प्रधानमंत्री की बहुचर्चित अमेरिका यात्रा के बारे में काफी शोर मचा हुआ है. इन्वेस्टमेंट, ग्लोबल लीडर, डिजिटल इंडिया, टॉप सीईओज, कॉन्फ्रेंस जैसे अनेक शब्द हमें एक नयी दुनिया में ले जाते हैं तो गरीबी, 125 करोड़ भारतीय जनता, रोजगार, तकनीक प्रसार जैसे शब्द कहीं न कहीं हमारे मन में आशा का भाव भी जगाते हैं. हालाँकि, यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यह पूरी की पूरी चर्चा एकतरफा होने से मन में एक भय भी लगा रहता है. न .. न .. हमारे प्रधानमंत्री के प्रयासों में कमी नहीं है कहीं, लेकिन प्रश्न है उन कॉर्पोरेट्स का, जो सिर्फ और सिर्फ मुनाफे की ही बात करते हैं और इस बीच दब जाती हैं आम जनमानस के जीवन-स्तर में परिवर्तन की चाह और कई बार तो कानूनों के सरेआम उल्लंघन से नागरिकों का जीवन ही खतरे में पड़ता दिखाई देने लगता है. सकारात्मक तरीके से सोचा जाय तो सिलिकॉन वैली की बड़ी कंपनियां हमें अपनी टेक्नोलॉजी देंगी और भारत में पूँजी का प्रवाह बढ़ेगा, लेकिन थोड़ा नकारात्मक होकर सोचा जाय तो यह सब किन शर्तों पर होगा और क्या इससे नागरिक जीवन-स्तर पर कोई उल्टा फर्क पड़ेगा? थोड़ा और नकारात्मक होकर सोचा जाय तो जिस देश की 20 करोड़ जनता भूखी सोने को मजबूर हो, किसान आत्महत्या कर रहे हों, चंद सरकारी नौकरियों के आरक्षण के लिए देश का युवा बागी होने को तैयार है... उस देश का प्रधानमंत्री कॉर्पोरेट के दफ्तर-दफ्तर जाए तो इसके कई अर्थ निकलने ही चाहिए! टेक्सेवी लोगों के एक वर्ग के लिए यह सारा कुछ थोड़ा चमकदार जरूर दिखता है, लेकिन मैं हैरान हूँ कि तमाम कॉलमनिस्ट, पत्रकार और दुसरे बुद्धिजीवियों की कलम भी कॉर्पोरेट की चमक दमक में बंध सी गयी है! क्या वाकई, देश को कॉर्पोरेट के हवाले कर देना ही एकमात्र हल रह गया है? आज यह कंपनियां बेशक चंद रूपये हमारे देश में लगाने को तैयार हो जाएँ, लेकिन कल अगर वह पैसा निकालने की बात करने लग जाएँ तो हमारे पास क्या विकल्प होगा? इन वैश्विक जायन्ट्स के साये में स्टार्ट-अप्स कंपनियां पनपेंगी भी, इस बात पर बड़ा प्रश्नचिन्ह है? कृषि क्षेत्र को इन सभी कंपनियों में से कोई जरा भी एंटरटेन करने को राजी नहीं दिख रहा है, तो क्या कृषि-क्षेत्र हमारे देश में हाशिये पर 'और ज़ोर से' धकेल दिया जायेगा? मूल प्रश्न यही है कि क्या हम प्रतिरोधी-तंत्र विकसित करने की भी तैयारी करते दिख रहे हैं? या सिर्फ, तू आगे-आगे कॉर्पोरेट ... और पीछे-पीछे हम सभी देशवासी वाली रणनीति ही अपनाई जाएगी?
कॉर्पोरेट कल्चर को जिम्मेद्वार बनाने के सन्दर्भ में बात करें तो, अभी हाल ही में मैगी के ऊपर काफी शोर शराबा हुआ क्योंकि यह कंपनी ग्राहकों को तय मात्रा से ज्यादा 'शीशा' खिला रही थी. चूँकि, मामला भारत की कई लैबों में साबित भी हो चुका था, इसलिए इस पर प्रतिबन्ध लगाया गया. कई लोगों ने इस सन्दर्भ में प्रतिबन्ध का समर्थन किया तो कइयों ने इस पर अपनी भौहें टेढ़ी करते हुए कहा कि इससे देश में कंपनियों के लिए निवेश की राह में बाधाएं खड़ी हो सकती हैं. इन आवाज उठाने वालों में हमारे पूर्व कृषि-मंत्री शरद पवार जैसे लोग भी शामिल थे. खैर, आज के समय में निवेश तो चाहिए ही और इससे किसी को इंकार भी नहीं होना चाहिए, लेकिन यक्ष प्रश्न यही है कि क्या कार्पोरेट कंपनियों को नागरिकों के जीवन से खिलवाड़ करने की खुली इजाजत दे दी जानी चाहिए? क्या कानूनों की सख्ती को इस तरह से मुलायम बनाया जाना चाहिए कि कॉर्पोरेट सिर्फ मुनाफों की परवाह करे और इसकी आड़ में वह पर्यावरण, नागरिक जीवन ... यहाँ तक की राष्ट्रीय सुरक्षा को भी खतरे में डाल दे! (ऐसा विषय, गूगल मैप्स और फेसबुक डेटा-सेलिंग से उठा है.) ऐसा सिर्फ मैगी के ही मामले में हुआ हो ऐसा भी नहीं है, बल्कि एक-एक करके सैकड़ों बड़ी कंपनियों पर अलग-अलग सन्दर्भों में ऐसे प्रश्न उठ चुके हैं.
