्व जरूर गिनाया जा रहा है, लेकिन सरकार इस क्षेत्र को समझ भी पायी है, इसमें संदेह दिखता है. आईटी में अब तक अपने देश ने बेहतर प्रगति की है, इसलिए गली कूचे से लेकर बड़े शहरों तक कम्प्यूटर-शिक्षा के साथ छोटे-छोटे रोजगार के बृहद अवसर उभरे हैं. मसलन डेटा-इंट्री जॉब्स, सोशल मीडिया एनालिसिस, डिज़ाइन एंड डेवलपमेंट जॉब्स इत्यादि महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में उभरे हैं. बिना किसी बड़ी कम्पनी की सहायता के भी भारतीय युवा बेहतर तरीके से वैश्विक बाजारों में 'फ्रीलांसर' के रूप में अपना मजबूत दखल रखते हैं. लघु उद्योग के इस स्वरुप को
समझकर संरक्षित करने की आवश्यकता थी, जो बिलकुल नहीं किया गया. इस क्षेत्र को थोड़ा और स्पष्ट किया जाय तो बड़ी कंपनियों की मार्केटिंग रणनीति से आप इसे समझ सकते हैं. गूगल 'एडसेंस' के माध्यम से तो अमेजन, फ्लिपकार्ट और दूसरी बड़ी कंपनियां अफिलिएट प्रोग्राम के माध्यम से 'फ्रीलांसर्स' तक सीधी पहुँच बना कर अपने वैश्विक कारोबार में बढ़ोतरी कर रही हैं. ऐसे में डिजिटल इण्डिया के सपने में, भारत सरकार द्वारा यह हिस्सा छूट गया लगता है. हालाँकि, मोदी सरकार की इस बात के लिए सराहना करनी चाहिए कि देश में पहली बार सूचना प्रोद्योगिकी को लेकर एकीकृत प्रयास करने की कोशिश हुई है, जो निश्चित रूप से भविष्य के लिए फलदायी साबित होगा. पर क्या यह बेहतर नहीं होता कि विदेशों से धन लाने वाले फ्रीलांसर्स को भी सहूलियतें दी जातीं. अपने निजी अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि बाहर से आने वाले फ्रीलांसर्स के पैसे पर 'बैंकिंग रवैया' बिलकुल ठीक नहीं है. पिछले दिनों गूगल एडसेंस की 100 - 100 डॉलर की पेमेंट मैंने दो बैंकों में मंगाई, जिसमें एक बड़ा प्राइवेट बैंक था तो एक सरकारी बैंक, पर दुर्भाग्य के साथ बताना पड़ रहा है कि दोनों ने एक बड़ा अमाउंट कमीशन के रूप में अपने आप काट लिया, जिसे मेरी पास-बुक में भी
नहीं चढ़ाया गया. इसके अतिरिक्त, दिल्ली जैसे शहर में भी पैसे अकाउंट में आने में लगभग सप्ताह भर का समय लग गया. डिजिटल इण्डिया में बड़ा योगदान करने वाले आईटी यूथ की इसी तरह की दूसरी व्यवहारिक समस्याएं भी हैं, मसलन यदि किसी फ्रीलांसर की पेमेंट कहीं फंसती है (जो कि होता ही रहता है), तो वह बेचारा मन मसोसकर रह जाता है. जरूरत इस इंडस्ट्री को पहचान देने की है, जिससे फ्रीलांसर्स अपने भविष्य को सुरक्षित महसूस कर सकें और मुख्य धारा में अपने योगदान को पहचान सकें. सिर्फ विदेशी काम ही क्यों, बल्कि देश में भी डेटा-एनालिसिस इत्यादि के कामों का बड़े स्तर पर ठेका किसी विदेशी कंपनी को देकर छुटकारा पा लिया जाता है. क्या वाकई, इससे देश का सशक्तिकरण होता है? क्या ऐसे प्रोग्राम्स में आईटी यूथ को शार्ट-टर्म के लिए हायर किया जा सकता है, जिन्हें जरूरत पड़ने पर ट्रेनिंग देकर सशक्त बनाया जा सके. इन सभी बातों पर ध्यान देने से अभी काफी कुछ गुंजाइश नजर आती है, लेकिन हिंदी कहावत 'नहीं मामा से काना मामा अच्छा' के हिसाब से देखें तो 'डिजिटल इण्डिया' शुरुआती स्तर पर एक महत्वपूर्ण प्रोग्राम है, जिसकी जरूरत वाकई इंडिया को थी और इसके साथ यह भी सच है कि प्रत्येक प्रोग्राम की तरह आने वाले समय में इसमें सुधार की गुंजाइश भी बनी रहेगी.
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