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अंधाधुंध निवेश, शहरीकरण के लिए.... Economy for investment, for cities only is not perfection, hindi article by Mithilesh

हाल ही में दिल्ली में लगे इंडिया इंटरनेशनल ट्रेड फेयर में जाने का अवसर मिला. एक बात, जो थोड़ी नकारात्मक भी लग सकती है, उनका ज़िक्र करना चाहूंगा. इस अंतर्राष्ट्रीय मेले में हमारे तमाम स्टेट-पाविलियन में जो बात कॉमन दिखी वह यह थी कि 'हमारे यहां बिजनेस करो, हमारे यहाँ निवेश करो, हमारे यहाँ इसकी आसानी है, हमारे यहाँ बिजनेस-कानूनों में सहूलियत है, हमारे यहाँ आपको इन्स्पेक्टर बिजनेस के लिए कुछ नहीं कहेगा, हमारे यहाँ सिंगल-विंडो है इन्वेस्टमेंट के लिए... बला, बला ... इन्वेस्टमेंट के लिए ये सुविधा, निवेश के लिए वो सुविधा... यहां तक कि यूपी की समाजवादी सरकार ने भी अपने पाविलियन के आगे तमाम मल्टी-नेशनल कम्पनियों के नाम लेबल की तरह चिपका रखे थे... सैमसंग, हौंडा, थॉम्पसन, यामाहा ...  आदि, आदि. सच कहूँ तो इस बात को लेकर कन्फ्यूजन होती है कि यह लोकतान्त्रिक सरकारों के पांडाल हैं या फिर पूंजीपतियों को लुभाने वाले किसी लाइजनर, एजेंट, एजेंसी के...  इससे अच्छा तो सरकारें कटोरा लेकर तथाकथित 'इन्वेस्टमेंट' मांगती तो जनता का भ्रम दूर हो जाता कि यह उनकी ही सरकारें हैं, जिनको वोट देकर उन्होंने चुना है और जिनके अधिकारों के लिए वह तमाम-वादे कर गए हैं. आखिर, इस तरह के माहौल की रचना करके हम अपने लोगों को अंततः आर्थिक गुलाम बनाने की ओर नहीं धकेल रहे हैं तो और क्या कर रहे हैं? 

यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ कि बिजनेस या इन्वेस्टमेंट के खिलाफ यह लेख कतई नहीं है, लेकिन यह देश की 80 फीसदी से ज्यादा जनता को मात्र उपभोक्ता बनाने का विरोध जरूर करता है! यह लेख गरीब और मध्यम-वर्ग को सिर्फ नौकर बनाने का विरोध करता है! हाँ! यह लेख, देश के कृषि-क्षेत्र की कीमत पर शहरीकरण का विरोध जरूर करता है! सवाल है कि क्या यह देश, सिर्फ मल्टी-नेशनल कंपनियों की पूँजी-इन्वेस्टमेंट पर ही चलेगा? अर्थव्यवस्था को गति देने के नाम पर जो घालमेल चल रही है, उससे क्या हमारे यहाँ नए उद्यमी पैदा होंगे? या फिर पूँजी का केंद्रीकरण होता चला जायेगा. क्या केंद्र सरकार और राज्य सरकारें जितना ज़ोर इन्वेस्टमेंट पर दे रही हैं, उसका आधा भी कृषि-क्षेत्र को दे रही हैं या फिर उसे मरा हुआ मान लिया गया है. खैर, इस क्रम में आगे बात करें तो इस बात में कोई शायद ही संदेह करे कि हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में इन्वेस्टमेंट लाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया है. इसी सिलसिले में हमेशा की तरह अपनी वर्तमान यात्रा पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिंगापुर की कंपनियों को भारत में सार्वजनिक उपक्रमों के प्रस्तावित विनिवेश में शामिल होने का न्योता दिया है. न केवल पब्लिक सेक्टर कंपनियों के लिए, बल्कि 20 स्मार्ट शहरों के विकास के लिए भी सिंगापुर से मदद की गुजारिश की गयी है. नयी सरकार का एक पक्ष यह भी है कि भारत में अर्थव्यवस्था की रफ़्तार ने, न केवल अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों को बल्कि, देश में धूर-विरोधियों को भी तारीफ़ के लिए मजबूर किया है. 

इसी सन्दर्भ में कांग्रेस नेता शशि थरूर ने भारतीय अर्थव्यवस्था की दिशा को लेकर एक बड़ा बयान देते हुए देश की अर्थव्यवस्था को ठीक बताया है. एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन ‘बियोंड द वॉशिंगटन कंसेंसस पब्लिक पॉलिसी एंड फ्यूचर ऑफ डेवलपमेंट असिस्टेंस’ में थरूर ने कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था ने वैश्विक आर्थिक मंदी के दिनों में भी बेहतरीन प्रदर्शन किया है, क्योंकि विदेशों में रहने वाले भारतीय देश के प्रति वफादार हैं और वे लगातार निवेश कर रहे हैं. सिर्फ बड़े निवेशकों की ओर देखने वालों को आइना दिखाते हुए थरूर ने कहा कि अधिकांश निवेश खाड़ी देशों में रहने वाले भारतवंशी कामगारों ने किया है. जाहिर है, ऐसी तारीफों से कहीं न कहीं विदेश-यात्रा पर गए नरेंद्र मोदी का उत्साह भी चौगुना हो जाता होगा. इसी क्रम में अपनी चिर-परिचित आदत के अनुसार प्रधानमंत्री मोदी ने सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सीन लूंग तथा राष्ट्रपति टोनी टैन केंग सहित विभिन्न नेताओं के साथ विचार विमर्श के दौरान भारत में ‘कई सिंगापुर बनाने’ के विचार पर भी जोर दिया. साफ़ तौर पर प्रधानमंत्री का यह विचार आने वाले समय में भारत के बड़े शहरों को विकास की रफ़्तार में आगे ले जाने से जुड़ा हुआ है. हालाँकि, प्रधानमंत्री ने क्षेत्रीय वृहद आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) को तेजी से पूर्ण करने की जरूरत के मद्देनज़र शहरी विकास के अलावा कौशल विकास, पर्यटन, नागरिक उड्डयन और वित्तीय सेवाओं को लेकर विदेशी निवेश में आकर्षण पैदा करने की भी भरपूर कोशिश की है. 