इन सबसे आगे, हाल ही में जिस कंपनी पर पर्यावरण प्रदूषण को घातक ढंग से फैलाने और उससे बढ़कर जानबूझकर अपने ग्राहकों और सरकार की आँखों में धूल झोंकने का आरोप लगा है, उससे वैश्विक बाज़ारों में हलचल मची हुई है. जी हाँ! लक्जरी कारों का पर्याय मानी जाने वाली 'ऑडी ब्रांड' और उसकी पैरेंट कंपनी फॉक्सवेगन की करोड़ों कारों में 'एमिशन चीटिंग सॉफ्टवेयर' से जानबूझकर प्रदूषण छिपाने का मामला सामने आया है. कार कंपनी ऑडी की 21 लाख कारों में प्रदूषण स्तर छिपाने वाला वही सॉफ़्टवेयर लगा है जो उसकी मूल कंपनी फ़ॉक्सवैगन की कारों में लगा है. गौरतलब है कि अमरीका की पर्यावरण संरक्षण एजेंसी ने कुछ दिन पहले पाया था कि फ़ॉक्सवैगन की कुछ डीज़ल कारों में ऐसे सॉफ़्टवेयर लगे हैं जो वाहन की प्रदूषण जांच के दौरान उसका प्रदर्शन बदल सकते हैं. तब जर्मन कंपनी फ़ॉक्सवैगन ने ग्राहकों का भरोसा तोड़ने के लिए माफ़ी मांगी थी. अब ऑडी के ये मानने के बाद कि उसकी कारों में वही सॉफ़्टवेयर लगा है जिससे प्रदूषण का स्तर छिपाया जाता है, ये भी सामने आया है कि ऐसी लाखों गाड़ियां पश्चिमी यूरोप जैसे विकसित क्षेत्रों में हैं. इनमें से 577000 कारें जर्मनी में हैं जबकि तेरह हज़ार अमरीका में हैं. इस विवाद के बाद, फ़ॉक्सवैगन के शेयर बूरी तरह लुढ़के और कंपनी के सीईओ मार्टिन विंटरकन ने पद छोड़ दिया है. हालाँकि, इतने बड़े स्कैम के बाद यह एक बड़ी बेशर्मी ही होती कि विंटरकन पद पर बने रहते. वैसे, कंपनी के नए प्रमुख ने पूरे मामले में जाँच का भरोसा दिया है, लेकिन हम सब जानते हैं कि जांच में लीपापोती के अलावा कुछ और नहीं होगा, आखिर इन्वेस्टमेंट और लोगों के रोजगार का प्रश्न जो है! फ़ॉक्सवैगन कार बिक्री के मामले में दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी हैं और इस विवाद से उसकी छवि पर ग़हरा असर जरूर हुआ है. शायद अब कंपनी पर कुछ हज़ार डॉलर के जुर्माने भी लग जाएं, लेकिन प्रश्न यही है कि आखिर इतने बड़े स्तर पर स्कैम करने की सोच इन कंपनियों में कहाँ से आती है? भारत अमेरिका के बीच जब बहुचर्चित परमाणु समझौता हुआ और किसी दुर्घटना की स्थिति में जब कंपनियों की जवाबदेही के प्रावधान की बात आयी तो कई कंपनियों ने ना नुकर करना शुरू कर दिया. भोपाल काण्ड और उसके बाद एंडरसन को देश से सुरक्षित बाहर किया जाना आज भी देश को दर्द दे जाता है. इस क्रम में बड़ा प्रश्न यही है कि आखिर, वैश्वीकरण के तेज़ी से बदलते दौर में कॉर्पोरेट कल्चर को जिम्मेवार किस प्रकार बनाया जा सकता है, ताकि मैगी या फॉक्सवैगन जैसी कंपनियां कम से कम जानबूझकर अपने ग्राहकों और कानून के साथ खिलवाड़ करने से पहले हज़ार बार सोचें. प्रश्न यह भी उठता है कि प्रधानमंत्री के कॉर्पोरेट दुनिया के प्रति अति झुकाव दिखाने से क्या इन कंपनियों में स्वेच्छाचारिता का भाव भी जन्म लेगा? प्रश्न यह भी है कि क्या तमाम प्रतिभाशाली भारतीय युवा इन कंपनियों के 'एक्जीक्यूटिव' बन कर रह जायेंगे ... और अंततः पूँजी का केंद्रीकरण ही होगा! प्रश्न तमाम हैं, लेकिन चमकती फ़िज़ा में इन पर परदा पड़ गया है... ऑडी, मैगी विवादों से कभी कभी खुरच जरूर पड़ जाती है, लेकिन चमक बहुत तेज़ है!
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