देश में जबसे नरेंद्र मोदी सरकार ने कार्यभार संभाला है, तबसे उन्होंने जबरदस्त तरीके से विदेश यात्राएं की हैं. इस बात के लिए उनकी सराहना और आलोचना दोनों की जा रही है. कोई कह रहा है कि उनकी यात्राओं से भारत का गौरव और रूतबा बढ़ रहा है, तो कोई कह रहा है कि वह कूटनीति की बजाय किसी 'इवेंट मैनेजर' की तरह शोर-शराबे और प्रचार कर रहे हैं. जहाँ तक बात विदेश नीतियां बनाने की हैं तो यह सच बात है कि विदेश नीतियां एक दिन में बनती और बिगड़ती नहीं हैं, लेकिन वगैर दूरगामी सोच के हम कहीं पहुँचने की कल्पना भी कैसे कर सकते हैं. अमेरिका और पश्चिमी देशों के सन्दर्भ में मोदी सरकार द्वारा अपनाई गयी नीतियां कुछ हद तक ठीक दिख रही हैं, लेकिन उनका दूरगामी परीक्षण होना अभी बाकी है. इसके विपरीत पाकिस्तान के सम्बन्ध में हमारे प्रधानमंत्री की नीतियां स्पष्ट नहीं दिख रही हैं. जिस तेवर से नरेंद्र मोदी ने अपनी शपथ-ग्रहण में सार्क देशों के प्रमुखों को आमंत्रित किया, विशेषकर नवाज शरीफ को, उसे विश्लेषकों और मीडिया समूहों में 'मास्टर-स्ट्रोक' की संज्ञा दी गयी. समय बीतने के साथ इस कथित 'मास्टर-स्ट्रोक' का प्रभाव कम होता चला गया और अब उफ़ा में जिस प्रकार भारतीय प्रधानमंत्री को पाकिस्तान से बातचीत की सम्भावना तलाशनी पड़ी हैं, उसे कूटनीति में निश्चित रूप से कदम पीछे हटाने का संकेत माना जा सकता है. बात को थोड़ा और स्पष्ट किया जाय तो विदेश नीति पर भारत के तेजी से बढ़ रहे क़दमों को रोकने की बिसात जानबूझकर बिछाई गयी और इस खेल में चीन, पाकिस्तान के अतिरिक्त रूस ने भी भारत को झटका देने में कसर नहीं छोड़ा. अमेरिका और भारत के बीच बढ़ रही पींगों से निश्चित रूप से रूस और चीन चिंतित हुए थे, इसलिए चीन पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरीडोर (CPEC) के माध्यम से इस खेल में एक बड़ी बाजी चली गयी, जिसने भारत के माथे पर चिंता की लकीरों को गहरा दिया. दूसरी ओर चरमपंथ को जाने वाली फंडिंग पर हाल ही में ब्रिस्बेन में आयोजित हुए सम्मेलन में पाकिस्तान के खिलाफ लाए गए भारत के निंदा प्रस्ताव पर रूस के विपरीत रूख ने भारत सरकार को असहज स्थिति में ला खड़ा किया. इस बैठक में जमात-उल-दावा और लश्कर-ए-तय्यबा के खिलाफ पाकिस्तान की ओर से कोई कदम नहीं उठाये जाने पर भारत ने पाक की निंदा किए जाने की मांग की थी. गौरतलब है कि इसी मुद्दे पर चीन पहले ही पाकिस्तान के समर्थन में खड़ा है. खैर, यहाँ तक भी भारतीय विदेश नीति को कुछ खास झटका नहीं लगा था, लेकिन इससे आगे बढ़ने पर स्पष्ट रूप से हमारी लड़खड़ाहट और होमवर्क का अभाव दिखा. हाल ही में उफ़ा में हुए 'ब्रिक्स' सम्मलेन में नरेंद्र मोदी ने इस मामले में चीन से अपना विरोध व्यक्त करने की कोशिश की तो चीन ने तत्काल अपनी पूर्व नियोजित नीति के अनुसार टका सा जवाब दे दिया कि उसने पाकिस्तान का साथ तथ्यों के आधार पर दिया है. हालाँकि, इसके बाद नरेंद्र मोदी ने खुले मंच से संकेत देने की कोशिश जरूर की कि आतंकवाद पर दोहरी नीतियां नहीं अपनाई जानी चाहिए. परन्तु सवाल इतना सीधा होता तो इसे कूटनीति कहा ही क्यों जाता? थोड़ी सरल भाषा में इसे 'फ्लोर मैनेजमेंट' भी सकते हैं, जिसमें भारतीय प्रशासन की अक्षमता ही दिखी. इसके बावजूद, यदि विरोध जताना आवश्यक ही था तो प्रधानमंत्री की बजाय विदेश मंत्री या विदेश सचिव के माध्यम से बात पहुंचाई जा सकती थी. इस अंतर्राष्ट्रीय राजनीति से अलग हटकर जब हम भारत पाकिस्तान के द्विपक्षीय संबंधों की बात करते हैं तो यहाँ भी हमें और सावधानी से आगे बढ़ने की जरूरत नजर आती है. शपथ-ग्रहण में नवाज शरीफ के आने के बाद जब भारत सरकार ने कश्मीरी अलगाववादियों से मिलने की खातिर पाकिस्तान से विदेश सचिव स्तर की बातचीत रद्द कर दी, उसके बाद घाघ राजनीतिज्ञ बन चुके मियां नवाज शरीफ भारत के पाले में गेंद डालने में सफल रहे और उसका परिणाम