पढोगे लिखोगे बनोगे नवाब,
खेलोगे कूदोगे बनोगे ख़राब.
खेल तो पहले भी होते रहे हैं हमारे देश में, लेकिन आज यह कहावत अगर पूरी तरह से बदल चुकी है तो इसकी जड़ में क्रिकेट की लोकप्रियता ही रही है. जाहिर है, क्रिकेट को लोकप्रिय बनाने और उससे आगे बढ़कर उसकी लोकप्रियता को अर्थशास्त्र से जोड़ने में सर्वप्रथम भूमिका जगमोहन डालमिया की ही रही है. इस बात से शायद ही कोई विश्लेषक या आम आदमी इंकार करेगा. आज के समय में जब हमारे देश में हॉकी लीग, कबड्डी लीग, बैडमिंटन लीग सफलतापूर्वक आयोजित हो रहे हैं तो हज़ारों खिलाड़ियों को भरपूर रोजगार के साथ उनकी प्रसिद्धि भी सुनिश्चित हो रही है. कोई कारण नहीं है कि भारत में खेलों की लोकप्रियता और उसके प्रति अर्थशास्त्रियों के झुकाव का शुरूआती कारण जगमोहन डालमिया को न माना जाय. जगमोहन डालमिया सिर्फ एक नाम ही नहीं रहे हैं, बल्कि भारतीय क्रिकेट और उससे आगे बढ़कर विश्व क्रिकेट के लिए भी एक युगपुरुष रहे हैं. उनका योगदान सिर्फ यह कहकर बताना कि भारतीय क्रिकेट को उन्होंने अमीर बनाया, उनकी प्रशासनिक क्षमता और खिलाड़ियों से उनके स्नेह के प्रति अन्याय होगा. अपने अंतिम समय में डालमिया भूलने की समस्या से जूझ रहे थे, और उन्होंने अपने एक सहयोगी से पूछा था कि 'हाल ही में चुनी गयी टीम में सचिन तेंदुलकर क्यों नहीं हैं?' कहने को यह एक भुलक्कड़ टाइप का प्रश्न है, लेकिन इससे उस व्यक्ति के अंतःकरण में बसा हुआ स्नेह प्रकट होता है, जिस स्नेह के हकदार मास्टर ब्लास्टर रहे हैं. सिर्फ सचिन ही क्यों, बंगाल टाइगर के नाम से मशहूर सौरव गांगुली उनके अंतिम पलों तक साथ रहे तो इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, बांग्लादेश और पाकिस्तान आदि के साथ अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट प्रशासकों ने भी उनके निधन पर शोक व्यक्त करते हुए उनके योगदान को खुलकर सराहा है. अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद के प्रमुख ज़हीर अब्बास ने कहा कि “बड़ा अफसोस का दिन है कि क्रिकेट का एक बहुत ही अहम व्यक्ति दुनिया से चला गया, उनकी बांग्लादेश को टेस्ट-क्रिकेट का दर्जा देने में अहम भूमिका थी” गौरतलब है कि बीते दिनों डालमिया को दिल का दौरा पड़ा था जिसके बाद उनका कोलकाता के एक अस्पताल में इलाज हो रहा था और उन्होंने आख़िरी सांस ली. भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री और अनेक देशों के क्रिकेट प्रशासकों ने इस क्रिकेट प्रशासक को श्रद्धांजलि देने में जरा भी कंजूसी नहीं की. जगमोहन डालमिया ने अपने 75 साल के जीवन में राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट को नई ऊंचाइयां दीं. उनके कार्यकाल में बीसीसीआई और पूरी दुनिया का क्रिकेट अमीर हुआ तो, उन्हीं के प्रयासों से पूर्व क्रिकेटरों को पेंशन मिलना शुरू हुई. एक तथ्य यह भी है कि जब भी डालमिया को क्रिकेट की राजनीति में मात मिली, वे पहले से ज्यादा मजबूत बनकर उभरे. इसीलिए उन्हें भारतीय क्रिकेट का ‘कमबैक किंग’ भी कहा जाता है. बीसीसीआई से बैन होने के बावजूद उन्होंने न सिर्फ बोर्ड में वापसी की बल्कि इसी साल मार्च में फिर से अध्यक्ष भी चुने गए. बीसीसीआई अध्यक्ष जगमोहन डालमिया को हमेशा ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाएगा, जिसने क्रिकेट की ताकत को ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड से निकालकर भारत के शहरों तक पहुंचाया. हालाँकि, डालमिया ने अपने लंबे प्रशासनिक करियर के