प्रधानमंत्री की इस यात्रा में सिंगापुर की कंपनियों को नवरत्न कंपनियों के उपक्रमों के विनिवेश में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया गया, जो सरकार का पब्लिक सेक्टर कंपनियों को लाइमलाइट में लाने का महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है. आंकड़ों की बात करें तो, चालू वित्त वर्ष में सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश से 69,000 करोड़़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है. ज़ाहिर है, प्रधानमंत्री की महत्वकांक्षी 'मेक इन इंडिया' की सफलता में इसका बड़ा महत्व है. इन सभी कवायदों और अब तक सरकार की जो नीतियां सामने आ रही लगती हैं, उससे यही प्रतीत होता है कि सरकार बाहर के देशों से इन्वेस्टमेंट लाने के लिए पूरी तरह जुटी है. सवाल उठता है कि क्या अर्थव्यवस्था के लिए इतना भर किया जाना ही पर्याप्त है? क्या देश के भीतरी हालातों में विश्वास पैदा करने के लिए प्रयत्न नहीं किया जाना चाहिए? लघु उद्योग, कुटीर उद्योग, कृषि जैसे क्षेत्रों को पूरी तरह उनके हाल पर छोड़ दिया जाना क्या वाकई उचित और दूरदर्शी कदम है? सवाल कई हैं और इन सभी सवालों का जवाब दिए वगैर, यह कहना संदिग्ध हो जाता है कि अर्थव्यवस्था लम्बी दूरी तक जाएगी. दुनिया का बड़े से बड़ा अर्थशास्त्री, हमारी भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में कुछ भी टिप्पणी कर ले, किन्तु सबसे बड़ा सच यही है कि हमारी सेविंग(बचत) की बुनियाद ने हमें हर संकट से बचाये रक्खा है. और यह बुनियाद कोई आज की नहीं है, बल्कि सदियों से हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसे अपनाते रहे हैं. हमारी सरकार को समझना होगा इसे और टूटते परिवारों के दौर में इसे बढ़ावा देना मुख्य कदम होना चाहिए. 

इस सन्दर्भ में सरकार द्वारा गोल्ड-डिपॉजिट करने की स्कीम का ज़िक्र लाजमी हो जाता है, जिसका सोशल मीडिया पर जबरदस्त मजाक बनाया गया, क्योंकि काफी शोर-शराबे के बावजूद बेहद कम मात्रा में सोना जमा हुआ है. जाहिर है, इस योजना में भारतीय मानसिकता को समझने में कहीं न कहीं गलती की गयी! कृषि पर हमारी अर्थव्यवस्था आधारित रही है और आज भी 60 से 70 करोड़ लोग इसी के ऊपर निर्भर हैं. ऐसे में, इस सिस्टम को यूं ही गिरती-पड़ती हालत में किस प्रकार छोड़ा जा सकता है? अफ़सोस! पिछली सरकारों की तरह वर्तमान सरकार भी इस ओर से अब तक मुंह मोड़े हुए है. काश! हमारे प्रधानमंत्री सिंगापुर जैसी किसी जगह पर यह भी कहते कि 20 गाँवों को भी कृषि-मॉडल के तौर पर विकसित करने में हमें आपकी सहायता चाहिए... शायद! अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया के खेत ... या फिर कनाडा का पशुपालन! उम्मीद की जानी चाहिए कि शहरीकरण की ओर आँख बंद करके चलती हमारी व्यवस्था गाँव के साथ तालमेल बनाएगी, अन्यथा हमें असमान विकास का शिकार रहने को मजबूर होना पड़ेगा. हमें अंधाधुंध निवेश मांगने, शहरीकरण का अंधानुकरण करने से पहले महात्मा गांधी का वह सन्देश तो याद कर ही लेना चाहिए, जिसमें उन्होंने साफ़ कहा है कि 'देश की आत्मा गाँवों में बसती है'. चूँकि, अपनी कई योजनाओं में महात्मा गांधी का ज़िक्र केंद्र सरकार कर रही है तो क्यों न वह उनकी गाँव वाली बात भी ध्यान में रक्खे. वह निवेश करने को कहे, किन्तु गिड़गिड़ाए नहीं ... बल्कि, अपने यहाँ उद्यमी पैदा करने की दूरदर्शिता को अपनाये! इसी तरह वह शहरीकरण करे, किन्तु गाँव और कृषि की कीमत पर कतई नहीं... अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि खूब भागदौड़ के बाद भी ... केवल 400 ग्राम ही सोना आये !!!

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