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बुजुर्ग नहीं, उनकी संपत्ति है हमारी!

एक बड़ी मार्मिक, लेकिन सुनी सुनी कहानी जब मैंने अपने फेसबुक वॉल पर शेयर किया तो जबरदस्त लाइक और कमेंट के साथ कई लोगों ने उसे री-शेयर भी किया. लेख को आगे बढ़ाएं, उससे पहले किसी अज्ञात महानुभाव द्वारा लिखित यह छोटी कहानी आपके सामने रखता हूँ, जिसके अनुसार:
एक बेटा अपने बूढ़े पिता को वृद्धाश्रम एवं अनाथालय में छोड़कर वापस लौट रहा था; उसकी पत्नी ने उसे यह सुनिश्चत करने के लिए फोन किया कि पिता त्योहार वगैरह की छुट्टी में भी वहीं रहें,घर ना चले आया करें!
बेटा पलट के गया तो पाया कि उसके पिता वृद्धाश्रम के प्रमुख के साथ ऐसे घुलमिल कर बात कर रहे हैं जैसे बहुत पुराने और प्रगाढ़ सम्बंध हों... तभी उसके पिता अपने कमरे की व्यवस्था देखने के लिए वहाँ से चले गए. अपनी उत्सुकता शांत करने के लिए बेटे ने अनाथालय प्रमुख से पूछ ही लिया...
"आप मेरे पिता को कब से जानते हैं ? "
यह कहानी यहीं समाप्त होती है, लेकिन इस कहानी के अनेकों उदाहरण आपको अपने आसपास दिख जायेंगे! क्या यह सच नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने माँ बाप से इतना अहसान ले चुका होता है कि अगर वह चाहे तब भी पूरी ज़िन्दगी उसे चुका नहीं सकता है. सच तो यही है कि हम अपनी नाकामी, आलस, असफलता का दोष अपने बुजुर्गों पर आसानी से मढ़कर उनके प्रति कर्तव्यों से मुंह मोड़ लेते हैं, जबकि उनकी संपत्ति पर जबरदस्त ढंग से दावा भी ठोकते हैं! इस दोमुंहे कुकृत्य के लिए, कई लोग कुतर्कों की श्रृंखला पेश कर देंगे. ऐसे लोगों के लिए सलाह है कि उमेश शुक्ला द्वारा निर्देशित हिंदी फिल्म 'आल इज वेल' जरूर देखें. जुलाई 2015 में रिलीज इस फिल्म में मुख्य भूमिका अभिषेक बच्चन ने निभायी है, जिनका अभिनय मुझे दूर-दूर तक पसंद नहीं! ऋषि कपूर ने इस फिल्म में उनके बाप की भूमिका निभायी है. शुरू के एक-डेढ़ घंटे तो यह फिल्म जबरदस्त ढंग से बोर करती है, लेकिन अंतिम दृश्यों में यह फिल्म बेहद खूबसूरती से अपना सन्देश देने में सफल रही है. पारिवारिक मूल्यों की ज़रा भी समझ रखने वाले व्यक्ति, इस फिल्म के सन्देश को निश्चित रूप से व्यवहारिक कहेंगे!
इस सन्दर्भ में, बुजुर्गों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों से हम बखूबी परिचित हैं. अनाथालयों में संपन्न घरों के वरिष्ठ अपना अंतिम समय किस कठिनाई और पीड़ा से काट रहे हैं, इसकी जानकारी हम सबको है. हम यह भी जानते हैं कि कल हमारे सामने भी वही स्थिति आने वाली है, जिसका सामना हमारे माँ बाप आज कर रहे हैं, किन्तु हमारी आँखों के साथ हमारा मन भी इस विषय पर पत्थर बन जाता है. कई बार हम आर्थिक समस्याओं का रोना रोते हैं तो कई बार बच्चों की पढाई का तर्क पेश करते हैं तो कई बार खुद की ज़िन्दगी और उसकी आज़ादी का कुतर्क देते हैं. अति तो तब हो जाती है, जब अपने वरिष्ठों के प्रति कर्तव्यों से मुंह मोड़ लेने के बावजूद हम बड़ी बेशर्मी से इस बात की उम्मीद लगाये रहते हैं कि उनकी तमाम संपत्ति पर हमारा ही अधिकार है. कई बार तो घर के बुजुर्ग अस्पतालों में पड़े होते हैं और उन्हें मरा समझकर घर में संपत्ति का बंटवारा करने उसके तमाम बेटे बड़े शहरों से या फिर विदेशों से भी आ धमकते हैं. कभी कभी विश्वास नहीं होता है कि यह वही देश है, जहाँ श्रवण कुमार या भगवान राम जैसे महान व्यक्तियों ने मर्यादाओं के ऊँचे प्रतिमान स्थापित किये हैं, जिससे पूरी दुनिया प्रेरणा लेती रही है. वैसे, हमारे पड़ोसी देश चीन में एक बुजुर्ग ने ऐसा कुछ किया है, जिससे अंधे समाज की आँखों पर चुल्लू भर पानी ज़रूर पड़ सकता है! गौरतलब है कि एक चीनी व्यक्ति का अंतिम संस्कार उसकी जीवनभर की कमाई (33 हजार डालर की नकद राशि) को उसकी चिता पर रखकर किया गया. ख़बरों के अनुसार, इस व्यक्ति की अंतिम इच्छा थी कि उसके जीवनभर की कमाई को उसके दोनों बेटों को देने के बजाय उसके साथ ही चिता पर रख दिया जाए. ज़ाहिर है, इस बुजुर्ग के उठाये कदमों की अलग-अलग ढंग से व्याख्या की जाएगी, लेकिन उसके द्वारा यह कृत्य क्यों किया गया, इस पर गौर करने की आवश्यकता शायद ही समझी जाए. पूर्वी चीन के जियांग्सू प्रांत के रहने वाले किसान ताओ ने अपनी वसीयत में लिखा था कि मरने पर उसकी जीवन भर की कमाई को उसके साथ ही जला दिया जाए.