दौरान अच्छा, बुरा और बदतर, हर तरह का दौर देखा. भारतीय क्रिकेट को उनका सबसे बडा तोहफा 1990 के दशक की शुरुआत में वर्ल्ड टेल के साथ लाखों डालर का टेलिविजन करार था, जिसने बीसीसीआई में पैसे आने का द्वार खोल दिया. इसके बाद कुशल रणनीतिकार डालमिया ने 1987 में भारत की सहमेजबानी में रिलायंस विश्व कप और 1996 में विल्स विश्व कप के आयोजन में अहम भूमिका निभाई. डालमिया ने 35 साल के अपने प्रशासनिक करियर की शुरुआत राजस्थान क्लब से बंगाल क्रिकेट संघ की कार्यकारी समिति का सदस्य बनकर की. इसके बाद वह कैब के कोषाध्यक्ष और सचिव भी बने. बीसीसीआई के पूर्व अध्यक्ष बीएन दत्त के शिष्य रहे डालमिया 1980 के दशक में कोषाध्यक्ष बने. हालाँकि, इसके बाद डालमिया कई बार विवादों से भी घिरे. साल 2000 में जब मैच फ़िक्सिंग प्रकरण सामने आया, तब जगमोहन डालमिया पर इस मामले को दबाने के आरोप लगे, लेकिन सीबीआई जांच में भारत के कप्तान मोहम्मद अज़हरूद्दीन और दक्षिण अफ़्रीका के कप्तान हैंसी क्रोनिए के नाम सामने आए. डालमिया पर 1996 में हुए विश्व कप क्रिकेट टूर्नामेंट के आयोजन के दौरान वित्तीय गड़बड़ियों के आरोप भी लगे. इसी कड़ी में, साल 2008 में उन्हें मुंबई पुलिस ने गिरफ़्तार भी किया, जिसके बाद वो सुप्रीम कोर्ट गए, जहां उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं मिला. हालाँकि, आतंरिक और अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट की राजनीति के चलते उनकी छवि ख़राब करने की जबरदस्त कोशिशें हुईं, लेकिन अगर मुसीबतें न हों तो इंसान की पहचान ही क्या रह जाय! विवादों की कड़ियों में, साल 1996 में हुए विश्व कप के टेलीविज़न अधिकार मार्क मैसकरहेन ने हासिल किए, तब जगमोहन डालमिया पर आरोप लगा कि उन्होंने उनसे पैसे लिए. निरंकुशता के आरोप भी इस महारथी पर लगे हैं और कहा जाता है कि उनके सामने किसी की नहीं चलती थी. हालाँकि, इन आरोपों को डालमिया के हालिया कार्यकाल झूठा साबित करते हैं और काफी हद तक उनके खिलाफ एकजुट राजनीति की ओर भी इशारा करते हैं. उनके ऊपर सबसे बड़ी मुसीबत तब आयी जब 2006 में उन्हें बीसीसीआई से बाहर कर दिया गया, लेकिन सिकंदर की तरह हारी बाजी को जीतकर ही वह अपने आखिरी सफर के लिए रवाना हुए. चाहे लाख आरोप लगाएं जाएँ इस महायोद्धा पर, लेकिन सच्चाई यही है कि न केवल भारतीय क्रिकेट में बल्कि विश्व क्रिकेट में इस तरह का क्रिकेट योद्धा शायद ही कोई हो, जिसने अपना सर्वस्व क्रिकेट के लिए समर्पित कर दिया. क्रिकेट को ही क्यों, अगर दुसरे खेल में डालमिया द्वारा विकसित किये सफल मॉडल के रास्ते पर चल पड़े हैं तो इसका श्रेय भी उन्हें खुले दिल से दिया जाना चाहिए. कौन नहीं जानता है कि डालमिया-युग से पहले, अख़बार में यह खबरें देखने को मिल ही जाती थीं कि अमुक खिलाड़ी ने तंगी से जुझने के लिए अपने मेडल को बेच दिया, या अमुक खिलाड़ी ने भूख से परेशान होकर आत्महत्या कर ली.... आज अगर खिलाड़ी इन सबसे ऊपर उठे हैं, तो उसमें इस दूरदर्शी स्पोर्ट्स पॉलिटिशियन की सबसे बड़ी भूमिका है. जाते-जाते 75 वर्षीय डालमिया की आंखें वनमुक्ता आई बैंक को दान की गई, जिससे दृष्टिहीनता को समाप्त करने के लिये डालमिया द्वारा शुरू एक सामाजिक कार्यक्रम की शुरूआत को बल मिलने के साथ-साथ लोगों में अपने ऑर्गन-डोनेशन की प्रवृति को भी बढ़ावा मिलेगा. आखिर, एक खिलाड़ी वही है जो अंतिम ओवरों तक खेले, अंतिम बाल तक ... और यही किया इस महारथी ने!
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