उन्हें अब उफ़ा में ब्रिक्स सम्मलेन में मिल ही गया जब भारतीय प्रधानमंत्री ने अपनी पहल पर उनसे न सिर्फ बातचीत करना स्वीकार किया, बल्कि सार्क सम्मलेन के बहाने पाकिस्तान आने का निमंत्रण भी ग्रहण किया. हालाँकि, इस सरकार को पिछली भारतीय सरकारों की तरह पाकिस्तानी हुक्मरानों ने हलके में नहीं लिया होगा, क्योंकि ब्रिक्स में दोनों प्रधानमंत्रियों के मिलने के बाद जो बयान जारी हुए, उसमें आतंकवाद के खिलाफ कठोर बातें तो कही ही गयीं, साथ में 'कश्मीर समस्या' का ज़िक्र न होना भी भारतीय खेमे को कुछ हद तक संतुष्टि का कारण बना. पर सवाल यह है कि भारत की पाकिस्तान के सन्दर्भ में नीतियां और स्पष्ट होने के साथ साथ दूरगामी क्यों नहीं हैं? इस सन्दर्भ में एक सकारात्मक खबर ने मेरा ध्यान खींचा, जिसमें पाकिस्तान के पूर्व वित्त मंत्री और जाने-माने अर्थशास्त्री डॉक्टर हफीज पाशा ने व्यापार में चीन को टक्कर देने के लिए पाकिस्तान को भारत का साथ लेना चाहिए, इस प्रकार का वक्तव्य दिया है. उन्होंने अपने देश की सरकार से मांग भी की कि वह भारत-पाक व्यापार की बाधाएं दूर करे और भारत को व्यापार प्रोत्साहन दे, ताकि चीन के साथ बेहतर कॉम्पिटिशन हो सके. कितनी बढ़िया बात है, मगर इसकी व्यवहारिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है. हालाँकि, यह एक भविष्यवाणी भी है कि यदि भारत पाकिस्तान के सम्बन्ध निकट भविष्य में कभी सुधरने को तत्पर हुए तो व्यापार ही इसका प्लेटफॉर्म बन सकेगा, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई हल नहीं है. कूटनीति, व्यापार के बाद अब इस पूरी प्रक्रिया को सामरिक दृष्टि से देखना भी उतना ही आवश्यक है, क्योंकि दोनों देशों की सेनाएं जब तब आमने सामने आ खड़ी होती हैं और एक झगड़ालू इतिहास के लिहाज से तनाव बढ़ता ही जाता है. इसकी बानगी आप इस बात से ही समझ लीजिये कि ब्रिक्स में दोनों देशों की बैठक से पहले पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ने परमाणु हथियारों की धमकी वाले बयान दिए. इसके अतिरिक्त, भारत के रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कुछ दिनों पहले जब आतंक से निपटने के लिए आतंक के इस्तेमाल की बात की, तो इस बात पर काफी होहल्ला हुआ. इन दोनों बयानों के अतिरिक्त हज़ारों बयान दोनों तरह से आते ही रहते हैं जो आग में घी डालने का काम करते हैं. ऐसे मोर्चों पर हमारी विदेश नीति को साहसिक होने की आवश्यकता है, बल्कि 'दुस्साहसिक' ज्यादा उपयुक्त शब्द रहेगा. चाहे लाख बातें कही जाएँ, लें भारतीय सेना और उसकी क्षमता पाकिस्तानी सेना के मुकाबले बीस ही नहीं, बल्कि इक्कीस है और इसका सबूत उसने पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद को जम्मू कश्मीर में कुचलकर दे दिया है. आवश्यकता पड़ने पर ख़ुफ़िया आपरेशनों की गति बढ़ाने से भारत को भला क्यों परहेज होना चाहिए? लब्बोलुआब यह कि बजाय कि हम पाकिस्तान की यहाँ वहां शिकायत करें, उसके खिलाफ प्रस्ताव लाएं और फिर बातचीत की पहल भी खुद ही करें, क्या यह बेहतर नहीं होगा कि अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर हम उसकी तारीफ़ करें और व्यापार बढ़ाने के कदम भी उठाएं और ग्राउंड पर कूटनीतिक और ख़ुफ़िया माध्यमों से उसकी गर्दन हाथ में रखें. शायद, कूटनीति की परिभाषा भी यही है. चाणक्य नीति के अनुसार ध्यान रखना आवश्यक है कि जब कूटनीति असफल होती है, तब युद्ध की शुरुआत होती है और भारत पाकिस्तान के बीच कूटनीति रही ही नहीं, यह इस बात का बड़ा सबूत है. उम्मीद की जानी चाहिए कि उम्मीदों के बादशाह हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्पष्ट, साहसिक और दूरदर्शी विदेश नीति के सहारे नासूर बन चुके हमारे पडोसी का इलाज करने में सफल रहेंगे, अन्यथा इतिहास का कूड़ेदान उनको भी नहीं बख्शेगा!
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