दरअसल देखभाल नहीं करने को लेकर यह व्यक्ति अपने दोनों बेटों से बेहद खफा था. दस साल पहले ताओ ने अपनी जमीन अपने दोनों बेटों को दे दी थी और गांव से कहीं दूर जाकर एक छोटे से किराये के मकान में रहने लगा था. वह शहर में कचरा बीन कर अपना गुजारा करता था. बाद में, बढ़ती उम्र के चलते जब ताओ को महसूस हुआ कि वह अब और अधिक काम का बोझ नहीं उठा सकता तो उसने अपने बेटों से मदद मांगी. उसे स्वाभाविक उम्मीद थी कि वह अपना अंतिम समय दोनों में से किसी एक बेटे के साथ गुजारेगा, लेकिन दोनों बेटों ने कोई न कोई बहाना बनाकर उसके हालात को समझने से इंकार कर दिया. ताओ ने खुद ही अपने लिए अंतिम समय में पहने जाने वाले पारंपरिक कपड़े सिलवा लिए और इस तरह उसने किराये के घर में अंतिम सांस ली. मौत के समय एक रहस्यमय व्यक्ति ने आकर ताओ की अंतिम इच्छा के अनुसार 210,000 युआन यानि 33,052 डॉलर की पूरी कमाई उसकी चिता पर रख दी. प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर इन हालातों में कोई बुजुर्ग क्या करे? वह व्यक्ति तो इतना दुस्साहसी था, लेकिन भारतवर्ष में तो माता-पिता हर हाल में अपने बच्चों का भला सोचते हैं और उनके बच्चे जानते हैं कि उनके बुजुर्ग, बेशक भूखे रह लें, बेशक उन्हें दवाइयाँ न मिले, लेकिन मरने के बाद उनकी संपत्ति तो उन्हीं की होगी. माँ बाप की इन्हीं भावनाओं का तो फायदा उठाते हैं, तथाकथित समझदार लोग! ठीक बात है कि दुनिया बदल रही है, लेकिन रगों में बहने वाले खून का रंग लाल ही है अभी! प्रोफेशनलिज्म के हिसाब से भी देखा जाय तो अगर बच्चे सेवा नहीं करते हैं तो उन्हें किसी भी हाल में संपत्ति का लालच नहीं रखना चाहिए... और हाँ! सबसे बड़ी बात यह भी कि उन्हें भी अपने साथ उसी व्यवहार के लिए तैयार रहना चाहिए, जो वह अपने माँ बाप और वरिष्ठों के साथ कर रहे हैं! आखिर, दुनिया गोल है... घूम फिरकर आपको भी तो वहीँ आना है!
ऐसा नहीं है कि पूरा समाज ही इस दिशा में है, बल्कि कुछेक उदाहरण ऐसे भी हैं जहाँ नयी पीढ़ियां तालमेल कर रही हैं. लेकिन, समाज की सोच गलत दिशा में ही बढ़ रही है, इस बात में शक नहीं! उम्मीद है कि छोटे छोटे उदाहरणों से सीख लेकर सामाजिक जागरूकता बढ़ेगी... आखिर, हमारी रगों में बुजुर्गों के सम्मान की सीख तो है ही, जरूरत है नए हालातों के अनुसार उसे पुनर्परिभाषित करने की और इसमें भारतीय पूरी तरह सक्षम हैं! बस देखना है कि वह अपनी नींद से कब जागते हैं...
 
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